27 February 2010

चंद्रशेखर आजाद (23 जुलाई 1906 - 27 फरवरी 1931) - शत शत नमन!


चंद्रशेखर आजाद (23 जुलाई 1906 - 27 फरवरी 1931) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अत्यंत सम्मानित और लोकप्रिय क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे। वे भगत सिंह के अन्यतम साथियों में से थे। असहयोग आंदोलन समाप्‍त होने के बाद चंद्रशेखर आजाद की विचारधारा में बदलाव आ गया और वे क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिंदुस्‍तान सोशल रिपब्लिकन आर्मी में शामिल हो गए। उन्‍होंने कई क्रांतिकारी गतिविधियों जैसे काकोरी काण्ड तथासांडर्स-वध को अंजाम दिया।

जन्म तथा प्रारंभिक जीवन

चंद्रशेखर आजाद का जन्‍म मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले भावरा गाँव में 23 जुलाई सन् 1906 को हुआ। उस समय भावरा अलीराजपुर रियासत की एक तहसील थी। आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी संवत १९५६ के अकाल के समय अपने निवास उत्तर-प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गाँव को छोडकर पहले अलीराजपुर राज्य में रहे और फिर भावरा में बस गए। यहीं चंद्रशेखर का जन्म हुआ। वे अपने माता पिता की पाँचवीं और अंतिम संतान थे। उनके भाई बहन दीर्घायु नहीं हुए। वे ही अपने माता पिता की एकमात्र संतान बच रहे। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। पितामह मूलतः कानपुर जिले के राउत मसबानपुर के निकट भॉती ग्राम के निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण तिवारी वंश के थे.


संस्कारों की धरोहर

चन्द्रशेखर आजाद ने अपने स्वभाव के बहुत से गुण अपने पिता पं0 सीताराम तिवारी से प्राप्त किए। तिवारी जी साहसी, स्वाभिमानी, हठी और वचन के पक्के थे। वे न दूसरों पर जुल्म कर सकते थे और न स्वयं जुलम सहन कर सकते थे। भावरा में उन्हें एक सरकारी बगीचे में चौकीदारी का काम मिला। भूखे भले ही बैठे रहें पर बगीचे से एक भी फल तोड़कर न तो स्वयं खाते थे और न ही किसी को खाने देते थे। एक बार तहसीलदार ने बगीचे से फल तुड़वा लिए तो तिवारी जी बिना पैसे दिए फल तुड़वाने पर तहसीलदार से झगड़ा करने को तैयार हो गए। इसी जिद में उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी। एक बार तिवारी जी की पत्नी पडोसी के यहाँ से नमक माँग लाईं इस पर तिवारी जी ने उन्हें खूब डाँटा ऑर चार दिन तक सबने बिना नमक के भोजन किया। ईमानदारी और स्वाभिमान के ये गुण आजाद ने अपने पिता से विरासत में सीखे थे।[तथ्य वांछित]

आजाद का बाल्य-काल

1919 मे हुए जलियां वाला बाग नरसंहार ने उन्हें काफी व्यथित किया 1921 मे जब महात्‍मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया तो उन्होने उसमे सक्रिय योगदान किया। यहीं पर उनका नाम आज़ाद प्रसिद्ध हुआ । इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे गिरफ़्तार हुए और उन्हें १५ बेतों की सज़ा मिली। सजा देने वाले मजिस्ट्रेट से उनका संवाद कुछ इस तरह रहा -

तुम्हारा नाम ? आज़ाद
पिता का नाम? स्वाधीन
तुम्हारा घर? जेलखाना

मजिस्ट्रेट ने जब १५ बेंत की सजा दी तो अपने नंगे बदन पर लगे हर बेंत के साथ वे चिल्लाते - महात्मा गांधी की जय। बेंत खाने के बाद तीन आने की जो राशि पट्टी आदि के लिए उन्हें दी गई थी, को उन्होंने जेलर के ऊपर वापस फेंका और लहूलुहान होने के बावजूद अपने एक दोस्त डॉक्टर के यहाँ जाकर मरहमपट्टी करवायी।

सत्याग्रह आन्दोलन के दौरान जब फरवरी १९२२ में चौराचौरी की घटना को आधार बनाकर गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो भगतसिंह की तरह आज़ाद का भी काँग्रेस से मोह भंग हो गया और वे १९२३ में शचिन्द्र नाथ सान्याल द्वारा बनाए गए उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को लेकर बनाए गए दलहिन्दुस्तानी प्रजातात्रिक संघ (एच आर ए) में शामिल हो गए। इस संगठन ने जब गाँवों में अमीर घरों पर डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाया जा सके तो तय किया कि किसी भी औरत के उपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का तमंचा छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उसपर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल शामिल थे, की बड़ी दुर्दशा हुई क्योंकि पूरे गाँव ने उनपर हमला कर दिया था। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। १ जनवरी १९२५ को दल ने देशभर में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रांतिकारी) बांटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा था। इस पैम्फलेट में रूसी क्रांति की चर्चा मिलती है और इसके लेखक सम्भवतः शचीन्द्रनाथ सान्याल थे।


अंग्रेजों की नजर में

इस संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त १९२५ को काकोरी कांड को अंजाम दिया गया । लेकिन इससे पहले ही अशफ़ाक उल्ला खान ने ऐसी घटनाओं का विरोध किया था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जाएगा। और ऐसा ही हुआ। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं - रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खाँ, रोशन सिंह तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को क्रमशः १९ और १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी पर चढ़ाकर शहीद कर दिया। इस मुकदमे के दौरान दल निष्क्रिय रहा और एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन यह योजना पूरी न हो सकी। ८-९ सितम्बर को दल का पुनर्गठन किया गया जिसका नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एशोसिएसन रखा गया। इसके गठन का ढाँचा भगत सिंह ने तैयार किया था पर इसे आज़ाद की पूर्ण समर्थन प्राप्त था।


चरम सक्रियता

आज़ाद के प्रशंसकों में पंडित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट जो स्वराज भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने 'फासीवदी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। यद्यपि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को रूस में समाजवाद के प्रशिक्षण के लिए भेजने के लिए एक हजार रूपये दिये थे जिनमें से ४४८ रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर १९२८-३१ के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगतसिंह एसेम्बली में बम फेंकने गए तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गई। सांडर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और फिर बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी उन्होंने की । आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने २३ दिसम्बर १९२९ को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को २८ मई १९३० को भगवतीचरण वोहरा की बमपरीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था । इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना खटाई में पड़ गई थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुर की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गाँधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे । झाँसी में रुद्रनारायण, सदाशिव मुल्कापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर मे शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर १९३० को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में जाते वक्त शहीद कर दिया था।


शहादत

२५ फरवरी १९३१ से आज़ाद इलाहाबाद में थे और यशपाल रूस भेजे जाने सम्बन्धी योजनाओं को अन्तिम रूप दे रहे थे। २७ फरवरी को जब वे अल्फ्रेड पार्क (जिसका नाम अब आज़ाद पार्क कर दिया गया है) में सुखदेव के साथ किसी चर्चा में व्यस्त थे तो किसी मुखाविर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। इसी मुठभेड़ में आज़ाद शहीद हुए।

आज़ाद के शहादत की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिए उनका अन्तिम संस्कार कर दिया । बाद में शाम के वक्त उनकी अस्थियाँ लेकर युवकों का एक जुलूस निकला और सभा हुई। सभा को शचिन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीरामबोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को जवाहरलाल नेहरू ने भी सम्बोधित किया। इससे पूर्व ६ फरवरी १९२७ को मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे क्योंकि उनके देहान्त से क्रांतिकारियों ने अपना एक सच्चा हमदर्द खो दिया था।


व्यक्तिगत जीवन

आजाद एक देशभक्त थे। अल्फ्रेड पार्क में अंग्रेजों से सामना करते वक्त जब उनकी पिस्तौल में आखिरी गोली बची तो उसको उन्होंने खुद पर चला कर शहादत दी थी। उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख था और इसका उपयोग उन्होंने कई दफ़े किया। एक बार वे दल के लिए धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद डेरे के पाँच लाख की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाए पर वहाँ जाकर उन्हें पता चला कि साधु मरणासन्न नहीं था और वे वापस आ गए। रूसी क्रान्तिकारी वेरा किग्नर की कहानियों से वे बहुत प्रभावित थे और उनके पास हिन्दी में लेनिन की लिखी एक किताब भी थी। हंलांकि वे कुद पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने मे ज्यादा आनन्दित होते थे। जब वे आजीविका के लिए बम्बई गए थे तो उन्होंने कई फिल्में देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था पर बाद में वे फिल्मो के प्रति आकर्षित नहीं हुए।

चंद्रशेखर आजाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारंभ किया गया आंदोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। आजाद की शहादत के सोलह वर्षों के बाद 15 अगस्‍त सन् 1947 को भारत की आजादी का उनका सपना पूरा हुआ।

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23 February 2010

कोई मुझे बतायेगा…..वो कौन थी…….

जून जुलाई की गर्म मैं करीब चार बजे दुपहर बाद मैं अपने क्लिनिक पर बैठा बार बार  पहले से ही गीली हो चुकी रुमाल से अपना चेहरा पोंछता  कैन फोलैट के पिलर्स आफ अर्थ मैं माथा गङाये हुए बैठा मरीजों का इंतजार कर रहा था….एक नये डाक्टर के लिए इससे ज्यादा भारी समय कोई नहीं होता….खैर ….

मैं आई कम इन सर…..एक भद्र सुरीली आवाज ने मेरा ध्यान तोङा….मैं सजग होकर बैठ गया ..हां अंदर आईये…. शेखावाटी मैं इस तरह की अंदर आने की रिक्वैस्ट कम ही सुनने को मिलती हैं…बल्कि धङाक से गैट खोलकर अंदर आने के बाद ही लोग कहते हैं….कि साब कै होरियो है……

हां …..आईये….

नमस्ते सर ….एक अधेङ महिला ने अंदर प्रवेश किया ….पीछे पीछे जींस टीशर्ट मैं एक सुंदर सी कन्या ….औऱ साथ मैं एक बङी सी बिंदी लगाये एक और संभ्रांत सी दिखने वाली महिला ….शायद लङकी की मां ….

मैने मरीज को स्टूल पर बैठने को इशारा किया….(तीनों मैं जो भी हो..)लङकी आगे बढी और उस पर बैठ गई…..यूं लगा जैसे किसी ने जबर्दस्ती उसे बिठाया हो…….मुझे कुछ नहीं हुआ है…जैसे उसने मुंह फुला रखा हो…..लङकी बोली

क्या….मैने पूछा कुछ तो होगा ….खुजली ..पिंपल्स …..मैं उसके चेहरे पर खोजने लगा…

नहीं सर ऐसी बात नहीं हे….ये मेरी भांजी है…कुछ परेशान है …..आप इसे समझाईये…

पर हुआ क्या हैं….ये मानसिक रूप से कुछ परेशान हैं…..मैं असमंजस से कुछ बोलना चाहता था…..मैं तो स्किन स्पेशियलिस्ट हूं ……पर उन्होंने मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया…..वो बताने लगी …..बीच बीच मैं कुछ लङकी से भी सवाल करता…….

लङकी का नाम अमृता था……..अच्छे तीखे नाक नक्श….शरीर भी भरा पूरा…..टाईट जींस और टी शर्ट मैं कुछ ज्यादा ही आकरषक लग रही थी पर शक्ल उसने ऐसी बना रखी थी जैसे अभी अभी रो कर आ रही हो…..  उसका  एम बी ए कर रही थी …..अच्छी होशियार….. मैने नंबर वगैरा पूछे ….अच्छे ग्रैड मैं पास होती रही थी…..पर कुछ समय से उसने पढाई मैं मन लगाना कम कर दिया….उदास रहने लगा थी….घर वाले रिश्ते की बात करते तो भी कोई बहाना बनाकर टाल जाती …..बढिया से बढिया रिश्तों के लिए मना कर चुकी थी …….जैसे की एक वर्तमान मंत्री के लङके को वो रिजैक्ट कर चुकी थी…..

मुझे ये जिंदगी नीरस लगने लगी हैं….मैं कुछ वो करना चाहती हूं…..पर समझ नहीं पा रही हूं………………………………..वो बोलती रही मैं सुनता रहा..कुल मिलाकर मुझे ये समझ आया कि लङकी या तो जबर्दस्त डिप्रेशन मैं है या उसका किसी और के साथ चक्कर है…सो वो घर वालों को चक्कर दे रही है……..पर फिर भी ये मेरा तो कैस नहीं था…..

बहन जी आप को किसी साईकियाट्रिस्ट को या साईकोलोलिजस्ट को दिखाना चाहिये….ये मेरा काम नहीं है…..मैने पीछा छुङाने की गरज से कहा.

मैं जानती हूं….लङकी की मौसी बोली…पर मैं आप के पास पहले भी आ चुकी हूं …..मुझे ये पता है कि आप इसे बहुत अच्छी तरह समझ पाओगे और बहुत अच्छी तरह इसे समझा पाओगे…..आप ही कुछ कीजियें…

जीवन आसान नहीं …पर उसे पर संपूर्ण रूप मैं जीने मैं ही जीवन का आनंद है…..आप प्रोफेशनल और पारिवारिक दोनों को संतुलित करे तो ही जीवन की संपूर्णता को हम छू पाते हैं……..etc…etc……………

खैर …..मैं भी चाहता था कि सब कुछ ठीक हो जाये….

मैने उसे पुस्तक दी….. cognitive therapy शायद by robert black…मैने किसी मित्र के कहने पर क्रोस वर्ड नामक बुक स्टोर से खरीदी थी…… मुझे वो पुस्तक ऐसे मरीजों के लिए बहुत उपयोगी लगी थी….उसमें हमारे मन मस्तिष्क मैं चलने वाले अनचाहे विचारों को पहचान कर उन्हें दूर करने का बहु ही कारगर और सरल तरीका समझाया हुआ था….

आप इसे पढें ….ये बहुत हैल्प करने वाली है….      निश्चित रूप से आप अच्छा महसूस करेंगी…….एक महिने बाद वापिस आयें….

वो दिन गया…. बात गई …..…..दिन…..हफ्ते …..महिने बीत गये…..मैं भी भूल गया……………………………..

मेरी साढे छै सो मैं खरीदी हुई पुस्तक ….मैं भी करीब करीब भूल ही गया…….

करीब छ- महिने बाद सर्दी की एक नर्म दुपहर को वही मौसी मुझे दिखाने आई…..अचानक मुझे याद आई मेरी …..साढे छः सौ रुपये की….राबर्ट ब्लैक…..कोग्निटिव…..बहन जी आप पहले भी यहां आई हैं…….

हां आई थी….डाक्टर….मेरी भांजी के साथ…..

क्या हुआ फिर उसका…..वो रो पङी जोर से …..जोर से आंसु निकल आये उसके …….आपके पास आने के कुछ दिन बाद ही उसने आत्म हत्या कर ली……मै चुप …..मैने भी दुःख प्रकट किया…मुझे अपने आप पर शर्म आ रही थी….कहां उनकी जवान भांजी की मरने की बात चली और मैं अपने साढे छः सो रूपये को रो रहा था….        ……………अब मुझे भूल जाना था…………………………किताब को …………साढे…छः……………………यूं ही किसी को नहीं मर जाना चाहिये जीवन बङा अमूल्य होता है……सचमुच मेरा दिल भी थोङा भारी हो चला था…………………………………………………………………………….

उस बात को बीते करीब करीब चार साल गुजर चुके थे…….

तुम्हारे मरीज तुम्हे बहुत याद करते हैं…….सरिता…….मेरी धर्मपत्नी ने बङी शरारत से देखते हुए कहा जो

अभी अभी जयपुर से बस मैं लौटी थी और मेरे साथ चाय….. पी रहीं थी……क्यों तुम्हें कोई मिला था……मेरे पास की सीट पर एक लङकी बैठी थी…..बहुत याद कर रही थी तुम्हें….कह रही थी तुमने उसकी जिंदगी बदल दी……

 

कैसे बदली मैंने उसकी जिंदगी …..जरा मैं भी तो सुनुं….मैने हंसते हुए कहा…….

कह रही थी ….वो बहुत परेशान थी…..बता रही थी कि एक बार तो सने  आतमहत्या की भी सोची थी …पर आपसे मिलिने के बाद जैसे उसाका जिंदगी के प्रति नजरिया ही बदलिया … मैं मन ही मन मुस्कुराया चलो कोई इस रूप मैं भी याद करता है हमें…….

क्या नाम था उसका….

.अमृता……..

  अब मेरी चाय गले मैं अटकने लगी थी….क् क् क्या…..उसकी बांयी आंख हल्की सी छोटी है…….हां वही

पर वो तो मर चुकी है…….

सरिता मेरी तरफ बङी अजीब सी नजरों से देखते हुए बोली….तुम शायद कंफ्यूज हो रहे हो कह रही थी कोई किताब दी थी आपने उसे कोई cognitive therapy….

हां वही तो………मेरे शरीर मैं झुरझुरी सी दौङ गई…….हां मैने ही उसे किताब दी थी ….और उसने कुछ दिनों बाद ही आत्म हत्या कर ली थी….मेरी तरफ देखती हुई सरिता की शक्ल देखने लायक थी…..उसकी क्या मेरी भी……

क्या आप बतायेंगे ….वो कौन थी….

22 February 2010

और ये रहे राजीव तनेजा जी :होली हंगामा पाडकास्ट

राजीव तनेजा साहब ने  औरो  के के चेहरे सजा सजा के साल भर होली मनाई आज खुद जब मेरे शिकंजे में कसे गए तब उनकी क्या हालत रही देखिये.... उनसे हुई होली हंगामा पाडकास्ट  के लिए चर्चा में वे सवालों से इत्ते शर्माए इत्ते शर्माए कि अब कित्ते शर्माए आप खुद ही सुन लीजिये हज़ूर वरना हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है :-

21 February 2010

होली हंगामा : बच निकले अजय झा

होली हंगामा की तैयारीयां लगभग पूर्ण हैं बस वक्त मिलते ही मैं पाडकास्ट का फिनाल एपिसोड रिकार्ड कर लूंगा आज सुनिए
शहरोज़ जी को - यहाँ
अजय झा जी को - यहाँ
रानी विशाल जी को -यहाँ
और इंतज़ार कीजिए फ़ाइनल एपीसोड का

12 February 2010

Talk Show : संजीव वर्मा सलिल से बातचीत



पेशे से अभियंता ह्रदय से कवि लोक निर्माण विभाग मध्य-प्रदेश में पदस्थ प्रशासन में महत्वपूर्ण अस्तित्व निरंतर गति शील दिव्य नर्मदा ब्लॉग के मालिक भाई संजीव वर्मा सलिल से बातचीत

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...
कोहरे से
गले मिलते भाव.
निर्मला हैं
बिम्ब के
नव ताव..
शिल्प पर शैदा
हुई रजनी-
रवि विमल
सम्मान करता है...

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...

फूल-पत्तों पर
जमी है ओस.
घास पाले को
रही है कोस.
हौसला सज्जन
झुकाए सिर-
मानसी का
मान करता है...

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
नियति पर
अभिमान करता है...

नमन पूनम को
करे गिरि-व्योम.
शारदा निर्मल,
निनादित ॐ.
नर्मदा का ओज
देख मनोज-
'सलिल' संग
गुणगान करता है...

गीत का बनकर
विषय जाड़ा
खुदी पर
अभिमान करता है...

11 February 2010

वर्ड वैरिफिकेशन याने पानी पीकर जात पूछना…….

p4752010_lये चीज बङी ही ………क्या कहूं घटिया या बढिया या गंदी या खतरनाक या बेकार नहीं कह सकता ….क्यों कि मुझे कोई अधिकार नहीं ये सब कहने का ….पर क्या करूं मै तो बङा परेशान हो जाता हूं इससे….आप ने कोई ब्लोग पोस्ट पढी बङे मन  से….. आपके मन मैं कोई विचार समर्थन मैं या विरोध मैं उमङ घुमङ कर आता है ….अब आपके मन के जवाब को देने के लिए आप अपना अमूल्य समय खर्च कर आप एक टिप्पणी टंकित करते हैं…और जैसे ही आप उसे प्रकाशित करने की चेष्टा करते हैं तो एक दुःस्वप्न की तरह एक डिब्बा सा खुल जाता हैजिसमें आढे तिरछे अक्षर से खुल जाते हैं जिनको देखते ही आप भयभीत हो जाते हैं…पर अब आपके पास लौटने का कोई रास्ता आपको टुप्पणी पूरी करनी ही है तो आप को इनके भी पार जाना होगा  और बमुश्किल आप उन अक्षरों को जो शायद मंगल ग्रह के प्राणियों द्वारा काम लीजाती होगी ..उनको आंखे फाङ फाङ कर कर देखते हैं और उनको अपने    संपूर्ण अर्जित ज्ञान के आधार पर इस पहेली को सुलझाने का प्रयास करते हैं…..कई बार आप इसमें सफल हो जाते हैं और कई बार नहीं भी होते..तो……..फिर झींकते हुए आप एक ट्राई और मारते हैं और अबकि बार यदि किस्मत साथ है तो बर्ज वैरिफिकैशन की लाटरी मैं आपको कुछ समझने वाली आकृतियां दिखाई दे सकती हैं……..एट लास्ट   आप सफलता प्राप्त करते हैं……..आपको यूं लगता है जैसे कोई गढ जीत लिया…….पर अभी आपकी समस्या यहीं खत्म नहीं हुई ……आपकी टिप्पणी अभी भी दिखाई नहीं दे रही……..क्या हुआ……तब पता लगता है कि बिना अप्रूवल यहां आप बोल भी नहीं सकते…….अब आप सोचते हैंमैं सोचता हूं क्या मुझे पागल कुत्ते ने काटा था जो मैं यहां आया…..इससे बढिया है बंधु ब्लोग वाणी मैं ही एक श्रेणी और बना दी जाती जैसा ऊपर वाले चित्र मैं लिखा हैंwarninng trip hazard याने सावधान आप आगे वर्ड वैरिफिकैशन वाला ब्लोग है…..जरा धीरे चलिये और आपके सात बार जंचे तो ही यहां आईये…….हो सकता हैं कल को गूगल वाले ऐसी व्यवस्था भी कर दें की आप के कीमति ब्लोग पर टिप्पणी करने से पहले आपको अपने पास्पोर्ट,पैन कार्ड या राशन कार्ड की कोपी की जरूरत पङे…….वर्ड वैरिफइकैशन का कोई लाभ हो तो कोई मुझे भी समझाये……

04 February 2010

दलित बनाम सवर्ण……क्या हर विवाद का दलिति करण आवश्यक है…..

वर्धा से बनारस तक बेबस दलित छात्र

वो आज भी क्लास की पिछली सीट पर बैठते हैं। आज भी उन्हें अपने जैसे ही अन्य छात्रों के साथ बैठ कर खाना खाने से डर लगता है। आज भी उन्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि किसी भी वक्‍त किसी भी बात को लेकर उनकी सारी काबिलियत को धत्ता बताए हुए, उनके सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया जाएगा। हम बात कर रहे हैं दलित छात्रों के हाल की, जो वर्धा से बनारस तक एक जैसा है।

यहां देखें  लेखक ने पुरजोर शब्दों ये साबित करने की चेष्टा की है जैसे आरक्षित वर्ग से आने वाले छात्रों के साथ बुरी तरह से अत्याचार किया जा रहा है…पढते पढते आंसु आने लगें …पर  आये नहीं क्यों कि मेरे विचार मैं हकीकत कुछ कुछ अलग है(मै दलित नहीं लिखूंगा….क्यों कि यह लिखना इस पूरे वर्ग का अपमान करना और झूठ भी है….क्यों कि अधिसंख्य छात्र दलित की परिभाषा मैं नहीं आते….किसी धन्ना सेठ के बच्चे….किसी बङे सरकारी अफसर के बच्चे….या किसी पैट्रोल पंप मालिक के परिवार वालों को दलित कहना तो ठीक नहीं है).

लेखक ने अनेकानेक उदाहरण देकर ये सिद्ध करने की कोशिश की है कि आरक्षित वर्ग के छात्रों को जानबूझकर फैल किया जाता है…उत्तर प्रदेश के मैडीकल कालेजों मैं सरवाधिक सप्लीमैंट्री आने वाले छात्र भी इसी वर्ग के होते हैं…इनके सेशनल एक्जाम्स मैं भी कम नंबर जानबूझकर दिये जाते है .     उनकी जबरदस्ती टांग खिंचाई होती है और तो और उनके किये गये रिसर्च वर्क को भी नाकारा कहा जाता है..

गाजियाबाद स्थित एक प्रबंध संस्थान ने तो सारी हदें पार करते हुए एक दलित छात्र प्रेम नारायण को न सिर्फ प्रवेश देने से इनकार कर दिया बल्कि उसे अन्य छात्रों के सामने संस्थान के प्रिंसिपल द्वारा भद्दी-भद्दी गालियां भी दी गयीं। कसूर सिर्फ ये था कि उसके पास डोनेशन के लिए दिये जाने वाले 45 हजार रुपए मौजूद नहीं थे। हालांकि बाद में इस मामले में प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी।

प्रबंध संस्थान जैसे इंस्टीट्यूट जो कि सरकारी भी नहीं है वो अपनी निर्धारित फीस के बिना कैसे किसी को प्रवेस देगा और ये भी मान लिया के वो डोनेशन मांग रहे थे तो भी क्या वहा कोई ब्राह्मण विध्यारधी होता तो क्या वे उसे प्रवेश देते…..नहीं न …..पर यहां तो प्राथमिकी दर्ज हो गई और आप जैसा मूर्धण्य पत्रकार इसके बारे मैं लिख रहा है….पर उस गरीब ब्राह्मण या सवर्ण के लिये भी क्या आपने टसुए बहाये होते…..

बीकानेर के सरदार पटेल मेडीकल कालेज मैं की पढाई करते समय आरक्षित वर्ग के छात्रों के साथ हम भी पढे थे…पर कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि किसी भी प्रकार का वर्ण भेद देखने को मिला….इसके अनेका नेक उदाहरण मैंने अपने महाविध्यालय कालीन जीवन मैं देखे….ये सच है कि फैल होने वाले छात्रों मैं इनका प्रतिशत ज्यादा होता था पर ऐसे भी उदाहरण अनेक थे कि अनारक्षित छात्रों  से भी अधिक नं लाते थे….मेरे साथ पढने वाला ओमप्रकाश मीणा हमेशा मेरे से ज्यादा नं लाया करता था…मेरे से चार साल सीनियर भंवरलाल मीणा जो कि हमारे कालेज से 2002 मैं पास हुआ था अपने बैच का सैकंड टापर था …उसके बाद उसने एम्स पीजीआई की प्रवेश परीक्षाओं मैं अच्छी रैंक प्राप्त की उसके बाद राजस्थान प्री पीजी की परीक्षा मैं सातवीं रैक पर पास हुआ उसके बाद एम की और आज की तारीख मैं वो राजस्थान मैं आई पी एस लगा हुआ है…..मनोज रैहङूं राजस्थान प्रीपीजी की परीक्षा का 2007 का पूरी आरक्षइत श्रेणी का टापर और एकमात्र चयनित उम्मीदवा( क्यों कि बाकियों के पासिंग मार्क्स भी नहीं आये) मेरा क्लास ,मैट हमेशा मेरे से अच्छे नं लाता था कभी फैल नहीं हुआ.

एम डी जोधपुर से करते समय मेरा साथी देवैंद्र यादव जो कि अनुसूचित जाति से था उसकी वजह से हमेशा मुझे डांट खानी पङती थी क्यों कि वो विषय की पूरी तैयारी करके ही डिपार्टमैंट मैं आता था…और अपने राम तो मस्त मौला थे जो मर्जी हुई तो पढे नहीं तो यूं ही उठकर चले आते थे…..हमारे विभागाध्यक्ष डां कल्ला हमेशा अटका हुआ कैस सुलझाने के लिए डा राजकुमार कोठीवाला को बुलाते थे जो कि मीणा था….यहां तक की हमारी छुट्टियां पास करवाने के लिए भी राजकुमार ही सर  के पास जाते थे क्यों कि हमारे साहब की नजर मैं हम सब नालायक थे और वो एक काबिल था जिसके भरोसे हम सब रैजिडैंट काम करते थे…..और बहुत सी बातें जो यहां लिखना संभव नहीं….. 

ये एक घोषित तथ्य है कि आरक्षण के कारण से मर पच के कम प्रतिशत मैं ऐसे छात्रों का प्रवेश तो हो जाता है प्रोफेशनल कोर्सेज मैं पर जिनके प्रवेश मैं ही कम अंक प्राप्त हुए हैं उन छात्रों की क्षमता एक दिन मैं तो बढने वाली तो है नहीं तो फिर इससे परिणाम भी प्रभावित होता है….और जो छात्र अच्छा पढते हैंल मेहनत करते हैं  वे आरक्षित श्रेणी मैं होने के बाद भी अच्छे अंक प्राप्त करते हैं…और सफल होते हैं….जब तक छात्र इस दलित वाली मानसिकता से बाहर आकर मेहनत करके अपने आपको साबित नहीं करेंगे तब तक उनका परिणाम कहां से सुधरेगा….

बंधु हम सब हिंदु समाज के अंग है चाहे सवर्ण हों या दलित  आप सब को हिंदु ही क्यों नहीं रहने देते….क्यों  दलित को हमेशा दलित बने रहने को अभिशप्त कर रहें हैं…..

01 February 2010

माँ, सॉफ्टी, अपने और ''मामा जी'' का बचपन

माँ
माँ की ऑचल से प्‍यार बरसता है,
ममता बिन जीवन अधूरा लगता है।
जब उनके हाथो की रोटी मिलती है,
तो सारे संसार का ''वैभव'' छोटा लगता है।।

सॉफ्टी
तेरे सॉफ्टी को देख कर,
मुझे भी खाने का मन कर रहा है।
उफ ये क्‍या तू वहाँ हाफ टी-शर्ट मे,
और मै यहाँ स्‍वेटर मे घूम रहा हूँ।।

अपने
इस दुनिया मे सब बेगाने हो जाते है,
पर अपने तो अपने रहते है।
कभी खुशी हो कभी हो गम,
अपने तो साथ निभाते रहते है।।

''मामा जी'' का बचपन
आज मै अपने बचपन को साथ लिये था,
वही खुशी थी वही भाव था।
सब कुछ वैसा ही था जैसे पहले था,
बस मेरे जगह मेरा भांजा बैठा था।।