21 December 2014

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका

इस संपूर्ण जड एवं चेतन संसार के कण कण में ईश्‍वर व्याप्त हैं| हिन्दू धर्म ने इस मूल तत्व को आदि काल में ही जान लिया था| वेद एवं पूराण ३३ करोड देवी देवतों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं जो कि मानव, पशू, नरपशु, ग्रह, नक्षत्र, वनस्पति तथा जलाशय इत्यादि हर रूप में व्याप्त हैं| पर इनके शिखर पर हैं त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु एवं सदाशिव ... ।

शिव के अनुयायी शैव्य एवं विष्णु के अनुयायी वैष्णव ; प्रतिस्पर्द्धा अपने इष्ट को श्रेष्ठ सिद्ध करने की; संधर्भ - कुछ तथ्य, कुछ भ्रांतिया ; लब्ध - कलेश ।



अनादि काल से चले आ रहे शैव एवं वैष्णव के मध्य चले आरहे प्रतिस्पर्द्धा पर एक आलेख...

20 December 2014

झाँसी की रानी

 सुभद्रा कुमारी जी की कालजयी रचना झाँसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी ।।

राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरेआम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना , महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय ! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी, याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

- सुभद्रा कुमारी चौहान

17 December 2014

गुरू नानक देव जी

पाचं सौ साल पहले हमारे देश मे धर्म की बड़ी हानि हो गई थी। राजा निर्दयी बन बैठै थे। प्रजा को दुख देते थे। लोगो के दिलों मे एक-दूसरे के लिए प्यार नही रहा था। जहां प्यार नहीं वहां धर्म नही। जहां धर्म नही, वहां सुख नही। इसलिए सब लोग दुखी थे।
ऐसे समय मे एक बालक पैदा हुआ। यह बालक बड़ा होकर गुरू नानक कहलाया। गुरू नानक ने लोगो का धर्म के रास्ते पर डाला, धर्म को कोरा दिखावा करनेवालों को लज्जित किया और कठोर बर्ताव करनेवाले राजाओ से प्रजा को ऐसे बचाया, जैसे बाप अपने बेटों को बचाता है।
उस जमाने मे दिल्ली मे लोदी-वंश का एक राजा राज करता था, जिसे लोग सुलतान कहते थे। इस सुलतान के अधीन कई राजे थे। इनमे से एक पंजाब पर राज करता थां लोग उसे नवाब कहते थे। वह नवाब भी लोदी घराने का ही था। वह सुलतानपुर नामक अपनी राजधानी मे रहता था। इस नवाब के हाथ मे पंजाब मे कई-एक छोटे-बड़े राजे थे। लाहौर से कोई चालीस मील रावी के किनारे, इसी तरह का पच्चीस गांवों का एक राजा थां। इस राजा का नाम रायबुलार था। यह रावी से थोड़ी दूर, तलवंडी नामक गांव मे रहता था। इसी गांव मे उसका एक हाकिम भी रहता था। इदस हाकिम का पूरा नाम मेहता कल्याणदास था, पर लोग उसे मेहता कालू या मेहता या सिर्फ कालू कहकर पुकारते थे। इसी मेहता के घर १५ अप्रैल, सन १४६९ के दिन नानक का जन्म हुआ।

जैसे-जैसे बालक बड़ा होता गया, लोगो को पता लगता गया कि इसकी कई बातें दूसरे बालकों से निराली है। वह बड़ा हंसमुख था। कहते है, पैदा होते ही हंसने लगा था। जब पढने लगा तो सब-कुछ इतनी जल्दी सीख गया, मानों उसने पहले ही से सब-कुछ पढ-लिख रखा हो! फिर एक संस्कृत पंडित के पास पढ़ने लगा। उस पंडित से भी इस अनोखे विद्यार्थी ने बड़ी जल्दी संस्कृत सीख ली। फिर भी सीखने की उसकी भूख न मिटी। बाद मे यह एक विद्वान मुल्ला से फारसी पढने लगा। वहां भी उसने बड़ी योग्यता दिखाई।
जब बालक नानक किसी आते-जाते साधु-संत को देखता तो उसकी आंखे उसे एक टक निहारती रह जाती। वह उसके पीछें-पींछें दूर तक चला जाता।



एक बार भैसे चराते-चराते यह बालक एक पेड़ की छाया मे सो गया। उसी समय एक सांप आया। उसने काटने के लिए अपना फन उठाया, पर वह उठा ही रह गया। आखिर वह जिस रास्ते आया था, उसी रास्ते वापस चला गया। संयोग से रायबुलार उस समय पास से जा रहा था। उसने यह सब देखा। इससे उसके मन मे इस बालक के लिए आदर के भाव पैदा हो गए। वहसमझने लगा कि इस बालक मे कोई दैवी ज्योति है।

सोलह बरस के होते-होते नानक ने अपने संगियों का साथ छोड़ दिया।कई-कई दिन जंगलों मे घूमते रहते। भूख-प्यास की परवा न करते। घर मे गुम-सुम रहते। पिता को लगा, बेटा बीमार है। उन्होने एक हकीम को बुलाया, पर हकीम के करने को वहां था क्या?
कुछ दिनों बाद यह दशा बदल गई। उदासी की जो घटांएं छा गई थी, वे छितरा गई। पिता प्रसन्न हुए कि बेटा अब भला-चंगा हो गया। उन्होने सोचा कि अब इसे किसी रोजगार के लिए कुछ काम-काज सीख जाय तो फिर इसका विवाह कर दें।
यह सोचकर उन्होने नानक को कुछ रूपए दिये ओर कहा कि जाओं, कोई लाभ का सौदा करों। एक समझदार आदमी को उनके साथ कर दिया।
तलवंडी से कुछ दूर जंगल में दोनो जने चले जा रहे थे कि कुछ साधु-संत मिले। नानक को साधुओं से लगाव तो था ही। वह उनसे बात-चीत करने लगे। बातों-बातों मे मालूम हुआ कि ये साधु दस-बारह दिनो से भूखे है। साधुओं के मना करने और साथी के रोकने पर भी नानक ने बीस रूपए साधुओ के खाने-पीने मे खर्च कर दिये। उन्होने सोचा कि भूखों का भोजन कराने से बढ़कर ज्यादा लाभ की बात और क्या हो सकती है! यह सौदा ही सच्चा सौदा है।
सारे रूपए इस तरह खर्च करके दोनो साथी घर की ओर चल पड़े। गांव के पास आकर नानक पिता के डर से घर नही गए और गांव के बाहर ही रात काट दी। पर साथी ने दूसरे दिन उनके पिता को सारी बात कह सुनाई। पिता के क्रोध का ठिकाना न रहा। वह उसी समय भागे-भागे बेटे के खबर लेने चले।
उधर नानक की बड़ी बहन नानकी को पता लगा कि पिता गुस्से मे भरे हुए भाई के पास जा रहे है। वह भी पिता के पीछे चल पड़ी।वहां जाकर वह पिटते हुए भाई से लिपट गई और इस प्रकार उसे बचाने मे उसने बड़ी मदद की।
एक दिन नानक कुएं से नहाकर आ रहे थे कि उन्हे एक साधु मिला। बेचारे का बुरा हाल था। नानक का दिल दहल गया। उनके पास जो कुछ था, उसे साधु को दे दिया। जरा आगे गए तो अपने हाथ की अंगूठी पर उनकी निगाह पड़ी। फिर पीछे को दौड़े और साधु को अवाज देकर वह अंगूठी भी उसे दे दी।
पिता को मालूम हुआ, पर उन्होने बेटे से कुछ न कहा। वह गहरी चिंता मे डूब गए। एक दिन नानकी अपने पिता के घर आई। उसने पिता को चिंता मे डूबे देखा। पिता को भले ही बेटा नालायक दीख पड़े, पर बहनों के लिए तो भाई कभी नालायक नही होता। उसने पिता से हा, "अगर आप आज्ञा दें तो मै भाई को अपने साथ सुलतानपुर ले ला जाऊ। वहां कोई-न-कोई काम-काज मिल ही जायेगा।"
पिता मान गए और नानकी अपने भाई को खुशी-खुशी सुलतानपुर ले आई। वहां के एक बड़े हाकिम की मदद से नानक को नवाब के भंडार मे जगह मिल गई।
उस समय लगान पैसों के रूप मे नही लिया जाता था, उसे अनाज के रूप मे वसूल किया जाता था। जब फसलें तैयार होती थी तो राजा हर किसान की फसल मे से अपना हिस्सा वसूल करकें भंडार मे जमा कर लेता था। इसी में से सिपाहियों और हाकिमो को जरूरत के हिसाब से अनाज दे दिया जाता था। भंडार इसका पूरा-पूरा हिसाब रखता था और राजा के पूछने पर पूरा-पूरा हिसाब बताता था। यही काम नानक को मिला थां।
इसके कुछ दिन बाद नानक का विवाह हो गया। उस समय उनकी उमर उन्नीस साल की थी। नानक के पिता ने उनकी देखभाल के लिए अपने गांव से मरदाना नामक एक सेवक भेज दिया। इन दोनो का एक विचित्र संयोग था। जब तक नानक जीवित रहे, वह ओर मरदाना एक सीप के दो मोतियों की तरह रहे।
नानक के दो पुत्र हुए। बड़े पुत्र श्रीचंद संन १४९४ में पैदा हुएं। बड़े होकर यह ऊंचे महात्मा हुए। यह उत्तरी भारत के कोन-कोने मे घूमते रहे। इनकी उमर इतनी लंबी थी कि लोग समझने लगे थे कि वह जबतक चाहें, जिंदा रह सकते है। वह जगह-जगह जाकर दीन-दुखियों को धीरज बंधाते थे।

छोटे पुत्र लछमीचंद सन १४९७ मे पैदा हुए। वह गृहस्थ थे। गुरू नानक की आत्मा के मानों दो अंग थे-एक साधुओंवाला, दूसरा गृहस्थियों वाला। वे दोनो दो पुत्रों के रूप मे पैदा हुए।
नानक का साधु-संतो से बहुत लगाव था। जो भी साधु-महात्मा सुलतानपुर आता, उसका वह सत्संग करते, उसे अपने घर ठहराते और सेवा करते। साधु-महात्मा देखते कि सुल्तानपुरमे उनका बड़ा मान है तो वे उमड़-उमड़ कर आते ओर बहुत प्रसन्न होकर जाते। इन महात्माओं से नानक खूब धर्म-चर्चाएं करते।
नानक बाल-बच्चों की गुजर-बसर करते थे और साधु-संतो को भी अपने पास से खिलाते-पिलाते रहते थे। तनखा ज्यादा थी नही। इससे लोगों को संदेह होने लगा कि आखिर उनका गुजारा कैसे चलता है। हो न हो, भंडार का पैसा पेट मे जाता होगा। यह बात किसी ने जाकर नवाब के कान मे डाली। नवाब से कहा, "अच्छा, यह बात!" बस उसने एकदम नानक को कैद करा लिया और भंडार के हिसाब की जांच-पंडताल करवाई।
हिसाब देखा तो उलटे नानक का कुछ पैसा निकलता था। चुगली खानेवाला बड़ा लज्जित हुआं नवाब भी शर्मिदा हुआं। नवाब ने नानक से कहा, "आप फिर भंडार को संभाल ले!!" पर नानक का मन खटटा हो चुका था। वह बहुत दुखी हुए। उनके भीतर से आवाज आई, "नानक, इस दुनिया को छोड़।" भीतर की इस आवाज पर उन्होने दुनिया को छोड़ने का फैसला कर लिया। पर नानक ने सोचा-नाते-रिश्तेदारों को बिना बतायें जाना ठीक नही। इसलिए उनहोने अपने संबधियो को मन की बात बताई। सुनकर सब दुखी हुए। लछमीचंद का जन्म हाल मे हुआ था। बच्चे की मां ने उन्हें बहुतेरा रोका, पर भीतर से जो आवाज आई थी, नानक उसे अनसुनी न कर सके।
उन्होने देश-भर मे घूमते साधुओ से तरह-तरह की ज्ञान की बाते सुनी थी, अब मन हुआ कि चलकर अपने-आप देखे। दुनिया मे बहुत-से धर्म और जप-तप करने वाले है, उन्हे देखते, उनका सत्संग करते, चौबीस-पच्चीस साल तक वह दुनिया-भर मे घूमते रहे।
पहले वह पंजाब गये और वहां के सारे बड़े-बडे हिंदू-मुसलमान पीरों ओर फकीरों से मिले। उनसे प्रेम बढ़ाया। मुसलमान पीरों से तो उनकी इतनी मित्रता हो गई कि बाद मे वे उनके साथ मक्का गए।

नानक ने पंजाब मे चार लंबी यात्राएं की। ये यात्राएं चार 'उदासियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। पहली उदासी पूरब की ओर , दूसरी दक्षिण की ओर, तीसरी उत्तर की ओर और चौथी पश्चिम की ओर की। इन उदासियों में नानक ने लोगों के बहुत-से भ्रम दूर किये, पर उनके दिल नहीं टूटने दिये। इसकी सुंदर मिसाल उन्होने हरिद्वार मे दिखाई। वहां लोग पितरो का तर्पण करने के लिए उमड़-घुमड़कर पहुंचे थे। वे पूरब की ओर मुंह करके दबादब पानी की अंजलियॉ भर-भरकर दे रहे थे। नानक वहां पहुचकर पश्चिम की ओर पानी उलीचने लगें। कुछ लोग तो इस मूर्खता-भ्ररी बात पर हंसने लगे।कुछ ने आंखे तरेरी। अंत मे किसी ने उनसे पूछा, "ए साधु, तू यह क्या कर रहा है? पूरब के बजाय पश्चिम में पानी क्यों उलीच रहा है?"
नानक ने उत्तर दिया, "मै पंजाब की अपनी खेती को पानी दे रहा हूं।"सारे लोग इस बात पर हंस पड़े और कहने लगे, "इस प्रकार कहीं पंजाब मे पानी पहुचं सकता है?" नानक ने कहा, "अगर तुम्हारा दिया हुआ पानी दूसरे लोक मे पितरों तक पहुंच सकता है तो मेरा दिया हुआ पानी खेती में क्यो नहीं पहुच सकता?"
पूरब की यात्रा के शुरू मे नानक दिल्ली पहुचे। उन्होने प्रजा को राजाओं के अत्याचारों से बचाया। नानक को पता था कि दिल्ली का सुलतान किसी हिंदू साधु-संत को देखकर चिढ़ता है और कई साधु-संतो को उसने कैद कर रखाहै। फिर भी वह दिल्ली पहुचें। सुलतान ने इनको कैद कर लिया। जेल मे उन्होने अपने साथी कैदियों के साथ हंस-हंसकर चक्कियां चलाई। सुलतान को जब इसका पता लगा तो उसने सोचा-यह कैसा साधु है! कैद मे आप तो खुश है ही, दूसरे कैदियों को भी, जो पहले खुश नही थे, इसने ,खुश बना दिया है। पंजाब के मुसलमान फकीरों ने, जो नानक को जानते थे, सुलतान को समझाया। सुलतान ने उन्हे कैद से छोड़ना मंजूर कर लिया, पर नानक ने कहा, "पहले मेरे दूसरे साथियों को कैद से छोड़ो, तब मै जेल से निकलूंगा।" हारकर सुलतान को सारे कैदियों को छोड़ना पड़ा।
पूरब की यात्रा करते हुए नानक दिल्ली से हजार मील आगे जगन्नाथपुरी जा निकले। एक दिन पुरी के मंदिर के पुजारियों ने इनसे कहा, आओं, हमारे साथ जगन्नाथजी की आरती करो।" पर नानक ने कहा, "जगन्नाथ-इस जग के मालिक-की अपनी सारी सृष्टि ही आरती कर रही है। हम अपनी छोटी-सी थाली मे दीपकों वाली आरती से उसे कैसे प्रसन्न कर सकते है?"
पुजारियों ने पूछा, "वह आरती कौन-सी है?"

नानक ने बताया कि सारा आकाश उस भगवान, उस जगन्नाथ, की आरती का थाल है। उसमे चॉँद और सूरज के दीप जगमगा रहे है। लाखों-करोड़ो तारे जड़े हुए मोतियों के समान है। शीतल हवा धूप जला रही है। इस आरती से बढ़कर आरती हम क्या कर सकते है?"
पुरी से नानक रूहेलखंड होकर पंजाब आये। वहां रूहेले पठानो ने उन्हें पकड़कर दास बनाकर रख लिया। कई महीनों वहां रहने से उनका रूहेले पठानो पर इतना असर हुआ कि उन्होने केवल नानक को ही नही बल्कि दूसरे दासों को भी छोड़ दिया।
पूरब से आकर नानक कुछ समय पंजाब मे फिर घूमे। वहां से कश्मीर चले गये। उत्तर की यह उनकी दूसरी यात्रा थी। वहां से कैलास होते हुए नानक मानसरोवर पहुंचे। वहां योगियों और सिद्धों के साथ बातचीत हुई। इनमे एक बड़े योगी भर्तृजी पर नानक की बातचीत का इतना असर पड़ा कि
वह बाद मे उनके पास करतारपुर आ गए।
मानसरोवर से तिब्बत की सैर करते हुए वह फिर पंजाब आये। पंजाब आकर रावी के किनारे एक नगर बसाया, जिसका नाम करतारपुर रखा। यहीं पर वह अपने स्त्री-पुत्र और माता-पिता को ले आये। इसके बाद वह फिर दक्षिण की ओर लंबी यात्रा पर निकल पड़े।
राजस्थान के नगरो की सैर करते हुए, महाराष्ट्र होते हुए नानक दक्षिण की ओर चले।
रास्ते मे उन्हे ऐसे लोग मिले, जो आदमियों की बलि चढ़ाते थे। इन्होने नानक और उनके साथियों को पकड़ लिया और बलि चढ़ाने लगे। पर नानक का रंग-ढ़ंग देखकर उन्हें और उनके साथियों को उन्होने छोड़ दिया।
वहां से नानक लंका चले गए। वहां के राजा ने उनका बड़ा आदर-सम्मान किया। लंका मे वह बहुत दिनों तक रहे और जगह-जगह घूमे। वहां कई राजे थें। वे आपस मे लड़ते-झगड़ते रहते थे। नानक ने उनमें सुलह करा दी।
नानक की पश्चिम की और आखिरी यात्रा मक्का की थी। उनके कुछ मुसलमान मित्र वहां जा रहे थे, यह भी साथ हो लिये। यह उनकी सबसे बड़ी यात्रा थी।
मक्का मे भी इन्होने बड़ा विनोद किया। वहां एक बड़ा-सा काला पत्थर है, जिसको मुसलमान बहुत पवित्र मानते है। उसे काबाशरीफ के नाम से पुकारते है और उसे भगवान का निवास-समझकर उसका आदर करते है। नानक काबाशरीफ की ओर टांग पसार लेट गएं। एक काजी उस ओर से निकला। उसे नानक को काबा की ओर टांगे फैलाकर सोना बहुत अखरा। उसने नानक को झकझोरा ओर कहा, "ओ मुसाफिर, तू कौन है, जो अल्ला के घर की तरफ टांगे पसार कर पड़ा है? ऐसी बेइज्जती तू क्यो कर रहा है?"

नानक ने कहा, "ईश्वर के प्यारे, मै बेइज्जती नही करना चाहता हूं। तुम्ही मुझे बताओं कि ईश्वर का घर किस तरफ नही है? मै उसी ओर अपनी टांगे कर लूं।" काजी समझदार था, वह समझ गया।
मक्का से नानक के दूसरे साथी तो वापस आ गए, पर नानक कई देशो मे घूमते बगदाद पहुचे। बगदाद मे आकर उन्होने लोगो का ध्यान रोजमर्रा की बातों से हटाकर नई बातों की ओर खीचनें का अपना मजेदार तरीका अपनाया। उन्होने बांग दी। बांग का पहला भाग तो मुसलमानों का था और पिछला भाग अपना, यानी पंजाबी और संस्कृत का। यह नए ढंग का बांग सुनकर कई लोग तो क्रोध से और कई इस विचार से कि देखे, यह कौन है, नानक के पास आ इकटठे हुए। बस नानक को और क्या चाहिए थां! बातचीत शुरू हो गई और बातो-ही-बातों मे नानक ने सबको मोह लिया।

बगदाद मे नानक कोई दो साल रहे होगें। वहां के लोग उनको हिंद का पीर कहकर पुकारते थे। बगदाद के मुसलमान पीरों और फकीरों का उनसे बहुत प्रेम बढ़ गया। नानक के अपने देश लौटने के बाद इनकी याद मे दो स्थानों पर पत्थर भी लगवाए।
बगदाद से नानक काबुल पहुंचे। वहां बैठा बाबर भारत पर चढ़ाई करने की तैयारियों कर रहा था। 'हिंद के पीर' नानक का नाम अबतक काबुल में पहुंच चुका था। बाबर ने नानक को अपने पास बुलाया और बड़े आदर से नानक के आगे शराब का प्याला पेश किया और पीने के लिए कहा। नानक ने फौरन कहा कि हमने तो ऐसी शराब पी रखी है, जिसका नशा कभी उतरता ही नहीं। यह शराब, जिसका नशा कुछ देर बाद उतर जाता है, हमारे किस काम की!
बाबर यह सुनकर बहुत खुश हुआ। फिर उसने भारत के राज की बात की। नानक ने उससे पठानों के प्रजा को दु:ख देने वाले राज की बात बताई। बोले, "भारत पर तुम्हारा राज होगा, पर तुम्हारे बेटों और पोतों में यह राज तब-तक चलेगा, जबतक वे प्रजा को दु:ख न देंगे।"
यात्रा के वापस घर आकर नानक ने फिर कोई नई यात्रा नहीं की। हां, लोगों के भले के लिए, जहां जरूरत समझते, वहां जरूर जाते। एक बार नानक ने सुना कि बाबर मार-काट करता हुआ भारत में आ गया है। साठ साल की उमर में अपने पुराने साथी मरदाना को लेकर वे बाबर को इस मारकाट से रोकने के लिए चल पड़े। बाबर की फौजों ने एमनाबाद पर धावा बोला ही था कि नानक वहां पहुंच गए। उस शहर में बहुत से बेकसूर लोग मारे और अंधेर मचाया। नानक का हृदय प्रजा का दु:ख देखकर बड़ा दुखी हुआ।

पकड़-धकड़ में हजारों बेकसूर लोगों के साथ नानक भी पकड़े गए। रोते-पीटते कैदियों में नानक ने अपने प्यार और निडरता के जादू से ऐसी शांति पैदा कर दी कि वहां का रंग ही बदल गया। मरदाना को कैद करनेवाले हाकिम ने यह देखकर बाबर के पास खबर भेजी। बाबर ने झट नानक को बुलाया। उन्हें देखकर वह दंग रह गया, "ओह! यह तो वही हिंद का पीर है!" नानक ने बाबर को खूब खरी-खोटी सुनाई। बाबर ने बेगुनाह लोगों के मारे जाने पर बहुत पछतावा किया और सारे कैदी छोड़ दिये।
वापस करतारपुर आकर नानक फिर बहुत कम बाहर गए। उनका नाम 'बाबा नानक' मशहूर हो गया था और हर पंजाबी के दिल में बस गया था। जहां नानक जाते, दुनिया उनके दर्शनों के लिए दौड़ पड़ती। करतारपुर पंजाबियों के लिए तीर्थ बन चुका था।
जो लोग इस तीर्थ में आते, वे हैरान रह जाते। आनेवाले सोचते थे-इतने बड़े आदमी को हम सुंदर गद्दी पर बैठे हुए देखेंगे। पर वहां आकर वे लोग नानक को खेतों में और लंगर में काम करते देखते थे। लंगर भी उनका विचित्र था। उसमें सेवा या खान-पान में ऊंच-नीच का कोई भेदभाव नहीं था। जात-पांत का भी कोई बंधन नहीं था। उस युग में यह एक नई बात थी।
नानक पूरे पच्चीस साल तक पैदल ही घूमे। इन पच्चीस सालों में उन्होंने लोगों के रीति-रिवाज देखे। कई तरह के धर्म देखे, अनेक पीरों-फकीरों, जप-तप करनेवालों और बहुत-से विद्वानों से बातचीत की। किसी के साथ भी वैर-विरोध न रखने वाले नानक ने सबकी बातों को आदर के साथ सुना और सुनकर उनमें से सचाई को ग्रहण करने की कोशिश की।
जो सचाई उन्होंने देखी, जो तजरबे उन्हें हुए, उस पर उन्होंने सोचा कि आगे आनेवाले युग की भलाई के लिए कुछ लिख जाय। उन्होंने 'जपजी-साहब' लिखा। वह अनोखो वाणी है। उसको जितना पढ़ें और उस पर जितना विचार करें, उतनी ही नई-नई बातें मिलती हैं। किसी कवि ने सच ही लिखा है:
गुरु नानक की बात में, बात-बात में बात।
ज्यों मेंहदी के पात में, पात-पात में पात।।
नानक सत्तर साल के हो चुके थे। उन्हें लगा कि उनका काम अब पूरा हो चुका है। उनके बाद भी उनका काम चलता रहे, यह सोचकर उन्होंने १४ जून, १५३९ को अपने एक सच्चे सेवक लहनाजी को 'अंगद' नाम रखकर अपनी गद्दी पर बिठाया। उसी साल २२ सितंबर के दिन वह इस दुनिया से चले गये।

शरीर छोड़ने के बाद उनकी याद में हिंदुओं ने एक समाधि बनाई और मुसलमानों ने एक कब्र। पर रावी नदी एक साल उन दोनों को बहालकर ले गई। ऐसा करके मानो परमात्मा ने भूले हुए लोगों को समझाया कि नानक तो मेरी ही निराकार ज्योति थी। यह निराकार ज्योति समाधियों और कब्रों में किस तरह कैद रह सकती है?


(यह लेख संकलन मात्र है) - धर्म प्रचारार्थ इस लेख में मेरा कोई योगदान नही है, आप इसको पढ़े और इसके मूल लेखक/लेखिका को अपना आशीर्वचन प्रदान करें।

15 December 2014

हे भगवान! तेरा सत्‍यानाश हो

एक सिपाही छुट्टी लेकर अपने घर जा रहा था। रास्‍ते में ही पानी बरसने से उसने घर जाने से पहले जितने भी सामान खरीदें थे वो खराब हो गये। सिपाही ने ईश्‍वर को काफी भला बुरा कहा कि अभी ही बरसना था ? तेरा सत्‍यानाश हो। कुछ आगे जाने पर कुछ डाकू आड़ में बैठे थे। उन डाकूओं ने एक जोर दार निशाना लगाया किन्‍तु पानी बरसने के कारण कारतूस गीली हो जाने के कारण वह न चली और सिपाही ने भाग कर आपनी जान बचाई। जब वह घर पहुँचा और अपनी सारी सामान खराब होने की बात बताई कि और भगवान को दोष देने लगा, किन्‍तु फिर डाकू की गोली न चलने की बात बताई तो उसकी पत्नी ने भगवान का शुक्रिया अदा किया। पति को यह समझाते हुऐ कहा कि अगर पानी न बरसता तो डाकूँओं से तम तो लुटते ही साथ ही साथ जान भी जाती।

इस प्रंसग से यह शिक्षा मिलती है कि हमें भगवान जो भी दे उसे सहर्ष स्‍वीकार करना चाहिए।

13 December 2014

ये कागजी शेरये कागजी शेर

प्रत्येक वर्ष 6 दिसम्बर को सेकुलर समाचार पत्र एवं पत्रिकाएं बाबरी की दुहाई देते हुए लम्बे-लम्बे आलेखप्रकाशित कर हिन्दुओं को नसीहत देने का प्रयास करते हैं। बंगलादेश, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और मलेशियामें हिन्दुओं पर हो रहे घोर अत्याचारों पर इनकी कलम क्यों नहीं चलती? क्या इन सेकुलरों को पता नहीं है किपाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं की संख्या निरन्तर घट रही है? इसके पीछे मुख्य कारण है जिहादीअत्याचार। पूरी दुनिया जानती है कि इन देशों में अल्पसंख्यकों का क्या हाल है। कट्टरपंथी हिन्दुओं कोमतान्तरण के लिए प्रताड़ित करते हैं। प्रताड़ना सहकर भी जो लोग मतान्तरण नहीं करते उनका जीना दूभर कररखा है इन कट्टरपंथियों ने। बंगलादेश और पाकिस्तान में सैकड़ों मन्दिरों को 1947 और उसके बाद खण्डित और अपवित्र किया गया है। पाकिस्तान, बंगलादेश और अब मलेशिया में हिन्दुओं की स्थिति बद से बदतर हो रही है, लेकिन इनके विरुध्द लिखने वाली कितनी कलमें हैं? तस्लीमा नसरीन ने इन मुद्दों पर कलम चलायी तो उनकी कलम ही तोड़ दी गयी। ये सेकुलर उस समय बेजुबान क्यों हो जाते हैं जब कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीर से भगाया जाता है? क्यों नहीं चलती इनकी कलम उन आतंकवादियों के खिलाफ जो जिहाद के नाम पर हिन्दुओं के रक्त सेखूनी होली खेलते हैं? जब भी हिन्दू अंगड़ाई लेता है तो ये चिल्लाने लगते हैं कि हिन्दू जग रहा है। आखिर हिन्दुओंके जगने पर इतना बवाल क्यों? कागजों पर हिन्दुओं के शौर्य को कलंकित करने वाले ये कागजी शेर कठमुल्लाओंकी जरा सी फूंक के सामने हवा में उड़ जाते हैं, क्योंकि इन्हें पता है कि इनके खिलाफ लिखा तो अगले ही दिनफतवा जारी कर दिया जाएगा। हिन्दू तो कोई फतवा निकालने वाले हैं नहीं, तो फिर हिन्दुओं के खिलाफ ही जमकर लिखा जाए। इससे कुछ और नहीं तो सेकुलर सरकार का चेहरा खिल उठेगा और फिर मिलेंगे सम्मान पत्रऔर ढेरों पुरस्कार। ऐसी दूषित सोच ने ही भारत के सम्मान को हमेशा बट्टा लगाया है।

लेखक - श्री कुमुद कुमार

11 December 2014

संक्षिप्त हनुमान कथा

 


जन्म

हनुमान जी का जन्म त्रेता युग मे अंजना(एक नारी वानर) के पुत्र के रूप मे हुआ था। अंजना असल मे पुन्जिकस्थला नाम की एक अप्सरा थीं, मगर एक शाप के कारण उन्हें नारी वानर के रूप मे धरती पे जन्म लेना पडा। उस शाप का प्रभाव शिव के अन्श को जन्म देने के बाद ही समाप्त होना था। अंजना केसरी की पत्नी थीं। केसरी एक शक्तिशाली वानर थे जिन्होने एक बार एक भयंकर हाथी को मारा था। उस हाथी ने कई बार असहाय साधु-संतों को विभिन्न प्रकार से कष्ट पँहुचाया था। तभी से उनका नाम केसरी पड गया, "केसरी" का अर्थ होता है सिंह। उन्हे "कुंजर सुदान"(हाथी को मारने वाला) के नाम से भी जाना जाता है।


केसरी के संग मे अंजना ने भगवान शिव कि बहुत कठोर तपस्या की जिसके फ़लस्वरूप अंजना ने हनुमान(शिव के अन्श) को जन्म दिया।

जिस समय अंजना शिव की आराधना कर रहीं थीं उसी समय अयोध्या-नरेश दशरथ, पुत्र प्राप्ति के लिये पुत्र कामना यज्ञ करवा रहे थे। फ़लस्वरूप उन्हे एक दिव्य फल प्राप्त हुआ जिसे उनकी रानियों ने बराबर हिस्सों मे बाँटकर ग्रहण किया। इसी के फ़लस्वरूप उन्हे राम, लषन, भरत और शत्रुघन पुत्र रूप मे प्राप्त हुए।

विधि का विधान ही कहेंगे कि उस दिव्य फ़ल का छोटा सा टुकडा एक चील काट के ले गई और उसी वन के ऊपर से उडते हुए(जहाँ अंजना और केसरी तपस्या कर रहे थे) चील के मुँह से वो टुकडा नीचे गिर गया। उस टुकडे को पवन देव ने अपने प्रभाव से याचक बनी हुई अंजना के हाथों मे गिरा दिया। ईश्वर का वरदान समझकर अंजना ने उसे ग्रहण कर लिया जिसके फ़लस्वरूप उन्होंने पुत्र के रूप मे हनुमान को जन्म दिया।

अंजना के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को अंजनेय नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न'।

बालपन, शिक्षा एवँ शाप

हनुमान जी के धर्म पिता वायु थे, इसी कारण उन्हे पवन पुत्र के नाम से भी जाना जाता है। बचपन से ही दिव्य होने के साथ साथ उनके अन्दर असीमित शक्तियों का भण्डार था।

बालपन में एक बार सूर्य को पका हुआ फ़ल समझकर उसे वो उसे खाने के लिये उड़ कर जाने लगे, उसी समय इन्द्र ने उन्हे रोकने के प्रयास में वज्र से प्रहार कर दिया, वज्र के प्रहार के कारण बालक हनुमान कि ठुड्डी टूट गई और वे मूर्छित होके धरती पर गिर गये। इस घटना से कुपित होकर पवन देव ने संसार भर मे वायु के प्रभाव को रोक दिया जिसके कारण सभी प्राणियों मे हाहाकार मच गया। वायु देव को शान्त करने के लिये अंततः इन्द्र ने अपने द्वारा किये गये वज्र के प्रभाव को वापस ले लिया। साथ ही साथ अन्य देवताओं ने बालक हनुमान को कई वरदान भी दिये। यद्यपि वज्र के प्रभाव ने हनुमान की ठुड्डी पे कभी ना मिटने वाला चिन्ह छोड़ दिया।
तदुपरान्त जब हनुमान को सुर्य के महाग्यानि होने का पता चला तो उन्होंने अपने शरीर को बड़ा करके सुर्य की कक्षा में रख दिया और सुर्य से विनती की कि वो उन्हें अपना शिष्य स्वीकार करें। मगर सुर्य ने उनका अनुरोध ये कहकर अस्वीकार कर दिया कि चुंकि वो अपने कर्म स्वरूप सदैव अपने रथ पे भ्रमण करते रहते हैं, अतः हनुमान प्रभावपूर्ण तरीके से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाएँगे। सुर्य देव की बातों से विचलित हुए बिना हनुमान ने अपने शरीर को और बड़ा करके अपने एक पैर को पूर्वी छोर पे और दूसरे पैर को पश्चिमी छोर पे रखकर पुनः सुर्य देव से विनती की और अंततः हनुमान के सतात्य(दृढ़ता) से प्रसन्न होकर सुर्य ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लिया।
तदोपरान्त हनुमान ने सुर्य देव के साथ निरंतर भ्रमण करके अपनी शिक्षा ग्रहण की। शिक्षा पूर्ण होने के ऊपरांत हनुमान ने सुर्य देव से गुरु-दक्षिणा लेने के लिये आग्रह किया परन्तु सुर्य देव ने ये कहकर मना कर दिया कि 'तुम जैसे समर्पित शिष्य को शिक्षा प्रदान करने में मैने जिस आनंद की अनुभूती की है वो किसी गुरु-दक्षिणा से कम नहीं है'।

परन्तु हनुमान के पुनः आग्रह करने पर सुर्य देव ने गुरु-दक्षिणा स्वरूप हनुमान को सुग्रीव(धर्म पुत्र-सुर्य)की सहायता करने की आज्ञा दे दी।
हनुमान के इच्छानुसार सुर्य देव का हनुमान को शिक्षा देना सुर्य देव के अनन्त, अनादि, नित्य, अविनाशी और कर्म-साक्षी होने का वर्णन करता है।

हनुमान जी बालपन मे बहुत नटखट थे, वो अपने इस स्वभाव से साधु-संतों को सता देते थे। बहुधा वो उनकी पूजा सामग्री और आदि कई वस्तुओं को छीन-झपट लेते थे। उनके इस नटखट स्वभाव से रुष्ट होकर साधुओं ने उन्हें अपनी शक्तियों को भूल जाने का एक लघु शाप दे दिया। इस शाप के प्रभाव से हनुमान अपनी सब शक्तियों को अस्थाई रूप से भूल जाते थे और पुनः किसी अन्य के स्मरण कराने पर ही उन्हें अपनी असीमित शक्तियों का स्मरण होता था। ऐसा माना जाता है कि अगर हनुमान शाप रहित होते तो रामायण में राम-रावण युद्ध का स्वरूप पृथक(भिन्न, न्यारा) ही होता। कदाचित वो स्वयं ही रावण सहित सम्पूर्ण लंका को समाप्त कर देते।

रामायण युद्ध में हनुमान

रामायण के सुन्दर-काण्ड में हनुमान जी के साहस और देवाधीन कर्म का वर्णन किया गया है। हनुमानजी की भेंट रामजी से उनके वनवास के समय तब हुई जब रामजी अपने भ्राता लछ्मन के साथ अपनी पत्नी सीता की खोज कर रहे थे। सीता माता को लंकापति रावण छल से हरण करके ले गया था। सीताजी को खोजते हुए दोनो भ्राता ॠषिमुख पर्वत के समीप पँहुच गये जहाँ सुग्रीव अपने अनुयाईयों के साथ अपने ज्येष्ठ भ्राता बाली से छिपकर रहते थे। वानर-राज बाली ने अपने छोटे भ्राता सुग्रीव को एक गम्भीर मिथ्याबोध के चलते अपने साम्राज्य से बाहर निकाल दिया था और वो किसी भी तरह से सुग्रीव के तर्क को सुनने के लिये तैयार नहीं था। साथ ही बाली ने सुग्रीव की पत्नी को भी अपने पास बलपूर्वक रखा हुआ था।
राम और लछ्मण को आता देख सुग्रीव ने हनुमान को उनका परिचय जानने के लिये भेजा। हनुमान् एक ब्राह्मण के वेश में उनके समीप गये। हनुमान के मुख़ से प्रथम शब्द सुनते ही श्रीराम ने लछ्मण से कहा कि कोई भी बिना वेद-पुराण को जाने ऐसा नहीं बोल सकता जैसा इस ब्राह्मण ने बोला। रामजी को उस ब्राह्मण के मुख, नेत्र, माथा, भौंह या अन्य किसी भी शारीरिक संरचना से कुछ भी मिथ्या प्रतीत नहीं हुआ। रामजी ने लछ्मण से कहा कि इस ब्राह्मण के मन्त्रमुग्ध उच्चारण को सुनके तो शत्रु भी अस्त्र त्याग देगा। उन्होंने ब्राह्मण की और प्रसन्नसा करते हुए कहा कि वो नरेश(राजा) निःसंकोच ही सफ़ल होगा जिसके पास ऐसा गुप्तचर होगा। श्रीराम के मुख़ से इन सब बातों को सुनकर हनुमानजी ने अपना वास्तविक रूप धारण किया और श्रीराम के चरणों में नतमष्तक हो गये। श्रीरम ने उन्हें उठाकर अपने ह्र्दय से लगा लिया। उसी दिन एक् भक्त और भगवान का हनुमान और प्रभु राम के रूप मे अटूट और अनश्वर मिलन हुआ। ततपश्चात हनुमान ने श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता करवाई। इसके पश्चात ही श्रीराम ने बाली को मारकर सुग्रीव को उनका सम्मान और गौरव वापस दिलाया और लंका युद्ध में सुग्रीव ने अपनी वानर सेना के साथ श्रीराम का सहयोग दिया।
सीता माता की खोज में वानरों का एक दल दक्षिण तट पे पँहुच गया। मगर इतने विशाल सागर को लांघने का साहस किसी में भी नहीं था। स्वयं हनुमान भी बहुत चिन्तित थे कि कैसे इस समस्या का समाधान निकाला जाये। उसी समय जामवन्त और बाकी अन्य वानरों ने हनुमान को उनकी अदभुत शक्तियों का स्मरण कराया। अपनी शक्तियों का स्मरण होते ही हनुमान ने अपना रूप विस्तार किया और पवन-वेग से सागर को उड़के पार करने लगे। रास्ते में उन्हें एक पर्वत मिला और उसने हनुमान से कहा कि उनके पिता का उसके ऊपर ॠण है, साथ ही उस पर्वत ने हनुमान से थोड़ा विश्राम करने का भी आग्रह किया मगर हनुमान ने किन्चित मात्र भी समय व्यर्थ ना करते हुए पर्वतराज को धन्यवाद किया और आगे बढ़ चले। आगे चलकर उन्हें एक राक्षसी मिली जिसने कि उन्हें अपने मुख में घुसने की चुनौती दी, परिणामस्वरूप हनुमान ने उस राक्षसी की चुनौती को स्वीकार किया और बड़ी ही चतुराई से अति लघुरूप धारण करके राक्षसी के मुख में प्रवेश करके बाहर आ गये। अंत में उस राक्षसी ने संकोचपूर्वक ये स्वीकार किया कि वो उनकी बुद्धिमता की परीक्षा ले रही थी।

आखिरकार हनुमान सागर पार करके लंका पँहुचे और लंका की शोभा और सुनदरता को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। और उनके मन में इस बात का दुःख भी हुआ कि यदी रावण नहीं माना तो इतनी सुन्दर लंका का सर्वनाश हो जायेगा। ततपश्चात हनुमान ने अशोक-वाटिका में सीतजी को देखा और उनको अपना परिचय बताया। साथ ही उन्होंने माता सीता को सांत्वना दी और साथ ही वापस प्रभु श्रीराम के पास साथ चलने का आग्रह भी किया। मगर माता सीता ने ये कहकर अस्वीकार कर दिया कि ऐसा होने पर श्रीराम के पुरुषार्थ् को ठेस पँहुचेगी। हनुमान ने माता सीता को प्रभु श्रीराम के सन्देश का ऐसे वर्णन किया जैसे कोई महान ज्ञानी लोगों को ईश्वर की महानता के बारे में बताता है।

माता सीता से मिलने के पश्चात, हनुमान प्रतिशोध लेने के लिये लंका को तहस-नहस करने लगे। उनको बंदी बनाने के लिये रावण पुत्र मेघनाद(इन्द्रजीत) ने ब्रम्हास्त्र का प्रयोग किया। ब्रम्ह्मा जी का सम्मान करते हुए हनुमान ने स्वयं को ब्रम्हास्त्र के बन्धन मे बन्धने दिया। साथ ही उन्होंने विचार किया कि इस अवसर का लाभ उठाकर वो लंका के विख्यात रावण से मिल भी लेंगे और उसकी शक्ति का अनुमान भी लगा लेंगे। इन्हीं सब बातों को सोचकर हनुमान ने स्वयं को रावण के समक्ष बंदी बनकर उपस्थित होने दिया। जब उन्हे रावण के समक्ष लाया गया तो उन्होंने रावण को प्रभु श्रीराम का चेतावनी भरा सन्देश सुनाया और साथ ही ये भी कहा कि यदि रावण माता सीता को आदर-पूर्वक प्रभु श्रीराम को लौटा देगा तो प्रभु उसे क्षमा कर देंगे।

क्रोध मे आकर रावण ने हनुमान को म्रित्युदंड देने का आदेश दिया मगर रावण के छोटे भाई विभीषण ने ये कहकर बीच-बचाव किया कि एक दूत को मारना आचारसंहिता के विपरीत है। ये सुनकर रावण ने हनुमान की पूंछ में आग लगाने का आदेश दिय। जब रावण के सैनिक हनुमान की पूंछ मे कपड़ा लपेट रहे थे तब हनुमान ने अपनी पूंछ को खूब लम्बा कर लिया और सैनिकों को कुछ समय तक परेशान करने के पश्चात पूंछ मे आग लगाने का अवसर दे दिया। पूंछ मे आग लगते ही हनुमान ने बन्धनमुक्त होके लंका को जलाना शुरु कर दिया और अंत मे पूंछ मे लगी आग को समुद्र मे बुझा कर वापस प्रभु श्रीराम के पास आ गये।
लंका युद्ध में जब लछमण मूर्छित हो गये थे तब हनुमान जी को ही द्रोणागिरी पर्वत पर से संजीवनी बूटी लाने भेजा गया मगर वो बूटी को भली-भांती पहचान नहीं पाये, और पुनः अपने पराक्रम का परिचय देते हुए वो पूरा द्रोणागिरी पर्वत ही रण-भूमि में उठा लाये और परिणामस्वरूप लछमण के प्राण की रक्षा की। भावुक होकर श्रीराम ने हनुमान को ह्र्दय से लगा लिया और बोले कि हनुमान तुम मुझे भ्राता भरत की भांति ही प्रिय हो।

हनुमान का पंचमुखी अवतार भी रामायण युद्ध् कि ही एक घटना है। अहिरावण जो कि काले जादू का ग्याता था, उसने राम और लछमण का सोते समय हरण कर लिया और उन्हें विमोहित करके पाताल-लोक में ले गया। उनकी खोज में हनुमान भी पाताललोक पहुँच गये। पाताल-लोक के मुख्यद्वार एक युवा प्राणी मकरध्वज पहरा देता था जिसका आधा शरीर मछली का और आधा शरीर वानर का था। मकरध्वज के जन्म कि कथा भी बहुत रोचक है। यद्यपि हनुमान ब्रह्मचारी थे मगर मकरध्वज उनका ही पुत्र था। लंका दहन के पश्चात जब हनुमान पूँछ में लगी आग को बुझाने समुद्र में गये तो उनके पसीने की बूंद समुद्र में गिर गई। उस बूंद को एक मछली ने पी लिया और वो गर्भवती हो गई। इस बात का पता तब चला जब उस मछली को अहिरावण की रसोई में लाया गया। मछली के पेट में से जीवित बचे उस विचित्र प्राणी को निकाला गया। अहिरवण ने उसे पाल कर बड़ा किया और उसे पातालपुरी के द्वार का रक्षक बना दिया।

हनुमान इन सभी बातों से अनिभिज्ञ थे। यद्यपि मकरध्वज को पता था कि हनुमान उसके पिता हैं मगर वो उन्हें पहचान नहीं पाया क्योंकि उसने पहले कभी उन्हें देखा नहीं था।
जब हनुमान ने अपना परिचय दिया तो वो जान गया कि ये मेरे पिता हैं मगर फिर भि उसने हनुमान के साथ युद्ध करने का निश्चय किया क्योंकि पातालपुरि के द्वार की रक्षा करना उसका प्रथम कर्तव्य था। हनुमान ने बड़ी आसानी से उसे अपने आधीन कर लिया और पातलपुरी के मुख्यद्वार पर बाँध दिया।
पातालपुरी में प्रवेश करने के पश्चात हनुमान ने पता लगा लिया कि अहिरावण का वध करने के लिये उन्हे पाँच दीपकों को एक साथ बुझाना पड़ेगा। अतः उन्होंने पन्चमुखी अवतार(श्री वराह, श्री नरसिम्हा, श्री गरुण, श्री हयग्रिव और स्वयं) धारण किया और एक साथ में पाँचों दीपकों को बुझाकर अहिरावण का अंत किया। अहिरावण का वध होने के पश्चात हनुमान ने प्रभु श्रीराम के आदेशानुसार मकरध्वज को पातालपुरि का नरेश बना दिया।
युद्ध समाप्त होने के साथ ही श्रीराम का चौद्ह वर्ष का वनवास भी समाप्त हो चला था। तभी श्रीराम को स्मरण हुआ कि यदि वो वनवास समाप्त होने के साथ ही अयोध्या नहीं पँहुचे तो भरत अपने प्राण त्याग देंगे। साथ ही उनको इस बात का भी आभास हुआ कि उन्हें वहाँ वापस जाने में अंतिम दिन से थोड़ा विलम्ब हो जायेगा, इस बात को सोचकर श्रीराम चिंतित थे मगर हनुमान ने अयोध्या जाकर श्रीराम के आने की जानकारी दी और भरत के प्राण बचाकर श्रीराम को चिंता मुक्त किय।

अयोध्या में राज्याभिषेक होने के बाद प्रभु श्रीराम ने उन सभी को सम्मानित करने का निर्णय लिया जिन्होंने लंका युद्ध में रावण को पराजित करने में उनकी सहायता की थी। उनकी सभा में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया जिसमें पूरी वानर सेना को उपहार देकर सम्मानित किया गया। हनुमान को भी उपहार लेने के लिये बुलाया गया, हनुमान मंच पर गये मगर उन्हें उपहार की कोई जिज्ञासा नहीं थी। हनुमान को ऊपर आता देखकर भावना से अभिप्लुत श्रीराम ने उन्हें गले लगा लिया और कहा कि हनुमान ने अपनी निश्छल सेवा और पराक्रम से जो योगदान दिया है उसके बदले में ऐसा कोई उपहार नहीं है जो उनको दिया जा सके। मगर अनुराग स्वरूप माता सीता ने अपना एक मोतियों का हार उन्हें भेंट किया। उपहार लेने के उपरांत हनुमान माला के एक-एक मोती को तोड़कर देखने लगे, ये देखकर सभा में उपस्थित सदस्यों ने उनसे इसका कारण पूछा तो हनुमान ने कहा कि वो ये देख रहे हैं मोतियों के अन्दर उनके प्रभु श्रीराम और माता सीता हैं कि नहीं, क्योंकि यदि वो इनमें नहीं हैं तो इस हार का उनके लिये कोई मूल्य नहीं है। ये सुनकर कुछ लोगों ने कहा कि हनुमान के मन में प्रभु श्रीराम और माता सीता के लिये उतना प्रेम नहीं है जितना कि उन्हें लगता है। इतना सुनते ही हनुमान ने अपनी छाती चीर के लोगों को दिखाई और सभी ये देखकर स्तब्द्ध रह गये कि वास्त्व में उनके ह्रदय में प्रभु श्रीराम और माता सीता की छवि विद्यमान थी।

हनुमद रामायण

ऐसा माना जाता है कि प्रभु श्रीराम की रावण के ऊपर विजय प्राप्त करने के पश्चात ईश्वर की आराधना के लिये हनुमान हिमालय पर चले गये थे। वहाँ जाकर उन्होंने पर्वत शिलाओं पर अपने नाखून से रामायण की रचना की जिसमे उन्होनें प्रभु श्रीराम के कर्मों का उल्लेख किया था। कुछ समयोपरांत जब महर्षि वाल्मिकी हनुमानजी को अपने द्वारा रची गई रामायण दिखाने पहुँचे तो उन्होंने हनुमानजी द्वारा रचित रामायण भी देखी। उसे देखकर वाल्मिकी तोड़े निराश हो गये तो हनुमान ने उनसे उनकी निराशा का कारण पूछा तो महर्षि बोले कि उन्होने कठोर परिश्रम के पश्चात जो रामायण रची है वो हनुमान की रचना के समक्ष कुछ भी नहीं है अतः आने वाले समय में उनकी रचना उपेक्षित रह जायेगी। ये सुनकर हनुमान ने रामायण रचित पर्वत शिला को एक कन्धे पर उठाया और दूसरे कन्धे पर महर्षि वाल्मिकी को बिठा कर समुद्र के पास गये और स्वयं द्वारा की गई रचना को राम को समर्पित करते हुए समुद्र में समा दिया। तभी से हनुमान द्वारा रची गई हनुमद रामायण उपलब्ध नहीं है।

तदुपरांत महर्षि वाल्मिकी ने कहा कि तुम धन्य हो हनुमान, तुम्हारे जैसा कोइ दूसरा नहीं है और साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि वो हनुमान की महिमा का गुणगान करने के लिये एक जन्म और लेंगे। इस बात को उन्होने अपनी रचना के अंत मे कहा भी है।

माना जाता है कि रामचरितमानस के रचयिता कवि तुलसी दास कोई और नहीं बल्कि महर्षि वाल्मिकी का ही दूसरा अवतार थे।

महाकवि तुलसीदास के समय में ही एक पटलिका को समुद्र के किनारे पाया गया जिसे कि एक सार्वजनिक स्थल पर टाँग दिया गया था ताकी विद्यार्थी उस गूढ़लिपि को पढ़कर उसका अर्थ निकाल सकें। माना जाता है कि कालीदास ने उसका अर्थ निकाल लिया था और वो ये भी जान गये थे कि ये पटलिका कोई और नहिं बल्कि हनुमान द्वारा उनके पूर्व जन्म में रची गई हनुमद् रामायण का ही एक अंश है जो कि पर्वत शिला से निकल कर ज़ल के साथ प्रवाहित होके यहाँ तक आ गई है। उस पटलिका को पाकर तुलसीदास ने अपने आपको बहुत भग्यशाली माना कि उन्हें हनुमद रामायण के श्लोक का एक पद्य प्राप्त हुआ।