31 August 2015

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका

इस संपूर्ण जड एवं चेतन संसार के कण कण में ईश्‍वर व्याप्त हैं| हिन्दू धर्म ने इस मूल तत्व को आदि काल में ही जान लिया था| वेद एवं पूराण ३३ करोड देवी देवतों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं जो कि मानव, पशू, नरपशु, ग्रह, नक्षत्र, वनस्पति तथा जलाशय इत्यादि हर रूप में व्याप्त हैं| पर इनके शिखर पर हैं त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु एवं सदाशिव ... ।

शिव के अनुयायी शैव्य एवं विष्णु के अनुयायी वैष्णव ; प्रतिस्पर्द्धा अपने इष्ट को श्रेष्ठ सिद्ध करने की; संधर्भ - कुछ तथ्य, कुछ भ्रांतिया ; लब्ध - कलेश ।


अनादि काल से चले आ रहे शैव एवं वैष्णव के मध्य चले आरहे प्रतिस्पर्द्धा पर एक आलेख...

विष्णु के भक्त वैष्णव कहलाते हैं तथा शिव भक्त शैव्य | पर वास्तव में अन्य कुछ धर्म एंव समुदाय के विपरीत वैष्णव तथा शैव्य हिन्दू धर्म में संघर्ष का कारण नहीं होते| वस्तुतः शैव्य विष्णू को भी पुजते हैं तथा वैष्णव शिव को भी पूजते हैं| तो वैष्णव तथा शैव्य सिर्फ अपने प्रमूख ईष्ट की मान्यता में एक दूसरे से अलग हैं| वैष्णव भगवान विष्णु को सव देवों में श्रेष्ठ मानता है तथा उन्हे त्रिदेवों से उपर परमेश्वर मानता है, तो शैव्य देवाधिदेव सर्वेश्वर शिव को परमेश्वर जानता है| यह आदि काल से चली आ रही परंपरा है| स्वंय वेद एवं पूराण अनेक उदाहरण प्रस्तूत करते हैं जिसमे शिव तथा विष्णु एक दूसरे अपना ही स्वरूप तथा परस्पर आदर्श बतलाते हैं| पर विघटन प्रकृति का नियम है| वेदोत्तर काल में इस मान्यता में भी अंतर आया| और शैव्य एंव वैष्णव परंपरा का एक कट्‍टर स्वरूप सामने आया ... "वीर शैव्य" तथा "वीर वैष्णव"| वीर वैष्णव का अधिक समय शिव तथा शैव्यों के द्वेष में ही बीतता है| वे शैव्यों के साथ संपर्क नहीं बढाते, वे शिव को नहीं पूजते, यहां तक की वे कभी कभी तो वे शैव्यों से जल भी ग्रहण नहीं करते| ठीक उसी प्रकार वीर शैव्य विष्णु तथा वैष्णवों से द्वेष को अपना परम कर्तव्य जानते हैं| वास्तव में ये शैव्य तथा वैष्णव न होकर "वीर" मात्र रह जाते हैं तथा एक दूसरे के विरोधी होने के बाद भी एक ही परंपरा का अनुसरण करते हैं| ये ज्ञान शुन्य होते हैं तथा अपने ही इष्ट के मूल रूप को नहीं जान पाते हैं| संपूर्ण जीवन साधना के बाद भी इन्हे दिव्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता तथा इनकी द्वेष भावना बहुदा इनके ही नाश का कारण सिद्ध होती है| वास्तव में ये अपने इष्ट को प्रसन्न करने की अपेक्षा उन्हे भी अप्रसन्न कर देते हैं| प्रजापती दक्ष का शिव विरोधी होने के कारण सर्वनाश हूआ, यद्यपि वे विष्णू भगवान की शरण में था| ठीक उसी प्रकार परम शिव भक्त होने के बाद भी ॠषि कागभूषंडी को अपने ही इष्ट का क्रोधभाजन बनना पडा तथा उनकी सिद्धियां नष्ट हूईं| कारण उन्होंने भगवान विष्णू के अवतार श्री राम का अनादर किया तथा तथा अपने तत्वज्ञानी गूरू लोमेश को वैष्णव जान उनकी अवहेलना की| वास्तव में लोमेश जैसे ज्ञानी ही परंज्ञान के अधिकारी होते हैं| यथार्थ में ईश्‍वर एक हैं|



वही परम कल्यानकारी तथा सर्वसमुद्भवकारण हैं| शिव का अर्थ होता है कल्यान| अतः जो कल्यानकारी है वही शिव हैं, उही परमात्मा हैं| परमात्मा का कोई स्वरूप नहीं होता| वे शुन्य सामान हैं| रूद्र का अर्थ होता है शुन्य, स्वरूप का ना होना| अतः रूद्र ही परमेश्वर हैं| निराकार परमेश्वर समय, काल तथा कारण के अनुसार अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं| शिवपूराण के अनुसार शिव जी ने ही सृष्टी के संपादन के लिए स्वंय से शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति के एका से का विष्णू स्वरूप धारण हूआ| विष्णू से ब्रह्मा की उत्पत्ती हूई| ब्रह्मा ने सृजन, विष्णु ने सुपालन का कार्यभार ग्रहण किया| फिर सृष्टी के पूनरसृजन के हेतू विलय की आवश्यकता होने पर शिव ने ही महादेव रूप धारण कर विलय का कार्य अपने हाथों में लिया| विष्णुपूराण के अनुसार परमेश्‍वर ही ब्रह्मा बन कर सृष्टी की रचना करते हैं, वे ही विष्णू बन कर सृष्टी का सुपालन करते हैं, तथा आयू के शेष हो जाने पर वे ही सदाशिव बन कर संहार करते हैं| वास्तव में वे एक ही हैं तथा ये विभिन्न नाम किसी व्यक्ति सामान देवों के नही वरण उन पदों तथा उपाद्धीयों के हैं जिन्हे धारण करण ईश्‍वर अपना कार्य कर रहे होते हैं| यह ठीक उसी प्रकार है जैसे हम एक हैं पर कोई हमें पूत्र जानता है तो कोई पिता, कोई शिष्य जानता है तो कोई गूरु, तथा हम ही किसी के लिए मित्र होते हैं, किसी के लिए शत्रू | और अनेकों के लिए तो हम कूछ होते भी नहीं| पर इन सब के मध्य हम एक ही होते हैं| तो फिर विवाद कैसा? कौन ब्रह्मा, विष्णु, महेश? कौन शिव, कौन शक्ति? जब वे एक ही हैं तो क्या अंतर पडता है यदि कोई उन्हे विष्णु के नाम से जाने तो कोई शिव के नाम से जाने तथा कोई शक्ति के नाम से? ईश्वर एक हैं| वे तीन त्रिदेवों अथवा ३३ करोड देवताओं में ही नहीं, अपितू संपूर्ण सृष्टी के कण कण में व्याप्‍त हैं|वे हमारे नश्‍‍वर शरीर के अन्दर की आत्मा हैं| वे हमारे सदविचार हैं| ब्रह्मा कर्ता हैं, विष्णू कार्य तथा कार्यफल हैं, शिव कारण हैं| त्रिदेव एक वृक्ष के सामन हैं| ब्रह्म उस वृक्ष के तना हैं, विष्णु उस वृक्ष के विस्तार है, डालिया, पत्ते, पूष्प तथा फल सामान हैं| सदाशिव उस वृक्ष के जड हैं| शिव जी की आरती इसी तत्व को संबोधित है| वास्तव में ये त्रिगूण शिव जी की आरती है जिसमे स्पष्ट शब्दों में उलेखित है ... ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका|प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका||



संकलित

30 August 2015

धर्म क्षेत्र

  1. इस जन्‍म में कम से कम इतना काम कर लेना चाहिेये, कि मनुष्‍य-जन्‍म से नीची योनि में जन्‍म न लेना पड़े।
  2. अपने घर में अन्न शुद्ध कमाई का होना चाहिये।
  3. धार्मिक पुस्‍तके घर में पड़े पड़े भी कल्‍याण करती है।
  4. स्‍वार्थ और अभिमान का त्‍याग करके अभाग्रस्‍तो को अन्‍न, जल, वस्‍त्रादि देना परम सेवा है।
  5. सत्‍पुरूष ही सत्‍प्रेम कर सकता है।

24 August 2015

श्यामा का दर्द यह शुभ दिन बार बार आये

श्‍यामा को फेफडे का क्षय नही था, बल्कि उसे अंत्र-छय था। जिसे डाक्‍टर लोग छ: वर्ष नही पहचान सके थे, और जब उनहोने उसे पहचाना तो वह लाइलाज हो चुका था। अपरेशन थिएटर में जाते वक्‍त वह जिस प्रकार मुस्‍काराई थी, उसने मुझे उसकी सुहागरात की मुस्कान याद दिला दी थी। वह बच्‍चों की सी मुस्‍कान कर चेहरा मेरे हृदय पर अंकित कर विदा हुई थी। मृत्‍यु शय्या पर वह हँसती रही कहीं मै यह न समझू कि उसे मने में कष्‍ट हो रहा है।
मृत्‍यु के एक दिन पूर्व उसने मेरी आँखों में आँखे डाल कर पूछा, “मै मर जाऊँगी तो तुम बहुत दुखी होगे ?” मै चुप रहा। उसने कहा, “मेरे मरने के बाद बहुत दुखी होना तो शादी कर लेना”। और ठीक मृत्‍यु के दिन उसेने मुझसे कहा था, “ मुझ पर कोई ऐसी रचना करना जिससे, जिससे दुनिया के अंदर मेरी याद रहे।“ कहा था इसलिये कि वह न रहे तो मुझे अपने सूनेपन, अपने खालीपन को भुलाने के लिये कुछ रहे। सृजन से अधिक डुबाने वाला कुछ नही।
संकीर्ण, कट्टरपंथी और प्राय: ईष्‍या द्वेष प्रेरित आलोचकों के आरोप मुझे पत्‍युत्‍र में गीत अथवा कविता लिखने को उकसा जाते थे। ‘कवि की वासना’, ‘कवि की निराशा’, ‘कवि का उपहास’ और ‘पथभ्रष्‍ट’ श्‍यामा की रोग शैय्या के निकट लिखे गये थे। कवि का गीत, लहरों का निमंत्रण और मांझ़ी आदि भी उसी समय की है। श्‍यामा की देहावसान के बाद इन सब कविताओं का संग्रह “मधुकलश” नाम से प्रकाशित हुआ जिसे मैने श्‍यामा की स्‍मृति मे विश्‍व वृक्षकी डाल से बांध दिया, जैसे मृतकों के लिये घंट बांधा जाता है। 27 नवम्‍बर को जिस दिन श्‍यामा का दसवां था उसी दिन मेरी 29वीं वर्षगाठ थी, तार से कई बधाई संदेश मिले ‘यह शुभ दिन बार-बार आये’। समय के इस व्‍यंग पर मुस्काराने के अतिरिक्‍त और क्‍या किया जा सकता था।?