11 August 2008

कल का बहता लहूँ और आज का उठता धुआँ

भारत की वर्तमान परिदृश्‍य को देख कर लगता है कि देश को आजादी की कोई जरूरत नही थी। आज देश जिस प्रकार पश्चात सभ्‍यता के सिकंजे से जकड़ी हुई है। देश उस समय अंग्रेजो का प्रत्‍यक्ष शारीरिक गुलाम था किन्‍तु आज स्थिति यह है कि हमारे देश की पीढ़ी शारीरिक के साथ साथ मानसिक रूप से गुलाम हो गई है। आज कुछ भी नही बदला है किन्‍तु वातावरण बदल गया था तब आजादी के लिये लड़ रहे थे आज गुलामी के शिकजे में खुद गिरफ्त होते जा रहे है। 

तब का दौर था के भगत सिंह के दिल में देश के लिये कुछ करने का जज्‍बा था किन्‍तु आज के दौर मे इसी उम्र का युवा भगत सिंह पर बनी फिल्‍म रंग दे बंसती को की तारीफ करता है किन्‍तु भगत सिंह जैसा जज्‍बा दिखाने में झिझकता है, और कुछ करने से पहले अपने अगर बगल देखता है कि कोई देख तो नही रहा है। आज हमारे लिये शहीद के मायने 15 अगस्‍त और 26 जनवरी को पुष्‍पाजंली अर्पित करने तक ही रह गई है। एक दिन हम इन्‍हे याद कर अपने कर्तव्‍यों से मुक्‍त हो जाते है। 

एक बहुत बड़ा प्रश्‍न यह उठता है कि आज देश के लिये जो शहीद हुये है उनके लिये ऑंसू बहाने का समय है ? कि उन शहीदों के सफनों के सपनो को साकार करने के लिये ऑंखों में देश के प्रति कर्तव्य पालन के लिये आँखों में अंगार सुलगाये रखने का समय है?  आज देश को अपनी सोच में परिवर्तन करने का समय है। हमारे शहीदों की सही श्रृंद्धाजली आँखो में पानी भरने से न होगी, सच्‍ची श्रृद्धाजंली तो तब होगी जब देश की तरफ शत्रु आँख उठा कर न देख पाये, जो आँख कभी उठे भी उसे दोबारा उठने लायक न छोड़ा जाये। 

आज के दौर हो सकता है कि गांधीवाद के रास्‍ते से शान्ति स्‍थापित की जा सकती है, किन्‍तु हमारी सरकार गांधीवाद की गांरटी लेने को तैयार नही है? जिस गांधीवाद के जरिये शान्ति का ढिड़ोरा पीटा जा रहा है। गांधीवाद प्रसंगगत ही ठीक लगता है इसकी वास्‍तविकता से कल्‍पना करना राई के पहाड़ बनाने के तुल्‍य होगा। राई का पहाड़ तभी सम्‍भव होगा जब कि बलिदान रूपी मूसर से उस बार कर उसकी गोलाई को नष्‍ट न किया जाये। 

जब किसी बात की शुरूवात होती है तो उसका अंत करना काफी कठिन होता है, देश की आजादी में सिर्फ गांधीवाद के ढकोले को श्रेय दिया जाता है। जबकि गाँधी जी की गांधी जी जिद्दी और तानाशाही प्रवृति के के कारण भगतसिंह, नेताजी और लौहपुरूष पटेल को किनारे रखा गया। गांधी जी की आपने आपको मसीहा साबित करने की नी‍ति का कारण था कि वे पाकिस्तान को बटवाने के समय ५५ करोड़ दिलाने के लिए उन्होंने अनशन किया, जबकि सब इसे देने के खिलाफ थे। १९४२ का सफल चल रहा आन्दोलन उन्होंने एक छोटी सी घटना के कारण वापस ले लिया, जबकि सभी ने ऐसा न करने की सलाह दी। और भी कई उदाहरण हैं, गाँधी जी सब जगह अपनी ही मर्जी चलाते थे। नही तो क्‍या जिस आजादी के लिये लाखो लोगों ने अपनी प्राण देने में नही हिचके, उन गांधी जी ने देश की आखंड़ता को ताक पर रखकर देश का बटवारा कर दिया। भले ही गांधीवाद को अपने प्राण प्‍यारे थे किन्‍तु देश में वीर सावरकर और देशभक्‍त नाथूराम जैसे अनेको देशभक्‍त देश की अखंड़ता के लिये संषर्घ करने को तैयार थे किन्‍तु गांधी जी की नेहरू को प्रधानमंत्री रूप में देखने की लालसा ही भारत विभाजन का कारण बनी। गांधी जी को तत्‍कालीन हिंसा तो दिखी, किन्‍तु उन्‍होने नेहरूवाद की पट्टी से उनकी आँखे बाद थी जिसका कारण यह था कि आज तक भारत ने इनते प्राणों का आंतकवाद की आग में प्राण गवा दिये जितनी की कल्‍पना गांधी जी को न रही होगी। 
हमने वीरों के बलिदानों से आजादी तो प्राप्‍त की किन्‍तु तत्‍कालीन नेताओं ने अपनी माहत्‍वकांक्षाओं की पूर्ति का साधन आजादी को मान लिया था, आजादी मिलते ही देश का नेतृत्‍व ऐसे हाथों में चला गया जिसने जीवन भर विलासिता का जीवन ही जिया, उसे आजादी और अखंडता से क्‍या मतलब था ? आज भारत देश की सबसे बड़ी कमजोरी उसका कमजोर नेतृत्‍व था। हम उस प्रधानमंत्री से क्‍या आस लगा सकते है जो पर स्‍त्री एडविना के प्रेम का दीवना था। एक तरफ भगत सिंह जैसे देशभक्त ने आजादी को अपनी दुल्‍हन माना था वही नेहरू को दूसरे की मेहरिया का रखैला बनने में आंनद था। हम किसी विलासित व्‍यक्ति से और अपेक्षा क्‍या कर सकते है? अगर भारत अंग्रेजों का गुलाम था तो नेहरू एक अंग्रेज स्त्री का। और एक विदेशी स्त्री के गुलाम व्यक्ति से हम अपेक्षा ही क्‍या कर सकते है ? सभी को पता है कि भारत विभाजन में सबसे महत्‍वपूर्ण कड़ी माउंटबेटन थे और ये उसी एडबिना के पति थे। भारत विभाजन की के परिपेक्ष में नेहरू-एडविना-माउंटबेटन की केमेस्‍ट्री का खुलासा होना चाहिये था किन्‍तु हमारा तंत्र उन्‍ही के हाथो में रहा जो अपराधी थे। जिस भारत की अंखड़ता को 2000 साल के आक्रमणकारी नही नष्‍ट कर पाये, कुछ चाटुकारों ने मिलकर नष्‍ट कर दिया। 
सही है कि कलयुग आ गया है, कहावत है जिसकी लाठी उसी की भैंस होती है। हमारी शिक्षा व्‍यवस्‍था को अंग्रेजी शासन में इतना तहस नहस नही किया गया जितना की स्‍वतंत्र भारत की प्राथमिक सरकार ने किया। हमारे इतिहास में तिलक, सुभाष को बंद दरवाजे में डाल दिया गया, बचे तो सिर्फ गांधी और गांधी। गांधी जी के सम्‍मान में 2 अक्‍टूबर की राष्‍ट्रीय अवकाश के मायने को स्‍पष्‍ट किया जाना चाहिये। गांधी व्‍यक्ति का आगमन 1915 में हुआ, क्‍या इससे पहले का आन्‍दोलन नही हुआ? गाधी नेहरू की आड़ में बहुत सम्‍माननीय राष्‍ट्रभक्‍तों को किनारे का रास्‍ता दिखा दिया गया। नेहरू-गांधी परिवार का इतिहास रहा है कि वह वह अपने हितों को साधने के लिये किसी भी नेता को हासिये पर डालते रहे है। अतीत से वर्तमान तक की गांधी परिवार को देखे तो पायेगे कि जो काम आजादी के पहले सुभाष बाबू और सरदार पटेल के साथ गाधी और नेहरू के उद्भव के लिये किया गया वही काम इदिरा के लिये लालबहादुर शास्त्री के साथ तथा वर्तमान में सोनिया-राहुल के लिये नरसिह्मा राव और सीता राम केसरी के साथ किया और अभी भी कितनों के साथ किया जा रहा है। यह देश की आड़ में व्‍यक्तिगत हित साधना नही तो और क्या है? 
आज भारत की तकदीर बदलनी है तो हमें व्‍यक्तिवाद को समाप्‍त करना होगा, भारत के महापुरूषों का अपमान करके कभी भी भारत की उन्‍नति के मार्ग को नही बनाया जा सकता है। बड़े शर्म की बात है कि हमारे देश की सर्वोच्‍च प्रशासनिक परीक्षा में भगत सिंह का आतंकवादी बताया जाता है। जिस देश की शिक्षा प्रणाली से बच्‍चों को भगत सिंह से दूर रखने का प्रयास किया जा रहा है। वहॉं पर गांधीवाद नाम का अनर्गल प्रलाप ही किया जा सकता है। गांधीवाद की प्रशासंगिकता का समझना होगा कि कहाँ इसका उपयोग किया जायेगा। किसी दुश्‍मन देश के साथ गांधीवाद के जरिये कोई मसला नही हल किया जा सकता है, कम से कम पाकिस्‍तान और चीन के साथ तो कभी भी नही। 
बातों को कहना जिनता आसान होता है करना उतना ही कठिन, हृदय में स्‍वतंत्र भारत को शवशैया पर देखकर दुख होता है कि आजादी के 70 सालों में ही वह दम तोड़ने लगा है। आज हमें अपनी आजादी के मायनों के बारें में सोचना होगा। हम विश्व गुरू कहालाते थे कि आज हम अच्‍छे शिष्‍य भी नही बन पा रहे है। नेताजी, भगतसिंह ने ऐसी आजादी की कल्‍पना नही की होगी जिसमें जिसमें भ्रष्‍टाचार, वैमस्‍य और रिश्वतखोरी हो। आज देश की आजादी के लिये लाखों सेनानियों की रक्‍त कुर्बानियों को आज की युवा पीढ़ी सिगरेट के धुयें में उड़ाती चले जा रही है। 

2 comments:

Udan Tashtari said...

बढ़िया आलेख..आभार.

MEDIA GURU said...

bahut sundar. dhanyvad