आज भी मुझे अपना वो बचपन याद आता है,
खेलते थे जहाँ क्रिकेट, वो आँगन याद आता है..
बचपन के उन यारों को मैं भूला नहीं,
ये सावन के बाद पेड़ों से हट जाने वाला झूला नहीं...
नए खिलोने देख कर, पुराने भूलना याद आता है,
माँ कि लोरियां सुनके सो जाना याद आता है..
वो नानी कि परियों की कहानी मैं अभी भूला नहीं,
भोर में पंछियों का वो चहचहाना याद आता है..
वो शरारतों के बाद, डर जाना याद आता है,
माँ के पहलू में फिर, छुप जाना याद आता है..
वो आँगन की मिटटी की खुशबू अभी भूला नहीं,
ऐसा तो कोई नहीं, जो यादों में झूला नहीं..
वो छोटी छोटी बात पर, रूठ जाना याद आता है,
माँ का तब प्यार से, वो मानना याद आता है...
पापा की प्यार भरी मार अभी भूला नहीं,
आंसुओं में तब गीला होना याद आता है..
बात बात में दोस्तों से हुई लड़ाई याद है मुझे,
फिर ये सब भूल कर ली हर अंगड़ाई याद है मुझे..
वो बचपन की गलियों का हर तराना याद आता है,
दोस्ती का, नाराज़गी का हर फ़साना याद आता है....
6 comments:
बढ़िया है...याद करते रहना चाहिये बचपन भी.
रीतेश जी बचपन को याद करना अपने आपमे एक सुखद एहसास होता है, सुभद्रा कुमारी चौहान की पक्ति मै बचपन को भुला रही थी आज एक कालजयी रचना है।
आपकी कविता वाकई बचपन की याद दिला देती है।
bahut kub
बात बात में दोस्तों से हुई लड़ाई याद है मुझे,
फिर ये सब भूल कर ली हर अंगड़ाई याद है मुझे..
वो बचपन की गलियों का हर तराना याद आता है,
दोस्ती का, नाराज़गी का हर फ़साना याद आता है....
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
आपेन तो हमें हमारा बचपन याद करवा दिया
धन्यावाद
ham bachapan nahi bool sakte hain.
achhi rachna hai.
मेरा सप्रेम धन्यवाद आप सबों को, जिन्होंने मेरी कृति को सराहा ....
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