हिन्दू विवाह एक संस्कार हुआ करता था किन्तु भारत सरकार के द्वारा हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार अब न यह संस्कार है और न ही संविदा। अपितु यह दोनो का समन्वय हो गया है। भारत सरकार के इस अधिनियम से निश्चित रूप से हिन्दू भावाओं को आधात पहुँचा है क्योकि यह हिन्दू धर्म की मूल भावानाओं का अतिक्रमण करता है तथा संविधान की मूल भावनाओं का उल्लंघन करता है।
हिन्दू विवाह जहॉ जन्मजन्मान्तर का संबध माना जाता था इसे एक खेल का रूप दे दिया गया है तथा हिन्दुओं की प्रचीन पद्धति को न्यायालय को मुहाने पर खड़ा कर दिया गया, जिसे परमात्मा भी भेद नही सकते थे। महाभारत में स्त्री पुरूष का अर्ध भाग है तथा पुरूष बिना स्त्री के पूर्णत: प्राप्त नही कर सकता है। धर्म के लिये पुरूष तथा उपयोगी होता है जबकि उसके साथ उसकी धर्म पत्नी साथ हो, अन्यथा पुरूष कितना भी शक्तिशाली क्यो न हो वह धर्मिक आयोजनों का पात्र नही हो सकता है।
रामायण में भगवान राम भी सीता आभाव में धर्मिक आयोजन के योग्य नही हुऐ थे। रामायण कहती है कि पत्नी को पति की आत्मा का स्वरूप माना गया है। पति अपनी पत्नि भरणपोषण कर्ता तथा रक्षक है।
हिन्दू विवाह एक ऐसा बंधन है जिसमें जो शरीर एकनिष्ठ हो जाते है, किन्तु वर्तमान कानून हिन्दू विवाह की ऐसी तैसी कर दिया है। हिन्दू विवाह को संस्कार से ज्यादा संविदात्मक रूप प्रदान कर दिया है जो हिन्दू विवाह के स्वरूप को नष्ट करता है। हिन्दू विवाह में कन्यादान पिता के रूप में दिया गया सर्वोच्च दान होता है इसके जैसा कोई अन्य दान नही है।
विवाह के पुश्चात एक युवक और एक युवती अपना वर्तमान अस्तित्व को छोड़कर नर और नारी को ग्रहण करते है। हिन्दू विवाह एक बंधन है न की अनुबंध, विवाह वह पारलौकिक गांठ है जो जीवन ही नही मृत्यु पर्यन्त ईश्वर भी नही मिटा सकता है किन्तु भारत के कुछ बुद्धि जीवियों ने हिन्दू विवाह की रेड़ मार कर रख दी है इसको जितना पतित कर सकते थे करने की कोशिश की है। भगवान मनु कहते है कि पति और पत्नि का मिलन जीवन का नही अपितु मृत्यु के पश्चात अन्य जन्मों में भी य सम्बन्ध बरकरार रहता है। हिन्दू विवाह पद्धिति में तलाक और Divorce शब्द का उल्लेख नही मिलता है जहॉं तक विवाह विच्छेन का सम्बन्ध है तो उसे शब्द संधि द्वारा बनाया गया। अत: हिन्दु विवाह अपने आप में कभी खत्म होने वाला सम्बन्ध नही है।
वयस्कता प्राप्त करने पर,संतानों को मनमानी करने का फैसला निश्चित रूप से हिन्दू ही नही अपितु पूर भरतीय समाज के लिये गलत था। क्या मात्र 18 वर्ष की सीमा पार करने पर ही पिछले 18 वर्षो के संबध की तिलाजंली देने के लिये पर्याप्त है? है
1914 के गोपाल कृष्ण बनाम वैंकटसर में मद्रान उच्च न्यायाल ने हिन्दु विवाह को स्पष्ट करते हुये कहा कि हिन्दू विधि में विवाह को उन दस संस्कारों में एक प्रधान संस्कार माना गया है जो शरीर को उसके वंशानुगत दोषों से मुक्त करता है।
इस प्रकार हम देखेगें तो पायेगें कि हिन्दू विवाह का उद्देश्य न तो शारीरिक काम वासना को तृप्त करना है वरन धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति करना है। आज हिन्दू विवाह को कुछ अधिनियमों ने संविदात्मक रूप प्रदान कर दिया है तो हिन्दू विवाह के उद्देश्यों को छति पहुँचाता है।
अभी बातें खत्म नही हुई और बहुत कुछ लिखना और कहना बाकी है। समय मिलने पर इस संदर्भ में बाते रखूँगा।
1 comment:
aap sahi kah rahe hai.sanskar aadhunikata k aage marte ja rahe hai. is or sarkar ko dhyan dena chahiye.
Post a Comment