एक बार की बात है, विवेकानन्द के पिता चल बसे, तो घर में बहुत गरीबी थी
और घर मे भोजन भी नही था कि माँ और बेटा दोनों भोजन कर पाएँ. तो विवेकानन्द
अपनी माँ को कह कर की आज किस मित्र के घर निमंत्रण है, मै वहाँ जाता हूँ -
कोई निमंत्रण नही होता था, कोई मित्र भी नही था - सड़को पर चक्कर लगा कर
घर वापस लौट आते थे. अन्यथा भोजन इतना कम है की माँ उनको खिला देगी और ख़ुद
भूखी रहेगी. तो भूखे घर लौट आते. हँसते हुए आते की आज तो बहुत गजब का खाना
मिला, क्या चीजे बनी थी!
रामकृष्ण
को पता चला तो उन्होंने कहा की तू कैसा पागल है, भगवन से क्यों नही कह
देता! सब पूरा हो जाऐगा . तो विवेकानन्द ने कहा की खाने-पीने की बात भगवन
से चलाऊँ तो जरा बहुत साधारण बात हो जायेगी. फिर भी रामकृष्ण ने कहा, तूं
एक दफा कह कर देख! तो विवेकानन्द को भीतर भेजा. घंटा बीता, डेढ़ घंटा बीता,
वे मन्दिर से बाहर आए, बड़े आन्दित थे, नाचते हुए बाहर निकले थे। रामकृष्ण
ने कहा, मिल गया है? मांग लिया न? विवेकनद ने कहा, क्या? रामकृष्ण ने
कहा, तुझे मैंने कहा था की मांग अपनी रख देना। तू इतना आन्दित क्यों आ रहा
है ? विवेकानन्द ने कहा, वह तो मैं भूल ही गया।
ऐसा कई बार हुआ। रामकृष्ण भेजते और विवेकानन्द वहाँ से बाहर आते और वे पूछते तो वे कहते, क्या? तो रामकृष्ण ने कहा, तूं पागल तो नही है! क्योंकि भीतर जब जाता है तो पक्का वचन देकर जाता है. विवेकानन्द कहते की जब भीतर जाता हूँ, तो परमात्मा से भी मांगूं, यह तो ख्याल ही नही रह जाता. देने का मन हो जाता है की अपने को दे दूँ. और जब अपने को देता हूँ तो इतना आनंद, इतना आनंद की फिर कैसी भूख, कैसी प्यास, कौन मांगने वाला, कौन याचक ?
ऐसा कई बार हुआ। रामकृष्ण भेजते और विवेकानन्द वहाँ से बाहर आते और वे पूछते तो वे कहते, क्या? तो रामकृष्ण ने कहा, तूं पागल तो नही है! क्योंकि भीतर जब जाता है तो पक्का वचन देकर जाता है. विवेकानन्द कहते की जब भीतर जाता हूँ, तो परमात्मा से भी मांगूं, यह तो ख्याल ही नही रह जाता. देने का मन हो जाता है की अपने को दे दूँ. और जब अपने को देता हूँ तो इतना आनंद, इतना आनंद की फिर कैसी भूख, कैसी प्यास, कौन मांगने वाला, कौन याचक ?
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