पाचं
सौ साल पहले हमारे देश मे धर्म की बड़ी हानि हो गई थी। राजा निर्दयी बन
बैठै थे। प्रजा को दुख देते थे। लोगो के दिलों मे एक-दूसरे के लिए प्यार
नही रहा था। जहां प्यार नहीं वहां धर्म नही। जहां धर्म नही, वहां सुख नही।
इसलिए सब लोग दुखी थे।
ऐसे समय मे एक बालक पैदा हुआ। यह बालक बड़ा होकर
गुरू नानक कहलाया। गुरू नानक ने लोगो का धर्म के रास्ते पर डाला, धर्म को
कोरा दिखावा करनेवालों को लज्जित किया और कठोर बर्ताव करनेवाले राजाओ से
प्रजा को ऐसे बचाया, जैसे बाप अपने बेटों को बचाता है।
उस जमाने मे
दिल्ली मे लोदी-वंश का एक राजा राज करता था, जिसे लोग सुलतान कहते थे। इस
सुलतान के अधीन कई राजे थे। इनमे से एक पंजाब पर राज करता थां लोग उसे नवाब
कहते थे। वह नवाब भी लोदी घराने का ही था। वह सुलतानपुर नामक अपनी राजधानी
मे रहता था। इस नवाब के हाथ मे पंजाब मे कई-एक छोटे-बड़े राजे थे। लाहौर
से कोई चालीस मील रावी के किनारे, इसी तरह का पच्चीस गांवों का एक राजा
थां। इस राजा का नाम रायबुलार था। यह रावी से थोड़ी दूर, तलवंडी नामक गांव
मे रहता था। इसी गांव मे उसका एक हाकिम भी रहता था। इदस हाकिम का पूरा नाम
मेहता कल्याणदास था, पर लोग उसे मेहता कालू या मेहता या सिर्फ कालू कहकर
पुकारते थे। इसी मेहता के घर १५ अप्रैल, सन १४६९ के दिन नानक का जन्म हुआ।
जैसे-जैसे
बालक बड़ा होता गया, लोगो को पता लगता गया कि इसकी कई बातें दूसरे बालकों
से निराली है। वह बड़ा हंसमुख था। कहते है, पैदा होते ही हंसने लगा था। जब
पढने लगा तो सब-कुछ इतनी जल्दी सीख गया, मानों उसने पहले ही से सब-कुछ
पढ-लिख रखा हो! फिर एक संस्कृत पंडित के पास पढ़ने लगा। उस पंडित से भी इस
अनोखे विद्यार्थी ने बड़ी जल्दी संस्कृत सीख ली। फिर भी सीखने की उसकी भूख न
मिटी। बाद मे यह एक विद्वान मुल्ला से फारसी पढने लगा। वहां भी उसने बड़ी
योग्यता दिखाई।
जब बालक नानक किसी आते-जाते साधु-संत को देखता तो उसकी आंखे उसे एक टक निहारती रह जाती। वह उसके पीछें-पींछें दूर तक चला जाता।
एक
बार भैसे चराते-चराते यह बालक एक पेड़ की छाया मे सो गया। उसी समय एक सांप
आया। उसने काटने के लिए अपना फन उठाया, पर वह उठा ही रह गया। आखिर वह जिस
रास्ते आया था, उसी रास्ते वापस चला गया। संयोग से रायबुलार उस समय पास से
जा रहा था। उसने यह सब देखा। इससे उसके मन मे इस बालक के लिए आदर के भाव
पैदा हो गए। वहसमझने लगा कि इस बालक मे कोई दैवी ज्योति है।
सोलह बरस के होते-होते नानक ने अपने संगियों का साथ छोड़ दिया।कई-कई दिन जंगलों मे घूमते रहते। भूख-प्यास की परवा न करते। घर मे गुम-सुम रहते। पिता को लगा, बेटा बीमार है। उन्होने एक हकीम को बुलाया, पर हकीम के करने को वहां था क्या?
कुछ दिनों बाद यह दशा बदल गई। उदासी की जो घटांएं छा गई थी, वे छितरा गई। पिता प्रसन्न हुए कि बेटा अब भला-चंगा हो गया। उन्होने सोचा कि अब इसे किसी रोजगार के लिए कुछ काम-काज सीख जाय तो फिर इसका विवाह कर दें।
यह सोचकर उन्होने नानक को कुछ रूपए दिये ओर कहा कि जाओं, कोई लाभ का सौदा करों। एक समझदार आदमी को उनके साथ कर दिया।
तलवंडी से कुछ दूर जंगल में दोनो जने चले जा रहे थे कि कुछ साधु-संत मिले। नानक को साधुओं से लगाव तो था ही। वह उनसे बात-चीत करने लगे। बातों-बातों मे मालूम हुआ कि ये साधु दस-बारह दिनो से भूखे है। साधुओं के मना करने और साथी के रोकने पर भी नानक ने बीस रूपए साधुओ के खाने-पीने मे खर्च कर दिये। उन्होने सोचा कि भूखों का भोजन कराने से बढ़कर ज्यादा लाभ की बात और क्या हो सकती है! यह सौदा ही सच्चा सौदा है।
सारे रूपए इस तरह खर्च करके दोनो साथी घर की ओर चल पड़े। गांव के पास आकर नानक पिता के डर से घर नही गए और गांव के बाहर ही रात काट दी। पर साथी ने दूसरे दिन उनके पिता को सारी बात कह सुनाई। पिता के क्रोध का ठिकाना न रहा। वह उसी समय भागे-भागे बेटे के खबर लेने चले।
उधर नानक की बड़ी बहन नानकी को पता लगा कि पिता गुस्से मे भरे हुए भाई के पास जा रहे है। वह भी पिता के पीछे चल पड़ी।वहां जाकर वह पिटते हुए भाई से लिपट गई और इस प्रकार उसे बचाने मे उसने बड़ी मदद की।
सोलह बरस के होते-होते नानक ने अपने संगियों का साथ छोड़ दिया।कई-कई दिन जंगलों मे घूमते रहते। भूख-प्यास की परवा न करते। घर मे गुम-सुम रहते। पिता को लगा, बेटा बीमार है। उन्होने एक हकीम को बुलाया, पर हकीम के करने को वहां था क्या?
कुछ दिनों बाद यह दशा बदल गई। उदासी की जो घटांएं छा गई थी, वे छितरा गई। पिता प्रसन्न हुए कि बेटा अब भला-चंगा हो गया। उन्होने सोचा कि अब इसे किसी रोजगार के लिए कुछ काम-काज सीख जाय तो फिर इसका विवाह कर दें।
यह सोचकर उन्होने नानक को कुछ रूपए दिये ओर कहा कि जाओं, कोई लाभ का सौदा करों। एक समझदार आदमी को उनके साथ कर दिया।
तलवंडी से कुछ दूर जंगल में दोनो जने चले जा रहे थे कि कुछ साधु-संत मिले। नानक को साधुओं से लगाव तो था ही। वह उनसे बात-चीत करने लगे। बातों-बातों मे मालूम हुआ कि ये साधु दस-बारह दिनो से भूखे है। साधुओं के मना करने और साथी के रोकने पर भी नानक ने बीस रूपए साधुओ के खाने-पीने मे खर्च कर दिये। उन्होने सोचा कि भूखों का भोजन कराने से बढ़कर ज्यादा लाभ की बात और क्या हो सकती है! यह सौदा ही सच्चा सौदा है।
सारे रूपए इस तरह खर्च करके दोनो साथी घर की ओर चल पड़े। गांव के पास आकर नानक पिता के डर से घर नही गए और गांव के बाहर ही रात काट दी। पर साथी ने दूसरे दिन उनके पिता को सारी बात कह सुनाई। पिता के क्रोध का ठिकाना न रहा। वह उसी समय भागे-भागे बेटे के खबर लेने चले।
उधर नानक की बड़ी बहन नानकी को पता लगा कि पिता गुस्से मे भरे हुए भाई के पास जा रहे है। वह भी पिता के पीछे चल पड़ी।वहां जाकर वह पिटते हुए भाई से लिपट गई और इस प्रकार उसे बचाने मे उसने बड़ी मदद की।
एक
दिन नानक कुएं से नहाकर आ रहे थे कि उन्हे एक साधु मिला। बेचारे का बुरा
हाल था। नानक का दिल दहल गया। उनके पास जो कुछ था, उसे साधु को दे दिया।
जरा आगे गए तो अपने हाथ की अंगूठी पर उनकी निगाह पड़ी। फिर पीछे को दौड़े
और साधु को अवाज देकर वह अंगूठी भी उसे दे दी।
पिता को मालूम हुआ, पर उन्होने बेटे से कुछ न कहा। वह गहरी चिंता मे डूब गए। एक दिन नानकी अपने पिता के घर आई। उसने पिता को चिंता मे डूबे देखा। पिता को भले ही बेटा नालायक दीख पड़े, पर बहनों के लिए तो भाई कभी नालायक नही होता। उसने पिता से हा, "अगर आप आज्ञा दें तो मै भाई को अपने साथ सुलतानपुर ले ला जाऊ। वहां कोई-न-कोई काम-काज मिल ही जायेगा।"
पिता मान गए और नानकी अपने भाई को खुशी-खुशी सुलतानपुर ले आई। वहां के एक बड़े हाकिम की मदद से नानक को नवाब के भंडार मे जगह मिल गई।
उस समय लगान पैसों के रूप मे नही लिया जाता था, उसे अनाज के रूप मे वसूल किया जाता था। जब फसलें तैयार होती थी तो राजा हर किसान की फसल मे से अपना हिस्सा वसूल करकें भंडार मे जमा कर लेता था। इसी में से सिपाहियों और हाकिमो को जरूरत के हिसाब से अनाज दे दिया जाता था। भंडार इसका पूरा-पूरा हिसाब रखता था और राजा के पूछने पर पूरा-पूरा हिसाब बताता था। यही काम नानक को मिला थां।
इसके कुछ दिन बाद नानक का विवाह हो गया। उस समय उनकी उमर उन्नीस साल की थी। नानक के पिता ने उनकी देखभाल के लिए अपने गांव से मरदाना नामक एक सेवक भेज दिया। इन दोनो का एक विचित्र संयोग था। जब तक नानक जीवित रहे, वह ओर मरदाना एक सीप के दो मोतियों की तरह रहे।
नानक के दो पुत्र हुए। बड़े पुत्र श्रीचंद संन १४९४ में पैदा हुएं। बड़े होकर यह ऊंचे महात्मा हुए। यह उत्तरी भारत के कोन-कोने मे घूमते रहे। इनकी उमर इतनी लंबी थी कि लोग समझने लगे थे कि वह जबतक चाहें, जिंदा रह सकते है। वह जगह-जगह जाकर दीन-दुखियों को धीरज बंधाते थे।
पिता को मालूम हुआ, पर उन्होने बेटे से कुछ न कहा। वह गहरी चिंता मे डूब गए। एक दिन नानकी अपने पिता के घर आई। उसने पिता को चिंता मे डूबे देखा। पिता को भले ही बेटा नालायक दीख पड़े, पर बहनों के लिए तो भाई कभी नालायक नही होता। उसने पिता से हा, "अगर आप आज्ञा दें तो मै भाई को अपने साथ सुलतानपुर ले ला जाऊ। वहां कोई-न-कोई काम-काज मिल ही जायेगा।"
पिता मान गए और नानकी अपने भाई को खुशी-खुशी सुलतानपुर ले आई। वहां के एक बड़े हाकिम की मदद से नानक को नवाब के भंडार मे जगह मिल गई।
उस समय लगान पैसों के रूप मे नही लिया जाता था, उसे अनाज के रूप मे वसूल किया जाता था। जब फसलें तैयार होती थी तो राजा हर किसान की फसल मे से अपना हिस्सा वसूल करकें भंडार मे जमा कर लेता था। इसी में से सिपाहियों और हाकिमो को जरूरत के हिसाब से अनाज दे दिया जाता था। भंडार इसका पूरा-पूरा हिसाब रखता था और राजा के पूछने पर पूरा-पूरा हिसाब बताता था। यही काम नानक को मिला थां।
इसके कुछ दिन बाद नानक का विवाह हो गया। उस समय उनकी उमर उन्नीस साल की थी। नानक के पिता ने उनकी देखभाल के लिए अपने गांव से मरदाना नामक एक सेवक भेज दिया। इन दोनो का एक विचित्र संयोग था। जब तक नानक जीवित रहे, वह ओर मरदाना एक सीप के दो मोतियों की तरह रहे।
नानक के दो पुत्र हुए। बड़े पुत्र श्रीचंद संन १४९४ में पैदा हुएं। बड़े होकर यह ऊंचे महात्मा हुए। यह उत्तरी भारत के कोन-कोने मे घूमते रहे। इनकी उमर इतनी लंबी थी कि लोग समझने लगे थे कि वह जबतक चाहें, जिंदा रह सकते है। वह जगह-जगह जाकर दीन-दुखियों को धीरज बंधाते थे।
छोटे
पुत्र लछमीचंद सन १४९७ मे पैदा हुए। वह गृहस्थ थे। गुरू नानक की आत्मा के
मानों दो अंग थे-एक साधुओंवाला, दूसरा गृहस्थियों वाला। वे दोनो दो पुत्रों
के रूप मे पैदा हुए।
नानक का साधु-संतो से बहुत लगाव था। जो भी
साधु-महात्मा सुलतानपुर आता, उसका वह सत्संग करते, उसे अपने घर ठहराते और
सेवा करते। साधु-महात्मा देखते कि सुल्तानपुरमे उनका बड़ा मान है तो वे
उमड़-उमड़ कर आते ओर बहुत प्रसन्न होकर जाते। इन महात्माओं से नानक खूब
धर्म-चर्चाएं करते।
नानक बाल-बच्चों की गुजर-बसर करते थे और साधु-संतो
को भी अपने पास से खिलाते-पिलाते रहते थे। तनखा ज्यादा थी नही। इससे लोगों
को संदेह होने लगा कि आखिर उनका गुजारा कैसे चलता है। हो न हो, भंडार का
पैसा पेट मे जाता होगा। यह बात किसी ने जाकर नवाब के कान मे डाली। नवाब से
कहा, "अच्छा, यह बात!" बस उसने एकदम नानक को कैद करा लिया और भंडार के
हिसाब की जांच-पंडताल करवाई।
हिसाब देखा तो उलटे नानक का कुछ पैसा
निकलता था। चुगली खानेवाला बड़ा लज्जित हुआं नवाब भी शर्मिदा हुआं। नवाब ने
नानक से कहा, "आप फिर भंडार को संभाल ले!!" पर नानक का मन खटटा हो चुका
था। वह बहुत दुखी हुए। उनके भीतर से आवाज आई, "नानक, इस दुनिया को छोड़।"
भीतर की इस आवाज पर उन्होने दुनिया को छोड़ने का फैसला कर लिया। पर नानक ने
सोचा-नाते-रिश्तेदारों को बिना बतायें जाना ठीक नही। इसलिए उनहोने अपने
संबधियो को मन की बात बताई। सुनकर सब दुखी हुए। लछमीचंद का जन्म हाल मे हुआ
था। बच्चे की मां ने उन्हें बहुतेरा रोका, पर भीतर से जो आवाज आई थी, नानक
उसे अनसुनी न कर सके।
उन्होने देश-भर मे घूमते साधुओ से तरह-तरह की
ज्ञान की बाते सुनी थी, अब मन हुआ कि चलकर अपने-आप देखे। दुनिया मे बहुत-से
धर्म और जप-तप करने वाले है, उन्हे देखते, उनका सत्संग करते, चौबीस-पच्चीस
साल तक वह दुनिया-भर मे घूमते रहे।
पहले वह पंजाब गये और वहां के सारे
बड़े-बडे हिंदू-मुसलमान पीरों ओर फकीरों से मिले। उनसे प्रेम बढ़ाया।
मुसलमान पीरों से तो उनकी इतनी मित्रता हो गई कि बाद मे वे उनके साथ मक्का
गए।
नानक
ने पंजाब मे चार लंबी यात्राएं की। ये यात्राएं चार 'उदासियों के नाम से
प्रसिद्ध हैं। पहली उदासी पूरब की ओर , दूसरी दक्षिण की ओर, तीसरी उत्तर की
ओर और चौथी पश्चिम की ओर की। इन उदासियों में नानक ने लोगों के बहुत-से
भ्रम दूर किये, पर उनके दिल नहीं टूटने दिये। इसकी सुंदर मिसाल उन्होने
हरिद्वार मे दिखाई। वहां लोग पितरो का तर्पण करने के लिए उमड़-घुमड़कर
पहुंचे थे। वे पूरब की ओर मुंह करके दबादब पानी की अंजलियॉ भर-भरकर दे रहे
थे। नानक वहां पहुचकर पश्चिम की ओर पानी उलीचने लगें। कुछ लोग तो इस
मूर्खता-भ्ररी बात पर हंसने लगे।कुछ ने आंखे तरेरी। अंत मे किसी ने उनसे
पूछा, "ए साधु, तू यह क्या कर रहा है? पूरब के बजाय पश्चिम में पानी क्यों
उलीच रहा है?"
नानक ने उत्तर दिया, "मै पंजाब की अपनी खेती को पानी दे
रहा हूं।"सारे लोग इस बात पर हंस पड़े और कहने लगे, "इस प्रकार कहीं पंजाब
मे पानी पहुचं सकता है?" नानक ने कहा, "अगर तुम्हारा दिया हुआ पानी दूसरे
लोक मे पितरों तक पहुंच सकता है तो मेरा दिया हुआ पानी खेती में क्यो नहीं
पहुच सकता?"
पूरब की यात्रा के शुरू मे नानक दिल्ली पहुचे। उन्होने
प्रजा को राजाओं के अत्याचारों से बचाया। नानक को पता था कि दिल्ली का
सुलतान किसी हिंदू साधु-संत को देखकर चिढ़ता है और कई साधु-संतो को उसने
कैद कर रखाहै। फिर भी वह दिल्ली पहुचें। सुलतान ने इनको कैद कर लिया। जेल
मे उन्होने अपने साथी कैदियों के साथ हंस-हंसकर चक्कियां चलाई। सुलतान को
जब इसका पता लगा तो उसने सोचा-यह कैसा साधु है! कैद मे आप तो खुश है ही,
दूसरे कैदियों को भी, जो पहले खुश नही थे, इसने ,खुश बना दिया है। पंजाब के
मुसलमान फकीरों ने, जो नानक को जानते थे, सुलतान को समझाया। सुलतान ने
उन्हे कैद से छोड़ना मंजूर कर लिया, पर नानक ने कहा, "पहले मेरे दूसरे
साथियों को कैद से छोड़ो, तब मै जेल से निकलूंगा।" हारकर सुलतान को सारे
कैदियों को छोड़ना पड़ा।
पूरब की यात्रा करते हुए नानक दिल्ली से हजार
मील आगे जगन्नाथपुरी जा निकले। एक दिन पुरी के मंदिर के पुजारियों ने इनसे
कहा, आओं, हमारे साथ जगन्नाथजी की आरती करो।" पर नानक ने कहा, "जगन्नाथ-इस
जग के मालिक-की अपनी सारी सृष्टि ही आरती कर रही है। हम अपनी छोटी-सी थाली
मे दीपकों वाली आरती से उसे कैसे प्रसन्न कर सकते है?"
पुजारियों ने पूछा, "वह आरती कौन-सी है?"
नानक
ने बताया कि सारा आकाश उस भगवान, उस जगन्नाथ, की आरती का थाल है। उसमे
चॉँद और सूरज के दीप जगमगा रहे है। लाखों-करोड़ो तारे जड़े हुए मोतियों के
समान है। शीतल हवा धूप जला रही है। इस आरती से बढ़कर आरती हम क्या कर सकते
है?"
पुरी से नानक रूहेलखंड होकर पंजाब आये। वहां रूहेले पठानो ने
उन्हें पकड़कर दास बनाकर रख लिया। कई महीनों वहां रहने से उनका रूहेले
पठानो पर इतना असर हुआ कि उन्होने केवल नानक को ही नही बल्कि दूसरे दासों
को भी छोड़ दिया।
पूरब से आकर नानक कुछ समय पंजाब मे फिर घूमे। वहां से
कश्मीर चले गये। उत्तर की यह उनकी दूसरी यात्रा थी। वहां से कैलास होते हुए
नानक मानसरोवर पहुंचे। वहां योगियों और सिद्धों के साथ बातचीत हुई। इनमे
एक बड़े योगी भर्तृजी पर नानक की बातचीत का इतना असर पड़ा कि
वह बाद मे उनके पास करतारपुर आ गए।
मानसरोवर
से तिब्बत की सैर करते हुए वह फिर पंजाब आये। पंजाब आकर रावी के किनारे एक
नगर बसाया, जिसका नाम करतारपुर रखा। यहीं पर वह अपने स्त्री-पुत्र और
माता-पिता को ले आये। इसके बाद वह फिर दक्षिण की ओर लंबी यात्रा पर निकल
पड़े।
राजस्थान के नगरो की सैर करते हुए, महाराष्ट्र होते हुए नानक दक्षिण की ओर चले।
रास्ते
मे उन्हे ऐसे लोग मिले, जो आदमियों की बलि चढ़ाते थे। इन्होने नानक और
उनके साथियों को पकड़ लिया और बलि चढ़ाने लगे। पर नानक का रंग-ढ़ंग देखकर
उन्हें और उनके साथियों को उन्होने छोड़ दिया।
वहां से नानक लंका चले
गए। वहां के राजा ने उनका बड़ा आदर-सम्मान किया। लंका मे वह बहुत दिनों तक
रहे और जगह-जगह घूमे। वहां कई राजे थें। वे आपस मे लड़ते-झगड़ते रहते थे।
नानक ने उनमें सुलह करा दी।
नानक की पश्चिम की और आखिरी यात्रा मक्का की
थी। उनके कुछ मुसलमान मित्र वहां जा रहे थे, यह भी साथ हो लिये। यह उनकी
सबसे बड़ी यात्रा थी।
मक्का मे भी इन्होने बड़ा विनोद किया। वहां एक
बड़ा-सा काला पत्थर है, जिसको मुसलमान बहुत पवित्र मानते है। उसे काबाशरीफ
के नाम से पुकारते है और उसे भगवान का निवास-समझकर उसका आदर करते है। नानक
काबाशरीफ की ओर टांग पसार लेट गएं। एक काजी उस ओर से निकला। उसे नानक को
काबा की ओर टांगे फैलाकर सोना बहुत अखरा। उसने नानक को झकझोरा ओर कहा, "ओ
मुसाफिर, तू कौन है, जो अल्ला के घर की तरफ टांगे पसार कर पड़ा है? ऐसी
बेइज्जती तू क्यो कर रहा है?"
नानक
ने कहा, "ईश्वर के प्यारे, मै बेइज्जती नही करना चाहता हूं। तुम्ही मुझे
बताओं कि ईश्वर का घर किस तरफ नही है? मै उसी ओर अपनी टांगे कर लूं।" काजी
समझदार था, वह समझ गया।
मक्का से नानक के दूसरे साथी तो वापस आ गए, पर
नानक कई देशो मे घूमते बगदाद पहुचे। बगदाद मे आकर उन्होने लोगो का ध्यान
रोजमर्रा की बातों से हटाकर नई बातों की ओर खीचनें का अपना मजेदार तरीका
अपनाया। उन्होने बांग दी। बांग का पहला भाग तो मुसलमानों का था और पिछला
भाग अपना, यानी पंजाबी और संस्कृत का। यह नए ढंग का बांग सुनकर कई लोग तो
क्रोध से और कई इस विचार से कि देखे, यह कौन है, नानक के पास आ इकटठे हुए।
बस नानक को और क्या चाहिए थां! बातचीत शुरू हो गई और बातो-ही-बातों मे नानक
ने सबको मोह लिया।
बगदाद मे नानक कोई दो साल रहे होगें। वहां के
लोग उनको हिंद का पीर कहकर पुकारते थे। बगदाद के मुसलमान पीरों और फकीरों
का उनसे बहुत प्रेम बढ़ गया। नानक के अपने देश लौटने के बाद इनकी याद मे दो
स्थानों पर पत्थर भी लगवाए।
बगदाद से नानक काबुल पहुंचे। वहां बैठा
बाबर भारत पर चढ़ाई करने की तैयारियों कर रहा था। 'हिंद के पीर' नानक का
नाम अबतक काबुल में पहुंच चुका था। बाबर ने नानक को अपने पास बुलाया और
बड़े आदर से नानक के आगे शराब का प्याला पेश किया और पीने के लिए कहा। नानक
ने फौरन कहा कि हमने तो ऐसी शराब पी रखी है, जिसका नशा कभी उतरता ही नहीं।
यह शराब, जिसका नशा कुछ देर बाद उतर जाता है, हमारे किस काम की!
बाबर
यह सुनकर बहुत खुश हुआ। फिर उसने भारत के राज की बात की। नानक ने उससे
पठानों के प्रजा को दु:ख देने वाले राज की बात बताई। बोले, "भारत पर
तुम्हारा राज होगा, पर तुम्हारे बेटों और पोतों में यह राज तब-तक चलेगा,
जबतक वे प्रजा को दु:ख न देंगे।"
यात्रा के वापस घर आकर नानक ने फिर कोई
नई यात्रा नहीं की। हां, लोगों के भले के लिए, जहां जरूरत समझते, वहां
जरूर जाते। एक बार नानक ने सुना कि बाबर मार-काट करता हुआ भारत में आ गया
है। साठ साल की उमर में अपने पुराने साथी मरदाना को लेकर वे बाबर को इस
मारकाट से रोकने के लिए चल पड़े। बाबर की फौजों ने एमनाबाद पर धावा बोला ही
था कि नानक वहां पहुंच गए। उस शहर में बहुत से बेकसूर लोग मारे और अंधेर
मचाया। नानक का हृदय प्रजा का दु:ख देखकर बड़ा दुखी हुआ।
पकड़-धकड़
में हजारों बेकसूर लोगों के साथ नानक भी पकड़े गए। रोते-पीटते कैदियों में
नानक ने अपने प्यार और निडरता के जादू से ऐसी शांति पैदा कर दी कि वहां का
रंग ही बदल गया। मरदाना को कैद करनेवाले हाकिम ने यह देखकर बाबर के पास
खबर भेजी। बाबर ने झट नानक को बुलाया। उन्हें देखकर वह दंग रह गया, "ओह! यह
तो वही हिंद का पीर है!" नानक ने बाबर को खूब खरी-खोटी सुनाई। बाबर ने
बेगुनाह लोगों के मारे जाने पर बहुत पछतावा किया और सारे कैदी छोड़ दिये।
वापस
करतारपुर आकर नानक फिर बहुत कम बाहर गए। उनका नाम 'बाबा नानक' मशहूर हो
गया था और हर पंजाबी के दिल में बस गया था। जहां नानक जाते, दुनिया उनके
दर्शनों के लिए दौड़ पड़ती। करतारपुर पंजाबियों के लिए तीर्थ बन चुका था।
जो
लोग इस तीर्थ में आते, वे हैरान रह जाते। आनेवाले सोचते थे-इतने बड़े आदमी
को हम सुंदर गद्दी पर बैठे हुए देखेंगे। पर वहां आकर वे लोग नानक को खेतों
में और लंगर में काम करते देखते थे। लंगर भी उनका विचित्र था। उसमें सेवा
या खान-पान में ऊंच-नीच का कोई भेदभाव नहीं था। जात-पांत का भी कोई बंधन
नहीं था। उस युग में यह एक नई बात थी।
नानक पूरे पच्चीस साल तक पैदल ही
घूमे। इन पच्चीस सालों में उन्होंने लोगों के रीति-रिवाज देखे। कई तरह के
धर्म देखे, अनेक पीरों-फकीरों, जप-तप करनेवालों और बहुत-से विद्वानों से
बातचीत की। किसी के साथ भी वैर-विरोध न रखने वाले नानक ने सबकी बातों को
आदर के साथ सुना और सुनकर उनमें से सचाई को ग्रहण करने की कोशिश की।
जो
सचाई उन्होंने देखी, जो तजरबे उन्हें हुए, उस पर उन्होंने सोचा कि आगे
आनेवाले युग की भलाई के लिए कुछ लिख जाय। उन्होंने 'जपजी-साहब' लिखा। वह
अनोखो वाणी है। उसको जितना पढ़ें और उस पर जितना विचार करें, उतनी ही नई-नई
बातें मिलती हैं। किसी कवि ने सच ही लिखा है:
गुरु नानक की बात में, बात-बात में बात।
ज्यों मेंहदी के पात में, पात-पात में पात।।
नानक
सत्तर साल के हो चुके थे। उन्हें लगा कि उनका काम अब पूरा हो चुका है।
उनके बाद भी उनका काम चलता रहे, यह सोचकर उन्होंने १४ जून, १५३९ को अपने एक
सच्चे सेवक लहनाजी को 'अंगद' नाम रखकर अपनी गद्दी पर बिठाया। उसी साल २२
सितंबर के दिन वह इस दुनिया से चले गये।
शरीर छोड़ने के बाद उनकी याद में हिंदुओं ने एक समाधि बनाई और मुसलमानों ने एक कब्र। पर रावी नदी एक साल उन दोनों को बहालकर ले गई। ऐसा करके मानो परमात्मा ने भूले हुए लोगों को समझाया कि नानक तो मेरी ही निराकार ज्योति थी। यह निराकार ज्योति समाधियों और कब्रों में किस तरह कैद रह सकती है?
(यह
लेख संकलन मात्र है) - धर्म प्रचारार्थ इस लेख में मेरा कोई योगदान नही
है, आप इसको पढ़े और इसके मूल लेखक/लेखिका को अपना आशीर्वचन प्रदान करें।
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