एक भोर,
दूजी भोर,
तीजी भोर,
लगातार होती भोर.....
आज तक मेरे आँगन मी लगे बिही के पेड़ पर
बैठ कर कौए की
कोई कांव-कांव नहीं !
एक शाम
दूजी शाम,
तीजी शाम,
मैं कभी न खड़ी हो सकी
प्रिय की प्रतीक्षा में ,
घर की चौखट पे ....!!
एक-एक कर सारे तीज त्यौहार निकल गए,
मैं विधवा आज भी बेडियों से जकड़ी
आख़िरी दिन के इंतज़ार में हूँ,
दूजी भोर,
तीजी भोर,
लगातार होती भोर.....
आज तक मेरे आँगन मी लगे बिही के पेड़ पर
बैठ कर कौए की
कोई कांव-कांव नहीं !
एक शाम
दूजी शाम,
तीजी शाम,
मैं कभी न खड़ी हो सकी
प्रिय की प्रतीक्षा में ,
घर की चौखट पे ....!!
एक-एक कर सारे तीज त्यौहार निकल गए,
मैं विधवा आज भी बेडियों से जकड़ी
आख़िरी दिन के इंतज़ार में हूँ,
6 comments:
बहुत सही संकलन है आपका...
आप ने बहुत सही लिखा है ...
महाशक्ति समूह पर प्रथम प्रकाशित कविता की बधाई स्वीकार कीजिए।
आपने बहुत अच्छा, वास्तविकता से परिपूर्ण लिखा है, आज विधवा की स्थिति दयनीय है, वह एक आदमी के मर जाने पर विधवा कहलाने लगती है, जिसमें उसका कोई गुनाह नही होता है।
बधाई
aapasabakaa aabhaaree hoon...?
बढ़िया रचना, बधाई.
bahut khoob
मैं विधवा आज भी बेडियों से जकड़ी
आख़िरी दिन के इंतज़ार में हूँ,
मेरी दादी जो सर पर बाल नहीं रखती थी....
मैंने पूछा था ऐसा क्यों...?
उत्तर किताबों ने दिया दादी जी ने कभी नहीं बताया था कुछ
यही आधार है कविता का
आप सबका आभारी हूँ
Post a Comment