28 April 2008
एक साथी एक सपना ...!!
हौसले संग भीड़ से संवाद के ।
०००००
हम चलें हैं हम चलेगे रोक सकते हों तो रोको
हथेली से तीर थामा क्या मिलेगा मीत सोचो ।
शब्द के ये सहज अनुनाद .. से .....!!
००००००
मन को तापस बना देने, लेके इक तारा चलूँ ।
फर्क क्या होगा जो मैं जीता या हारा चलूँ ......?
चकित हों शायद मेरे संवाद ... से ......!!
००००००
चलो अपनी एक अंगुल वेदना हम भूल जाएं.
वो दु:खी है,संवेदना का, गीत उसको सुना आएं
कोई टूटे न कभी संताप से ......!!
००००००
v गिरीश बिल्लोरे मुकुल ९६९/ए,गेट न०. ०४ जबलपुर,म०प्र०
27 April 2008
बावरे फकीरा यूँ बना
मुझसे क्या मिलेगा ....?शायद यही सोचा होगा बेचारों ने
सच मिलता भी क्या हम ठहरे फोकटिए गीतकार शब्दों का धंधा वो भी पोलियो ग्रस्त बच्चों की मदद के लिए ...!
संकल्प "मिसफिट" हूँ न दुनियाँ के लिए ।
मेरे भाई सह मित्र जितेन्द्र जोशी ने कहांश्रेयस कर लेगा कंपोजिंग । गीत देदो उसे । मामला तय हो गया श्रेयस की कम्पोजीशन पर आभास को गाना था , फीमेल वोईस के लिए संदीपा,कोरस के लिए दीवान साहब,योगेश,श्रद्धा,मेरी सहचर सुलभा सहित इक लम्बी कतार में लोग आगे आए । वी ओ आई में जाने की कोई सूचना न थी ।
इंदौर आडिशन में जाने के पहले आभास का प्रोजक्ट पूरा हुआ....... मेरा सपना भी आकार लेने लगा.... !
पूरी मस्ती और उछाह के साथ पूरी हुई रिकार्डिंग , यू ट्यूब पर यही मस्ती है पोस्ट कर रहा हूँ।
UP के स्नातक शिक्षा उपधिधारियो से निवेदन
26 April 2008
इक भद्दी सी टिपण्णी
vijayshankar said...
मतलब ये कि अब गैर उत्पादक चीजों से संस्कारधानी की शान बढ़ा करेगी। जबलपुर की शिनाख्त और लाज बचाने के लिए अब आभाष जोशी बचा है. आपने अपने तईं उन लोगों का ज़िक्र किया है जो जबलपुर की शान और प्रतिष्ठा थे. लेकिन कुछ दिनों से देख रहा हूँ कि आप भी समय के दबाव में बहे चले जा रहे हैं. नर्मदा की लहर की आपको चिंता ही नहीं. कम से कम चौंसठ जोगिनी मन्दिर का जिक्र ही कर देते कभी. स्त्रियों के जितने विविध रूप आज वहाँ जिंदा हैं उतने तो खजुराहो में भी नहीं हैं दोस्त. वह पूरे विश्व के लिए भारतीय नारी के अध्ययन का केन्द्र बन सकता है. न्रितत्वशास्त्रियों के लिए भी. मगर अफ़सोस. मुझे शर्म आने लगी है कि जबलपुर में मेरी ससुराल है.सुभद्रा कुमारी चौहान का नगर आज किस तरह दहशतगर्दी और कुसंस्कारधानी में तब्दील हो गया है, इसकी आप चर्चा तक नहीं करते. इसीको कहते हैं- आँख के अंधे नाम नयनसुख! आभाष जोशी आपको मुबारक हो
24 April 2008
हनुमान जयंती के दिन भाई समीर " उड़नतश्तरी "से साक्षात् मुलाकात
जब एक साल पहले मैंने ब्लॉग लिखना प्रारम्भ किया सोचा करता था यह सब बकबास है और अपना समय ख़राब करना है . एक दिन मेरे ब्लॉग मे पहली टिप्पणी आई कि भाई मै जबलपुर का हूँ आप भी जबलपुर के है अपने अच्छा लिखा है और आप जबलपुर के बारे मे अधिकाधिक ब्लॉग मे लिखे . यह टीप " उड़नतश्तरी " जी ने दी थी फ़िर सोचने लगा कि " उड़नतश्तरी " महाराज है कौन ? खोज बीन मे पता चला कि आप जबलपुर संस्कारधानी के निवासी है और कनाडा मे विगत दस सालो से निवासरत है और दुनिया मे हिन्दी ब्लागिंग जगत के जाने-माने प्रमुख स्तम्भ है जिनकी पोस्ट और टिप्पणियां ब्लागिंग जगत मे धूम मचा देती है .
समीर जी मेरे ओरकुट मे भी मित्र है . दीवाली के बाद संदेश मिला कि मैं जबलपुर आ रहा हूँ आपसे मुलाकात होगी . फोन मोबाइल नम्बरों का आदान प्रदान हुआ . जब समीर जी कनाडा से मुबई आये तो एक दिन मुझे उनका फोन मिला महेन्द्र भाई मैं जबलपुर आ रहा हूँ जबलपुर आने पर उन्होंने फोन किया मैं जबलपुर आ गया हूँ . मैंने तत्काल ब्लॉगर भाई गिरीश बिल्लौरे जी को भाई समीर के आगमन कि सूचना दी . ब्लॉगर भाई विजय तिवारी जी के जन्म दिन के अवसर पर मिलना निश्चित किया गया . करीब ६ बजे शाम को समीर जी का फोन मिला कि मैं इस समय जबलपुर मे बल्देवबाग मे हूँ आप आ जाए मैं दस मिनिट के पश्चात बल्देवबाग क्रासिंग पहुँच गया . भाई समीर जी से मुलाकात हुई . समीर जी से मेरी पहली उनसे यादगार मुलाकात थी जिसका जिक्र मैं अपनी पहली कि पोस्ट मे कर चुका हूँ .
जबलपुर शहर के हिन्दी ब्लॉगर भाई पंकज स्वामी "गुलुश" के प्रयासों से विश्व रंगमच दिवस के अवसर पर हिन्दी साहित्य और हिन्दी ब्लॉग विषय पर भाई समीर लाल जी ने उदगार व्यक्त किए और हिन्दी ब्लॉग जगत से अधिकाधिक जुड़ने की अपील की . यहाँ उनसे मेरी मुलाकात हुई .
रविवार को हनुमान के दिन दर्शन करने मे मैं बाइक पर नगर भ्रमण कर रहा था . घूमते घूमते ठीक दस बजे सुबह मैं भाई समीर के घर उनके साक्षात् दर्शन करने पहुंच गया . भाई समीर जी से मुलाकात हुई करीब उनसे आधा घंटे तक हिन्दी ब्लागिंग के बारे मे बातचीत की और मैंने अपने ब्लॉग " सफल प्रहरी " मे यह जानकारी दी कि और बताया अपने पिता द्वारा ३९ वर्षो वर्षो पूर्व लिखित पुस्तक " भारत के वीर जवान " को देने का प्रयास कर रहा हूँ . काफी उन्होंने सराहना की . मुझे सुझाव भी दिए और कहा कि नेट पर प्रेमचंद जैसे किसी भारतीय उपन्यासकार के उपन्यास को प्रकाशित करने की कोशिश करना चाहिए . फोन पर तो बात कई उनसे हुई है .
कल रात्रि के समय और आज दिन पर टेलीफोनिक जानकारी मे आज बताया कि भाई महेन्द्र आज मैं मुम्बई निकल रहा हूँ आपसे फ़िर नवम्बर माह मे मुलाकात होगी . भाई समीर जी का स्वभाव सरल मधुर है मिलनसार है . हमेशा नव ब्लागरो को प्रोत्साहित करते है और उनका उत्साहवर्धन करते है . मैंने अनुभव किया है कि अति व्यस्तता के चलते और अपने परिवार को अपने साथ लिए समीर जी का व्यक्तित्व और कृतित्व हिन्दी ब्लॉग जगत के लिए पूर्ण रूप से समर्पित है और हिन्दी ब्लॉग जगत के विकास के लिए वे हमेशा चिंतन करते रहते है .
समीर जी जिन्होंने हिन्दी ब्लागिंग जगत को एक दूसरे से जोडा है और आपस मे भाई चारा भी स्थापित करने मे महत्वपूर्ण योगदान दिया है . ब्लागिंग जगत के हस्ताक्षर जबलपुर संस्कार धानी के लाल भाई समीर लाल जी " उड़नतश्तरी " ने अपने ब्लॉग लेखन से इस शहर को गौरंवान्वित किया है मुझे और जबलपुर शहर के सारे ब्लागरो को उन पर नाज है . समीर भाई आपसे फ़िर मुलाकात होगी आपकी यात्रा मंगलमय हो ...........
शिक्षा या व्यापार?
आजकल शिक्षा के बारे में अगर सोचें तो याद आता है एक व्यवसाय जो सबसे ज्यादा धन देता है और वो भी सबसे कम निवेश पर । शायद इसीलिए हर गली, हर मोड़ पर शिक्षा का दर्पण कहे जाने वाले शिक्षण संस्थान खुलते जा रहे हैं। प्राथमिक शिक्षा तो एक ऐसा व्यवसाय बन गया है , जो हर वो व्यक्ति करना शुरू कर देता है , जिसने किसी कारण से प्रभावित होकर कोई अन्य व्यवसाय न कर पाया, ये उसकी शिक्षा के व्यवसाय के अनुरूप न होने के कारण हुआ हो या, किसी अन्य कारण से।
उच्च शिक्षा एक और उदाहरण है इस बात का, विशेषकर व्यापार प्रबंधन संस्थान, ये तो लगता है लोगों का अधिकार बन गया है, जो बिना किसी सही प्रारूप के शुरू कर दिया जाता है। नतीजा भुगतते हैं वो विद्यार्थी जो इन संस्थानों के चक्कर में पड़कर अपना समय और पैसा बर्बाद कर देते हैं.
ऐसे संस्थानों की एक खासियत है, इनमे से बहुत से संस्थानों के पाठ्यक्रम को सरकार के किसी संस्था द्वारा मान्यता नहीं प्राप्त होता, जैसे कि AICTE, या UGC के द्वारा मान्यता नहीं प्राप्त होता, जिसके चलते शिक्षार्थियों को बहुत ही तकलीफों का सामना करना पड़ता है, जैसे कि उनकी पहली जॉब में बहुत सी मुश्किलें आती हैं और उनका जॉब प्रोफाइल भी अन्य व्यापार प्रबंधन की परा स्नातक की उपाधि प्राप्त लोगों के नीचे की होती है.
आम तौर पर ये शिक्षण संस्थान उसके लिए द्वि उपाधि का लालच देते हैं, एक जिसको किसी संस्था की मान्यता प्राप्त नहीं होती, और दूसरी वो जो दूर शिक्षा प्राधिकरण के अंदर आती है।
आप सबों से यही उम्मीद है की अपने परिचितों को ऐसे संस्थानों के चक्कर में पड़ने से बचायेंगे, अन्यथा ऐसे ही देश का एक बहुत बड़ा शिक्षार्थी वर्ग अपना मार्ग नहीं पा सकेगा.
प्रतिभा और बाज़ार
20 April 2008
प्रतिउत्तर एवं आभार अभिव्यक्ति,
आशिक़ की बद्दुआ वाले भाई साहब
सादर अभिवादन
विजयशंकर जीसादर प्रणाम मेरे अग्रज शरद बिल्लोरे की यादें ताज़ा कराने आपका आभार आप को मेरे ब्लॉग'स के बारे में जानकारी कम ही हैसिर्फ़ और सिर्फ़ आभास के कारण मैंने अन्तरज़ाल का प्रयोग आरंभ किया । आभास ने वो कर दिया जो मैं क्या कोई भी सहजता से नहीं करता. जब वो १६ वर्ष का था तब उसने मेरा एलबम 'बावरे-फकीरा'गाया ये वही एलबम है जो पोलियो ग्रस्त बच्चों के लिए मदद जुटाएगा.अर्ध-सत्य ही उत्तेजना की वज़ह होते हैं....आप को विनम्र सलाह है की हाथी को पूरा देखने की आदत डालिए. आपको मालूम नहीं इस एलबम के सभी कलाकारों ने संस्कार वश नि:शुल्क सेवाएं दीं .
आप के उत्तेज़क विचारों ने मुझे झाखझोर दिया कविता के सृजक इतने तल्ख़ होतें हैं मुझे मालूम है किंतु वे हाथी को आंखों पे पट्टी बाँध के नहीं देखते गोया १८ बरस के बच्चे का कमाल,और उसकी तारीफ गले न उतरे मुझे नहीं लगता कविता ये सब सिखाती है। mahashakti जी का विचार मै आपकी भावनाओं की कर्द्र करता हूँ। हर व्यक्ति के नाम के साथ उस जगह का नाम जुड़ा होता है। आपकी बात पूरी तरह जायज है किन्तु मै इतना ही कहना चाहूँगा कि आज इलाहाबाद का नाम काफी हद तक लोग हरिवंश राय बच्चन और अमिताभ के कारण जानते है। और भी बहुत सी महानतम हस्ती हुई है उनके योगदान को नही नकारा जा सकता है। आज अभास उग रहा है तो कल और भी सूरज उगेगें। समझाने लायक है
जबलपुर का आभास पाकिस्तान में छा गया
संतुलित शिला
आभास तुम् धुआं धार की तरह गाओ........किंतु संतुलन मत खोना ........जबलपुर से रिश्ते का संतुलन जबलपुरिया होने का एहसास है इसे मत भूलना ।
18 April 2008
अब तो पानी का मोल समझो
ग्रीष्म का आगमन हो चुका है . सूरज दिनोदिन अपने तीखे तेवर दिखा रहा है और चारो और पानी के लिए त्राहि त्राहि मचना शरू हो गया है . मध्यप्रदेश का महाकोशल का क्षेत्र कभी वन,जल,खनिज सम्पदा से भरपूर था पर्यावरण से अत्यधिक छेड छाड़ और इन सम्पदाओ का अत्यधिक दोहन किए जाने के कारण समय के साथ साथ परिस्थितियां बदल चुकी है और इसका खामियाजा सभी को भुगतने पड़ रहे है . इन दिनों मध्यप्रदेश के कई जिलो मे पानी के त्राहि त्राहि मची हुई है .
दमोह,सिहोर जैसे जिले मे पुलिस वालो की उपस्थिति मे पानी का वितरण कराया जा रहा है नरसिहपुर के कई गाँवो के लोग पानी खरीदकर पी रहे है . तेंदुखेडा के दरजनो गाँवो के जलश्रोत सूख गए है और गाँवो मे पानी की कमी के चलते अभी से ग्रामीण क्षेत्रो के लोगो को समझ मे आने लगा है और इसकी स्पष्ट झलक उनके चेहरों पर नजर आने लगी है . तीन से पांच रुपये मे एक बाल्टी पानी भेजा जा रहा है . वही ठीक दमोह रोड पर स्थित तेंदुखेडा मे एक बाल्टी पानी दस से पन्द्रह रुपये मे और एक कनस्तर पानी पन्द्रह रुपये से बीस रुपये मे बेचा जा रहा है लोग मजबूर है कि उन्हें पानी खरीदकर पीना पड़ रहा है .
भूजल का स्तर लगातार गिरकर १५० से २०० फीट तक पहुँच गया है और दिनोदिन गिरता जा रहा है वोरवेलो के माध्यम से भूजल का अत्यधिक शोषण किया गया है और किया जा रहा है . जल एक मूलभूत आवश्यकता है जिसके बिना जीवन सम्भव नही है . अब वह समय आ गया है कि सभी को मिलजुलकर जल संरक्षित करने की दिशा मे सामूहिक प्रयास करने होंगे अन्यथा भावी पीढी हमारी पीढ़ी को क्षमा नही करेगी और भविष्य मे पानी के लिए संघर्ष की स्थितियां निर्मित हो सकती है
विदेशी नेतृत्व का विदेशी सरकार के प्रति सरपरस्ती
कल बीते दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला दिन है। आज एक विदेशी देश की सरपरस्ती जाताने के लिये भारत सरकार क्या क्या दमन के तरीके अपना रही है। जिस मशाल का प्रर्दशन जनता न देख सके वैसे आयोजन से क्या लाभ? यह कहना गलत न होगा कि आज देश में विदेशी सत्ता की बू की झलक आ ही गई है।
आज मुझे मनमोहन नीत सरकार को, चीनी सरकार का ऐजेंट कहने में जरा भी हिचक नही है। एक तरफ तिब्बती जनता का दमन किया जा रहा है वही भारतीय सरकार चीन के जश्न में जाम पे जाम लिये जा रही है। आज की सत्ता की घिनौनी हरकत ने पूरे देश को शर्मसार कर दिया है। एक पराये देश की दमन कारी नीति के सर्मथन में पूरी दिल्ली को कफ्यू ग्रस्त जैसा महौल कर दिया है। देश के गृहमंत्रालय भी ''चीनी मेहरिया'' (मशाल) के दर्शन कोई नागरिक न कर ले इस लिये, सभी सरकारी इमारतों की राजपथ की ओर खुलने वाली खिड़कियां व दरवाजे बंद रहेंगे। पीएमओ, वित्त मंत्रालय और गृह मंत्रालय भी राजपथ पर हैं इसलिए यह नियम उन पर भी लागू होगा।
कितनी शर्म की बात है कि यह प्रधानमंत्री कार्यालय से भी इस मशाल को दूर रखा गया, शायद सोनिया-मनमोहन सरकार को अपने कार्यालय पर ही भरोसा नही है। इस र्निलज्ज सरकार में कम से थोड़ा तो पानी रहा नही तो राष्ट्रपति भवन को भी न छोड़ते।
कई सितारों ने इस मशाल दौड़ का बहिष्कार किया वे बधाई के पात्र है सबसे अधिक भूटिया जिन्होने सरकार की नीति ही नही सरकारी नुमाइन्दों के मुँह पर खीच खीच के तमाचे मारे है। भूटिया स्पष्टता से कहा कि तिब्बती दमन के अपराधी के उत्सव में मै भाग नही लूँगा। भूटिया का कहना स्वाभाविक है वह सिक्किम से जुडे है जिसे चीन अपना अंग मानता है।
हमारी सरकार एक औरत के छत्रछाया में चूडि़यॉं पहन के बैठी है। इसके मंत्री अरूणाचल जाते है तो सिर्फ यह घोषण करने की ''अरूणाचल भारत का अभिन्न अंग है।'' अरूणाचल तो भारत का अंग है ही उसे बताने की क्या जरूरत है। मै सच में एक बात कहना चहाता हूँ कि अगर ऐसे मंत्री की सुरक्षा न हो तो अरूणाचल ही नही पूरे भारत में जूतियाये जाये। भारत का अंग वास्तव में सिक्किम और अरूणाचल तब होगे कि वहाँ पर कुछ काम हो। किन्तु काम के नाम पर इन ''नमक चोरों'' की जेब खाली हो जाती है। आज भी देश के दोनो प्रदेश रेल यातायात से अछूते है। क्या संसाधनों की कमी के बल पर भारत के अंग बनाये रखेगें?
चीन की मशाल निकली जरूर है, इसमें तिब्बत का शौर्य जगेगा तो भारत का शर्म।
17 April 2008
लालची और ढोंगी हैं आधुनिक ज्ञान-गुरु, आध्यात्म-गुरु...
आजकल के गुरु/ बाबा / महन्त / योगी / ज्ञान गुरु आदि समाज को देते तो कम हैं उसके बदले में शोषण अधिक कर लेते हैं। आजकल के ये गुरु कॉपीराइट, पेटेंट आदि के जरिये पैसा बनाने में लगे हैं, यहाँ तक कि कुछ ने तो कतिपय योग क्रियाओं का भी पेटेण्ट करवा लिया है। पहले हम देखते हैं कि इनके “भक्त”(?) इनके बारे में क्या कहते हैं –
- हमारे गुरु आध्यात्म की ऊँचाइयों तक पहुँच चुके हैं
- हमारे गुरु को सांसारिक भौतिक वस्तुओं का कोई मोह नहीं है
- फ़लाँ गुरु तो इस धरती के जीवन-मरण से परे जा चुके हैं
- हमारे गुरु तो मन की भीतरी शक्ति को पहचान चुके हैं और उन्होंने आत्मिक शांति हासिल कर ली है… यानी कि तरह-तरह की ऊँची-ऊँची बातें और ज्ञान बाँटना…
अब सवाल उठता है कि यदि ये तमाम गुरु इस सांसारिक जीवन से ऊपर उठ चुके हैं, इन्हें पहले से ही आत्मिक शांति हासिल है तो काहे ये तमाम लोग कॉपीराइट, पेटेण्ट और रॉयल्टी के चक्करों में पड़े हुए हैं? उनके भक्त इसका जवाब ये देते हैं कि “हमारे गुरु दान, रॉयल्टी आदि में पैसा लेकर समाजसेवा में लगा देते हैं…”। इस प्रकार तो “बिल गेट्स” को विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरु का दर्जा दिया जाना चाहिये। बल्कि गेट्स तो “गुरुओं के गुरु” हैं, “गुरु घंटाल” हैं, बिल गेट्स नाम के गुरु ने भी तो कॉपीराइट और पेटेण्ट के जरिये अरबों-खरबों की सम्पत्ति जमा की है और अब एक फ़ाउण्डेशन बना कर वे भी समाजसेवा कर रहे हैं। श्री श्री 108 श्री बिल गेट्स बाबा ने तो करोड़ों डॉलर का चन्दा विभिन्न सेवा योजनाओं में अलग-अलग सरकारों, अफ़्रीका में भुखमरी से बचाने, एड्स नियंत्रण के लिये दे दिया है।
यदि लोग सोचते हैं कि अवैध तरीके से, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अत्याचार करके कमाई हुई दौलत का कुछ हिस्सा वे अपने कथित “धर्मगुरु” को देकर पाप से बच जाते हैं, तो जैसे उनकी सोच गिरी हुई है, ठीक वैसी ही उनके गुरुओं की सोच भी गिरी हुई है, जो सिर्फ़ इस बात में विश्वास रखते हैं कि “पैसा कहीं से भी आये उन्हें कोई मतलब नहीं है, पैसे का कोई रंग नहीं होता, कोई रूप नहीं होता…” इसलिये बेशर्मी और ढिठाई से तानाशाहों, भ्रष्ट अफ़सरों, नेताओं और शोषण करने वाले उद्योगपतियों से रुपया-पैसा लेने में कोई बुराई नहीं है। ऐसा वे खुद प्रचारित भी करते / करवाते हैं कि, पाप से कमाये हुए धन का कुछ हिस्सा दान कर देने से “पुण्य”(?) मिलता है। और इसके बाद वे दावा करते हैं कि वे निस्वार्थ भाव से समाजसेवा में लगे हैं, सभी सांसारिक बन्धनों से वे मुक्त हैं आदि-आदि… जबकि उनके “कर्म” कुछ और कहते हैं। बिल गेट्स ने कभी नहीं कहा कि वे एक आध्यात्मिक गुरु हैं, या कोई महान आत्मा हैं, बिल गेट्स कम से कम एक मामले में ईमानदार तो हैं, कि वे साफ़ कहते हैं “यह एक बिजनेस है…”। लेकिन आडम्बर से भरे ज्ञान गुरु यह भी स्वीकार नहीं करते कि असल में वे भी एक “धंधेबाज” ही हैं… आधुनिक गुरुओं और बाबाओं ने आध्यात्म को भी दूषित करके रख दिया है, “आध्यात्म” और “ज्ञान” कोई इंस्टेण्ट कॉफ़ी या पिज्जा नहीं है कि वह तुरन्त जल्दी से मिल जाये, लेकिन अपने “धंधे” के लिये एक विशेष प्रकार का “नकली-आध्यात्म” इन्होंने फ़ैला रखा है।
दूसरी तरफ़ लाइनस और स्टॉलमैन जैसे लोग हैं, जो कि असल में गुरु हैं, “धंधेबाज” गुरुओं से कहीं बेहतर और भले। ये दोनों व्यक्ति ज्यादा “आध्यात्मिक” हैं और सच में सांसारिक स्वार्थों से ऊपर उठे हुए हैं। यदि ये लोग चाहते तो टेक्नोलॉजी के इस प्रयोग और इनका कॉपीराइट, पेटेण्ट, रॉयल्टी से अरबों डॉलर कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। मेहनत और बुद्धि से बनाई हुई तकनीक उन्होंने विद्यार्थियों और जरूरतमन्द लोगों के बीच मुफ़्त बाँट दी। कुछ ऐसा ही हिन्दी कम्प्यूटिंग और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में है। कई लोग शौकिया तौर पर इससे जुड़े हैं, मुफ़्त में अपना ज्ञान बाँट रहे हैं, जिन्हें हिन्दी टायपिंग नहीं आती उनकी निस्वार्थ भाव से मदद कर रहे हैं, क्यों? क्या वे भी पेटेण्ट करवाकर कुछ सालों बाद लाखों रुपया नहीं कमा सकते थे? लेकिन कई-कई लोग हैं जो सैकड़ों-हजारों की तकनीकी मदद कर रहे हैं। क्या इसमें हमें प्राचीन भारतीय ॠषियों की झलक नहीं मिलती, जिन्होंने अपना ज्ञान और जो कुछ भी उन्होंने अध्ययन करके पाया, उसे बिना किसी स्वार्थ या कमाई के लालच में न सिर्फ़ पांडुलिपियों और ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध किया बल्कि अपने शिष्यों और भक्तों को मुफ़्त में वितरित भी किया। बगैर एक पल भी यह सोचे कि इसके बदले में उन्हें क्या मिलेगा?
लेकिन ये आजकल के कथित गुरु-बाबा-प्रवचनकार-योगी आदि… किताबें लिखते हैं तो उसे कॉपीराइट करवा लेते हैं और भारी दामों में भक्तों को बेचते हैं। कुछ अन्य गुरु अपने गीतों, भजनों और भाषणों की कैसेट, सीडी, डीवीडी आदि बनवाते हैं और पहले ये देख लेते हैं कि उससे कितनी रॉयल्टी मिलने वाली है। कुछ और “पहुँचे हुए” गुरुओं ने तो योग क्रियाओं का भी पेटेण्ट करवा लिया है। जबकि देखा जाये तो जो आजकल के बाबा कर रहे हैं, या बता रहे हैं या ज्ञान दे रहे हैं वह सब तो पहले से ही वेदों, उपनिषदों और ग्रंथों में है, फ़िर ये लोग नया क्या दे रहे हैं जिसकी कॉपीराइट करना पड़े, क्या यह भी एक प्रकार की चोरी नहीं है? सबसे पहली आपत्ति तो यही होना चाहिये कि उन्होंने कुछ “नया निर्माण” तो किया नहीं है, फ़िर वे कैसे इससे पेटेण्ट / रॉयल्टी का पैसा कमा सकते हैं?
लेकिन फ़िर भी उनके “भक्त” (अंध) हैं, वे जोर-शोर से अपना “धंधा” चलाते हैं, दुनिया को ज्ञान(?) बाँटते फ़िरते हैं, दुनियादारी के मिथ्या होने के बारे में डोज देते रहते हैं (खुद एसी कारों में घूमते हैं)। स्वयं पैसे के पीछे भागते हैं, झोला-झंडा-चड्डी-लोटा-घंटी-अंगूठी सब तो बेचते हैं, सदा पाँच-सात सितारा होटलों और आश्रमों में ठहरते हैं, तर माल उड़ाते हैं।
कोई बता सकता है कि क्यों पढ़े-लिखे और उच्च तबके के लोग भी इनके झाँसे में आ जाते हैं? बिल गेट्स भले कोई महात्मा न सही, लेकिन इनसे बुरा तो नहीं है…
Suresh Chiplunkar
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
ब्राह्मी
एक परिचय
ब्राह्मी का एक पौधा होता है जो भूमि पर फैलकर बड़ा होता है। इसके तने और पत्तियॉं मुलामय, गूदेदार और फूल सफेद होते है । यह पौधा नम स्थानों में पाया जाता है, तथा मुख्यत: भारत ही इसकी उपज भूमि है। इसे भारत वर्ष में विभिन्न नामों से जाना जाता है जैसे हिन्दी में सफेद चमनी, संस्कृत में सौम्यलता, मलयालम में वर्ण, नीरब्राम्ही, मराठी में घोल, गुजराती में जल ब्राह्मी, जल नेवरी आदि तथा इसका वैज्ञानिक नाम बाकोपा मोनिएरी(Bacapa monnieri) है।
औषधीय गुण
यह पूर्ण रूपेण औषधी पौधा है। यह औषधि नाडि़यों के लिये पौष्टिक होती है। कब्ज को दूर करती है। इसके पत्ते के रस को पेट्रोल के साथ मिलाकर लगाने से गठिया दूर करती है। ब्राह्मी में रक्त शुद्ध करने के गुण भी पाये जाते है। यह हृदय के लिये भी पौष्टिक होता है।
चित्रों में ब्राह्मी
16 April 2008
13 April 2008
"आरक्षण" के राक्षस से बचाव के कुछ उपाय…
(1) अभी फ़िलहाल जब तक निजी कम्पनियों में आरक्षण लागू नहीं है, तब तक वहीं कोशिश की जाये (चाहे शुरुआत में कम वेतन मिले), निजी कम्पनियों का गुणगान करते रहें, कोशिश यही होना चाहिये कि सरकारी नौकरियों का हिस्सा घटता ही जाये और ज्यादा से ज्यादा संस्थानों पर निजी कम्पनियाँ कब्जा कर लें (उद्योगपति चाहे कितने ही समझौते कर ले, “क्वालिटी” से समझौता कम ही करता है, आरक्षण देने के बावजूद वह कुछ जुगाड़ लगाकर कोशिश यही करेगा कि उसे प्रतिभाशाली युवक ही मिलें, इससे सच्चे प्रतिभाशालियों को सही काम मिल सकेगा)। मंडल आयोग का पिटारा खुलने और आर्थिक उदारीकरण के बाद गत 10-15 वर्षों में यह काम बखूबी किया गया है, जिसकी बदौलत ब्राह्मणों को योग्यतानुसार नौकरियाँ मिली हैं। यदि निजी कम्पनियाँ न होतीं तो पता नहीं कितने युवक विदेश चले जाते, क्योंकि उनके लायक नौकरियाँ उन्हें सरकारी क्षेत्र में तो मिलने से रहीं।
(2) एक थोड़ा कठिन रास्ता है विदेश जाने का, अपने दोस्तों-रिश्तेदारों-पहचान वालों की मदद से विदेश में शुरुआत में कोई छोटा सा काम ढूँढने की कोशिश करें, कहीं से लोन वगैरह लेकर विदेश में नौकरी की शुरुआत करें और धीरे-धीरे आगे बढ़ें। यदि ज्यादा पढ़े-लिखे है तो न्यूजीलैण्ड, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ़िनलैण्ड, नार्वे, स्वीडन जैसे देशों में जाने की कोशिश करें, यदि कामगार या कम पढ़े-लिखे हैं तो दुबई, मस्कत, कुवैत, सिंगापुर, इंडोनेशिया की ओर रुख करें, जरूर कोई न कोई अच्छी नौकरी मिल जायेगी, उसके बाद भारत की ओर पैर करके भी न सोयें। हो सकता है विदेश में आपके साथ अन्याय-शोषण हो, लेकिन यहाँ भी कौन से पलक-पाँवड़े बिछाये जा रहे हैं।
(3) तीसरा रास्ता है व्यापार का, यदि बहुत ज्यादा (95% लायक) अंक नहीं ला पाते हों, तो शुरुआत से ही यह मान लें कि तुम ब्राह्मण हो तो तुम्हें कोई नौकरी नहीं मिलने वाली। कॉलेज के दिनों से ही किसी छोटे व्यापार की तरफ़ ध्यान केन्द्रित करना शुरु करें, पार्ट टाइम नौकरी करके उस व्यवसाय का अनुभव प्राप्त करें। फ़िर पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी के लिये धक्के खाने में वक्त गँवाने की बजाय सीधे बैंकों से लोन लेकर अपना खुद का बिजनेस शुरु करें, और उस व्यवसाय में जम जाने के बाद कम से कम एक गरीब ब्राह्मण को रोजगार देना ना भूलें। मुझे नहीं पता कि कितने लोगों ने गरीब जैन, गरीब सिख, गरीब बोहरा, गरीब बनिया देखे हैं, मैंने तो नहीं देखे, हाँ लेकिन, बहुत गरीब दलित और गरीब ब्राह्मण बहुत देखे हैं, ऐसा क्यों है पता नहीं? लेकिन ब्राह्मण समाज में एकता और सहकार की भावना मजबूत करने की कोशिश करें।
(4) सेना में जाने का विकल्प भी बेहतरीन है। सेना हमेशा जवानों और अफ़सरों की कमी से जूझती रही है, ऐसे में आरक्षण नामक दुश्मन से निपटने के लिये सेना में नौकरी के बारे में जरूर सोचें, क्योंकि वहाँ से रिटायरमेंट के बाद कई कम्पनियों / बैंकों में सुरक्षा गार्ड की नौकरी भी मिल सकती है।
(5) अगला विकल्प है उनके लिये जो बचपन से ही औसत नम्बरों से पास हो रहे हैं। वे तो सरकारी या निजी नौकरी भूल ही जायें, अपनी “लिमिट” पहचान कर किसी हुनर में उस्ताद बनने की कोशिश करें (जाहिर है कि इसमें माता-पिता की भूमिका महत्वपूर्ण होगी)। बच्चे में क्या प्रतिभा है, या किस प्रकार के हुनरमंद काम में इसे डाला जा सकता है, इसे बचपन से भाँपना होगा। कई क्षेत्र ऐसे हैं जिसमें हुनर के बल पर अच्छा खासा पैसा कमाया जा सकता है। ऑटोमोबाइल मेकेनिक, गीत-संगीत, कोई वाद्य बजाना, कोई वस्तु निर्मित करना, पेंटिंग… यहाँ तक कि कम्प्यूटर पर टायपिंग तक… कोई एक हुनर अपनायें, उसकी गहरी साधना करें और उसमें महारत हासिल करें। नौकरियों में सौ प्रतिशत आरक्षण भी हो जाये तो भी लोग तुम्हें दूर-दूर से ढूँढते हुए आयेंगे और मान-मनौव्वल करेंगे, विश्वास रखिये।
(6) एक और विकल्प है, जिसमें ब्राह्मणों के पुरखे, बाप-दादे पहले से माहिर हैं… वह है पुरोहिताई-पंडिताई-ज्योतिषबाजी-वास्तु आदि (हालांकि व्यक्तिगत रूप से मैं इसके खिलाफ़ हूँ, लेकिन सम्मानजनक तौर से परिवार और पेट पालने के लिये कुछ तो करना ही होगा, अपने से कम अंक पाने वाले और कम प्रतिभाशाली व्यक्ति के हाथ के नीचे काम करने के अपमान से बचते हुए)। जमकर अंधविश्वास फ़ैलायें, कथा-कहानियाँ-किस्से सुनाकर लोगों को डरायें, उन्हें तमाम तरह के अनुष्ठान-यज्ञ-वास्तु-क्रियायें आदि के बारे में बतायें और जमकर माल कूटें। जैसे-जैसे दलित-ओबीसी वर्ग पैसे वाला होता जायेगा, निश्चित जानिये कि वह भी इन चक्करों में जरूर पड़ेगा।
तो गरीब-मध्यमवर्गीय ब्राह्मणों तुम्हें निराश होने की कोई जरूरत नहीं है, “उन्हें” सौ प्रतिशत आरक्षण लेने दो, उन्हें सारी सुविधायें हथियाने दो, उन्हें सारी छूटें लेने दो, सरकार पर भरोसा मत करो वह तुम्हारी कभी नहीं सुनेगी, तुम तो सिर्फ़ अपने दोनो हाथों और तेज दिमाग पर भरोसा रखो। कई रास्ते हैं, सम्मान बनाये रखकर पैसा कमाना मुश्किल जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं…
सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
गरीब-मध्यमवर्गीय ब्राह्मणों “सामाजिक न्याय” के लिये कुर्बान हो जाओ…
आँकड़े ही परोसने हैं तो मैं भी बता सकता हूँ कि सिर्फ़ दिल्ली मे कम से कम 50 सुलभ शौचालय हैं, जिनका “मेंटेनेंस” और सफ़ाई का काम ब्राह्मण कर रहे हैं। एक-एक शौचालय में 6-6 ब्राह्मणों को रोजगार मिला हुआ है, ये लोग उत्तरप्रदेश के उन गाँवों से आये हैं जहाँ की दलित आबादी 65-70% है। दिल्ली के पटेल नगर चौराहे पर खड़े रिक्शे वालों में से अधिकतर ब्राह्मण हैं। तमिलनाडु में आरक्षण लगभग 70% तक पहुँच जाने के कारण ज्यादातर ब्राह्मण तमिलनाडु से पलायन कर चुके हैं। उप्र और बिहार की कुल 600 सीटों में से सिर्फ़ चुनिंदा (5 से 10) विधायक ही ब्राह्मण हैं, बाकी पर यादवों और दलितों का कब्जा है। कश्मीर से चार लाख पंडितों को खदेड़ा जा चुका है, कई की हत्या की गई और आज हजारों अपने ही देश में शरणार्थी बने हुए हैं, लेकिन उन्हें कोई नहीं पूछ रहा। अधिकतर राज्यों में ब्राह्मणों की 40-45% आबादी गरीबी की रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। तमिलनाडु और कर्नाटक में मंदिरों में पुजारी की तनख्वाह आज भी सिर्फ़ 300 रुपये है, जबकि मन्दिर के स्टाफ़ का वेतन 2500 रुपये है। भारत सरकार लगभग एक हजार करोड़ रुपये मस्जिदों में इमामों को वजीफ़े देती है और लगभग 200 करोड़ की सब्सिडी हज के लिये अलग से, लेकिन उसके पास गरीब ब्राह्मणों के लिये कुछ नहीं है। कर्नाटक सरकार द्वारा विधानसभा में रखे गये आँकड़ों के मुताबिक राज्य के ईसाईयों की औसत मासिक आमदनी है 1562/-, मुसलमानों की 794/-, वोक्कालिगा समुदाय की 914/-, अनुसूचित जाति की 680/- रुपये जबकि ब्राह्मणों की सिर्फ़ 537/- रुपये मासिक। असल समस्या यह है कि दलित, ओबीसी और मुसलमान के वोट मिलाकर कोई भी राजनैतिक पार्टी आराम से सत्ता में आ सकती है, फ़िर क्यों कोई ब्राह्मणों की फ़िक्र करने लगा, और जब भी “प्रतिभा” के साथ अन्याय की बात की जाती है, तो देश जाये भाड़ में, हमारी अपनी जाति का भला कैसे हो यह देखा जायेगा।
आने वाले दिनों में “नेता” क्या करेंगे इसका एक अनुमान :
इस बात में मुझे कोई शंका नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद अब माल कूटने के लिये और अपने चमचों और रिश्तेदारों को भरने के लिये “क्रीमी लेयर” को नये सिरे से परिभाषित किया जायेगा। सभी ओबीसी सांसदों और विधायकों को “गरीब” मान लिया जायेगा, सभी ओबीसी प्रशासनिक अफ़सरों, बैंक अधिकारियों, अन्य शासकीय कर्मचारियों, बैंक अधिकारी, डॉक्टर आदि सभी को “गरीब” या “अतिगरीब” मान लिया जायेगा, और जो सचमुच गरीब ओबीसी छात्र हैं वे मुँह तकते रह जायेंगे। फ़िर अगला कदम होगा निजी / प्रायवेट कॉलेजों और शिक्षण संस्थाओं की बाँहें मरोड़कर उनसे आरक्षण लागू करवाने की (जाहिर है कि वहाँ भी मोटी फ़ीस के कारण पैसे वाले ओबीसी ही घुस पायेंगे)।
एकाध-दो वर्षों या अगले चुनाव आने तक सरकारों का अगला कदम होगा निजी कम्पनियों में भी आरक्षण देने का। उद्योगपति को अपना फ़ायदा देखना है, वह सरकार से करों में छूट हासिल करेगा, “सेज” के नाम पर जमीन हथियायेगा और खुशी-खुशी 30% “अनप्रोडक्टिव” लोगों को नौकरी पर रख लेगा, इस सारी प्रक्रिया में “पेट पर लात” पड़ेगी फ़िर से गरीब ब्राह्मण के ही। सरकारों ने यह मान लिया है कि कोई ब्राह्मण है तो वह अमीर ही होगा। न तो उसे परीक्षा फ़ीस में कोई रियायत मिलेगी, न “एज लिमिट” में कोई छूट होगी, न ही किसी प्रकार के मुफ़्त कोर्स उपलब्ध करवाये जायेंगे, न ही कोई छात्रवृत्ति प्रदान की जायेगी। सुप्रीम कोर्ट के नतीजों को लात मारने की कांग्रेस की पुरानी आदत है (रामास्वामी केस हो या शाहबानो केस), इसलिये इस फ़ैसले पर खुश न हों, “वे” लोग इसे भी अपने पक्ष में करने के लिये कानून बदल देंगे, परिभाषायें बदल देंगे, ओबीसी लिस्ट कम करना तो दूर, बढ़ा भी देंगे…
बहरहाल, अब जून-जुलाई का महीना नजदीक आ रहा है, विभिन्न परीक्षाओं के नतीजे और एडमिशन चालू होंगे। वह वक्त हजारों युवाओं के सपने टूटने का मौसम होगा, ये युवक 90-95 प्रतिशत अंक लाकर भी सिर्फ़ इसलिये अपना मनपसन्द विषय नहीं चुन पायेंगे, क्योंकि उन्हें “सामाजिक न्याय” नाम का धर्म पूरा करना है। वे खुली आँखों से अपने साथ अन्याय होते देख सकेंगे, वे सरेआम देख सकेंगे कि 90% अंक लाने के बावजूद वह प्रतिभाशाली कॉलेज के गेट के बाहर खड़ा है और उसका “दोस्त” 50-60% अंक लाकर भी उससे आगे जा रहा है। जो पैसे वाला होगा वह अपने बेटे के लिये कुछ ज्यादा पैसा देकर इंजीनियरिंग/ डॉक्टरी की सीट खरीद लेगा, कुछ सीटें “NRI” हथिया ले जायेंगे, वह कुछ नहीं कर पायेगा सिवाय घुट-घुटकर जीने के, अपने से कमतर अंक और प्रतिभा वाले को नौकरी पाते देखने के, और “पढ़े फ़ारसी बेचे तेल” कहावत को सच होता पाने के लिये। जाहिर है कि सीटें कम हैं, प्रतिभा का विस्फ़ोट ज्यादा है और जो लोग साठ सालों में प्राथमिक शिक्षा का स्तर तक नहीं सुधार पाये, जनसंख्या नियन्त्रित नहीं कर पाये, भ्रष्टाचार नहीं रोक पाये, वे लोग आपको “सामाजिक न्याय”, “अफ़र्मेटिव एक्शन” आदि के उपदेश देंगे और झेड श्रेणी की सुरक्षा के नाम पर लाखों रुपये खर्च करते रहेंगे…
(भाग–2 में जारी… आरक्षण नामक दुश्मन से निपटने हेतु कुछ सुझाव…)
सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
11 April 2008
डाक्टर भगवान होता है परन्तु जब डाक्टर ही हैवान हो जाए तो?
10 April 2008
चुटकुले : पढे मगर हँसकर
राम अपने पापा से - थोड़ा टी.वी. चला दीजिए आज बहुत मख्खी भिनभिना रही है
पापा - मक्खी से टी.वी का क्या सम्बन्ध है
राम - आजकल टी, वी, मे मख्खी और काकरोज भगाने के विज्ञापन बहुत आते है उसे देखकर मख्खी भाग जावेगी .
.....................
पापा - बेटा बुद्धिमान वेवकूफो की बातो का जबाब नही देते है और हँसकर टाल देते है
बेटा - पापा इसीलिए मैंने आज परीक्षा मे बस पेपर पढ़ा और जबाब नही दिया और हँसकर चला आया .
....................
राम - कल रात चोरो ने मेरे घर पर धावा मारा और पापाजी के रहते सब कुछ उठाकर ले गए
श्याम - पर तुम्हारे पिता जी तो पिस्तौल रखते है वह कहाँ थी ?
राम - पर पिस्तौल को चोरो ने देखा नही था पापाजी ने जल्दी से उसे कही छुपाकर रख दिए था .
...................
एक मित्र दूसरे मित्र से - आजकल जिस कम्प्यूटर का आविष्कार हुआ है पता है उसकी खूबी क्या है ?
दूसरा मित्र - हाँ , तकरीवन इंसान जैसा होता है अपनी सारी गलती दूसरे के सिर थोप देता है .
......................
कप्तान अपने रंगरूट को पैराशूट के प्रयोग करने के उपयोग करने की जानकारी दे रहा था .
रंगरूट ने अपने कप्तान से प्रश्न किया सर जब पैराशूट न खुले तो क्या करना चाहिए ?
कप्तान ने जबाब दिया कि तुम तुरंत मेरे पास आ जाना मैं तुम्हे दूसरा पैराशूट दे दूंगा .
........................
09 April 2008
भारत के वीर जवानों की सत्य कथाये
जोकि भारत और चीन,पाकिस्तान के बीच सं १९६२ और सं १९६५ के युद्ध के समय की है ऐसे वीर भारत माता के बेटो की कहानी जिनने हंसते हंसते देश की रक्षा के लिए अपने प्राण निछावर कर दिए . भारत के वीर जवान पुस्तक से चार कहानी हिन्दी ब्लॉग सफलप्रहरी मे प्रकाशित की जा चुकी है . कृपया अवलोकन कर अभिव्यक्ति प्रदान करने का कष्ट करे और नेट पर यह जो पुस्तक प्रकाशित की जा रही है इसके बारे मे आपके क्या विचार है .
भारत और चीन युद्ध पुस्तक की कड़ी : मेजर सौदागर सिह
भारत के वीर जवान पुस्तक की कड़ी : लेफ्टिनेंट कर्नल दयाल
भारत के वीर जवान पुस्तक की कड़ी : बहादुर जसवीर सिह...
भारत के वीर जवान पुस्तक की कड़ी : सूबेदार जोगिन्दर...
कृपया देखे =
http://safalprahri.blogspot.com
दूध घर मे बनाइये
जबलपुर शहर मे इन दिनों दूध के बढ़ते मूल्य के कारण भारी खलबली मची है हर कोई अपने अपने ढंग से दूध के दामो मे हो रही बढोतरी के ख़िलाफ़ विरोध के स्वर गुंजित कर रहे है . गरीब परेशान है कि वे अपने नन्हें मुन्नों को उनका आहार दूध कैसे उपलब्ध करा पावेंगे तो राजनीतिक स्वर विरोध कर रहे है अपना उल्लू सीधा करने के लिए उन्हें तो सिर्फ़ वोट से मतलब है भाड़ मे जाए गरीब और बच्चो का आहार दूध .
दैनिक भास्कर समाचार पत्र पढ़ते पढ़ते एक लेख देखा " घर मे बनाइये दूध " जिसके लेखक तरूनेद्र सिह चौहान जबलपुर है बहुत अच्छा लगा कि इस भीषण महगाई मे जब दूध के रेट बढ़ रहे है और जब दूध का कृत्रिम अभाव हो जाता है तो आप विकल्प के रूप मे घर मे दूध तैयार कर सकते है . लेख के अंश आपको प्रस्तुत कर रहा हूँ आशा यह आपको पसंद आवेगा और यह दूध स्वास्थ्य के लिए हितकर है .अब दूध के लिए दूध वाले से मिन्नत करने की जरुरत नही है और न ही पानी मिले दूध से सेहत से खिलवाड़ करने की जरुरत है .यह दूध दूध की तरह सौ प्रतिशत शुध्ध है और सोयाबीन से बनाया जा सकता है .
बनाने की विधि - एक किलोग्राम सोयाबीन से ८ लीटर दूध तैयार किया जा सकता है . एक किलोग्राम सोयाबीन से सरे परिवार की सेहत मे चार चाँद लग सकते है . सोया दूध मे लैक्टोज इन्टौलारेंस पाया जाता है जो बच्चो के लिए बेहद लाभदायक है . पहले सोयाबीन के दानो को फुला ले फ़िर दानो को फूल जाने के बाद पीस ले फ़िर पीसे हुए धोल को छान लिया जाता है और तरह मात्रा का उपयोग दूध की तरह किया जाता है और शेष अवशिष्ट अलग कर दिया जाता है . शर्त यह कि सोयाबीन के दाने पुष्ट होना चाहिए .
किसमे कितना दम - दोनों के दूध का पौष्टिक तुलनात्मक अध्ययन किया जाए दोनों लगभग बराबर है . सामान्य दूध मे प्रोटीन की मात्रा १८ से २० प्रतिशत है तो सोया दूध मे १४ से १८ प्रतिशत तक प्रोटीन होता है . सामान्य दूध मे वसा २० से २२ फीसदी रहता है तो सोया दूध मे ४ से ५ फीसदी रहता है . सामान्य दूध मे आयरन १ मिलीग्राम है तो सोया दूध मे ३ मिलीग्राम रहता है . सामान्य दूध मे नमी ५० से ५५ प्रतिशत मौजूद रहती है तो सोया दूध मे ७० से ७५ प्रतिशत नमी मौजूद रहती है . केवल स्वाद महक को छोड़ दिया जावे तो यह पौष्टिकता और गुणबत्ता के मामले मे यह दूध भैस और गाय के दूध से कम नही है .
हांलाकि बहुत कम लोगो को इसकी जानकारी है इसलिए इसका उपयोग कम हो रहा है . दूसरा कारण यह है कि दूध की अभी तो खैर उपलब्धता है इसीलिए सोयाबीन के दूध का विकल्प के रूप मे कम इस्तेमाल हो रहा है .
सरकार को भूटिया ने जमाई “किक” और किरण बेदी ने जड़ा “तमाचा”…
जो बात एक आम आदमी की समझ में आ रही है वह सरकार को समझ नहीं आ रही। सारी दुनिया में चीन का विरोध शुरु हो गया है, हर जगह ओलम्पिक मशाल को विरोध का सामना करना पड़ रहा है। बुश, पुतिन और फ़्रांस-जर्मनी आदि के नेता चीन के नेताओं को फ़ोन करके दलाई लामा से बात करने को कह रहे हैं। लेकिन हम क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं सिवाय प्रदर्शनकारियों को धमकाने के। मानो चीन-तिब्बत मसले से हमें कुछ लेना-देना न हो। सदा-सर्वदा मानवाधिकार और गाँधीवाद की दुहाई देने और गीत गाने वाले लोग चीन सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं, बर्मा के फ़ौजी शासकों से चर्चायें कर रहे हैं (पाकिस्तान के फ़ौजी शासकों से बात करना तो मजबूरी है)। .चीन सरेआम अपना घटिया माल भारत में चेप रहा है, बाजार का सन्तुलन बिगाड़ रहा है, अरुणाचल में दिनदहाड़े हमें आँखें दिखा रहा है, हमारी सीमा पर अतिक्रमण कर रहा है, पाकिस्तान से उसका प्रेम जगजाहिर है, वह आधी रात को हमारे राजदूत को बुलाकर डाँट रहा है… लेकिन हमारे वामपंथी नेताओं की “बन्दर घुड़की” के आगे सरकार बेबस नजर आ रही है। चीन ने भारत सरकार को झुकने को कहा तो सरकार लेट ही गई। सबसे अफ़सोसनाक रवैया तथाकथित मानवाधिकारवादियों का रहा, जिन्हें “गाजा पट्टी” की ज्यादा चिंता है, पड़ोसी तिब्बत की नहीं (जाहिर है कि तिब्बती वोट नहीं डालते) ।
असल में सरकार ने चीन की आँख में उंगली करने का एक शानदार और सुनहरा मौका गँवा दिया। जब चीन हमें सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट दिलवाने में हमारी कोई मदद नहीं करने वाला, व्यापार सन्तुलन भी आने वाले वर्षों में उसके ही पक्ष में ही रहने वाला है, गाहे-बगाहे पाकिस्तान को हथियार और परमाणु सामग्री बेचता रहेगा, तो फ़िर हम क्यों और कब तक उसके लिये कालीन बिछाते रहें? लेकिन सरकार कुछ खास पूंजीपतियों (जिनके चीन के साथ व्यापारिक हित जुड़े हुए हैं और जिन्हें आने वाले समय में चीन में कमाई के अवसर दिख रहे हैं) तथा वामपंथियों के आगे पूरी तरह नतमस्तक हो गई है। बाजारवाद की आँधी में सरकार ने विदेश में अपनी ही खिल्ली उड़वा ली है। इस पूरे विवाद में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बहुत बड़ा रोल है। ओलम्पिक का मतलब है अरबों डॉलर की कमाई, कोकाकोला और रीबॉक जैसी कम्पनियों ने आमिर खान और सचिन तेंडुलकर पर व्यावसायिक दबाव बनाकर मशाल दौड़ के लिये उन्हें राजी कर लिया। यह खेल सिर्फ़ खेल नहीं हैं, बल्कि इन कम्पनियों के लिये भविष्य के बाजार की रणनीति का प्रचार भी होते हैं। सारे विश्व में इन कम्पनियों ने मोटी रकम दे-देकर नामचीन खिलाड़ियों को खरीदा है और “खेल भावना” के नाम पर उन्हें दौड़ाया है, अब आने वाले छः महीनों तक विज्ञापनों में ये लोग मशाल लिये कम्पनियों का माल बेचते नजर आयेंगे। लेकिन भूटिया और किरण बेदी की अंतरात्मा को वे नहीं खरीद सकीं। इन लोगों ने अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर विरोध का दामन थाम लिया है।
हम क्षेत्रीय महाशक्ति होने का दम भरते हैं, किस बिना पर? क्षेत्रीय महाशक्ति ऐसी पिलपिलाये हुए मेमने की तरह नहीं बोला करतीं, और एक बात तो तय है कि यदि भारत सरकार गाँधीवाद और मानवाधिकार की बातें करती है तो भी, और यदि महाशक्ति बनने का ढोंग करती हो तब भी…दोनों परिस्थितियों में उसे तिब्बत के लिये बोलना जरूरी है, लेकिन वह ऐसा नहीं कर रही। पिछले लगभग बीस वर्षों के आर्थिक उदारीकरण के बाद भी हम मतिभ्रम में फ़ँसे हुए हैं कि हमें क्या होना चाहिये, पूर्ण बाजारवादी, गाँधीवादी या सैनिक/आर्थिक महाशक्ति, और इस चक्कर में हम कुछ भी नहीं बन पाये हैं…
सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
07 April 2008
भारतीय मुस्लिम नेतृत्व
यह मुस्लिम नेता रोषपूर्वक अपने को सौ प्रतिशत भारतीय होने का दावा करते है। साथ ही साथ काश्मीर पर पाकिस्तान के दावे के पक्ष में तर्क देते सुने जाते है। आसाम में पाकिस्तानी काश्मीर घुसपैठियों को भारतीय मुसलमान मुस्लिम सिद्ध करते दिखाई देते है। कहने को उनका हिन्दुओं से कोई मनोमालिन्य नही किन्तु साथ ही साथ यह फतवा भी जारी करते है कि नेहरू के मृत्योंपरानत उनके शव के पास कुरान का पाठ इस्लाम के विरूद्ध है क्योकि काफिर के शव पर कुरान नही पढ़ी जा सकती। वह जाकिर हुसैन को भारत का राष्ट्रपति तो देखना चाहते है किन्तु अच्छा मुसलमान होने के नाते उनके हिन्दु में शपथ और शंकराचार्य से आशीर्वाद लेने प आपत्ति करते है।
प्रस्तुत वाक्य हामिद दलवई के है जो मुस्लिम पालिटिक्स इन सेक्युलन इंडिया, पृ. 47 से उद्धत है। इस वाक्य से मुसलिम नेतृत्व की का सही रूप सामने दिखता है। जो नेहरू की मृत्यु से लेकर आज तक की सत्ता सर्घष में हावी है। यह कांग्रेस उसी मुसलिम कौम को उठाने का असफल प्रयास कर रही है जो अपनी रूढि़ विचारों से कभी नही उठ सकती है। सोनिया को लगता है कि वह 18 प्रतिशत मुसलमानों के बल पर वह चुनाव जीत लेगी तो यह उनकी सबसे बड़ी राजनैतिक अपरपिक्वता की निशानी है, वह दिन दूर नही जब राष्ट्रवाद का स्वाभिमान जागृत होगा और देश में राष्ट्रवाद के नेतृत्व की सरकार आयेगी। और तब देश में न सिर्फ मुसलमान उन्नति करेगा अपितु पूरा देश उन्नति करेगा। जरूरत है उग्रता को सोंटा दिखने और सही मार्ग पर ले चलने की। क्योकि कहा गया है - भय बिन प्रीत न होत गुंसाई।
03 April 2008
पुत्र लालसा का मिथक तोड़ते 105 परिवार
कि इसके बाद उनको पुत्र प्राप्ति न हों सकेगी ,
["बाल विवाह मत करना माँ"अपनी माँ को रक्षा सूत्र बांधती एक बेटी ]
ये खुलासा तब हुआ जब मैं अपने सहयोगी स्टाफ के साथ म० प्र० सरकार की लाडली लक्ष्मी योजना की उपलब्धि के बाद आंकडों का विश्लेषण कर रहा था । 500 लाडली लक्ष्मीयों में से 89 वो हैं जिनकी बड़ी बहन ही है और भाई अब नहीं आ सकेगा , 6 बालिकाओं के तो न तो बहन होगी न ही भाई , यानी 21 प्रतिशत परिवारों ने पुत्र की लालसा के मिथक तोड़ दिए, क्यों न सकारात्मक सोच को उभार के हम कुरीतियों से निज़ात पाएं ....!!
अब शायद म० प्र० सरकार के इस प्रयास की सराहना सभी को करनी ही होगी ।
02 April 2008
गज़ल - बडे हम जैसे होते हैं...
बड़े हम जैसे होते हैं तो रिश्ता हर अखरता है ।
यहां बनकर भी अपना क्यूँ भला कोई बिछड़ता है ।
सिमट कर आ गये हैं सारे तारे मेरी झोली में,
कहा मुश्किल हुआ संग चांद अब वह तो अकड़ता है ।
छुपा कान्हा यहीं मै देखती यमुना किनारे पर,
कहीं चुपके से आकर हाथ मेरा अब पकड़ता है ।
घटा छायी है सावन की पिया तुम अब तो आ जाओ,
हुआ मुश्किल है रहना अब बदन सारा जकड़ता है ।
जिसे सौंपा थे मैने हुश्न अपना मान कर सब कुछ,
वही दिन रात देखो हाय अब मुझसे झगड़ता है ।
कवि कुलवंत सिंह
http://kavikulwant.blogspot.com
01 April 2008
तीसरे मोर्चे की बासी कढ़ी, बेकाबू महंगाई और पाखंडी वामपंथी
गत 5 वर्षों में सर्वाधिक बार अपनी विश्वसनीयता खोने वाले ये ढोंगी वामपंथी पता नहीं किसे बेवकूफ़ बनाने के लिये इस प्रकार की बकवास करते रहते हैं। क्या महंगाई अचानक एक महीने में बढ़ गई है? क्या दालों और तेल आदि के भाव पिछले एक साल से लगातार नहीं बढ़ रहे? क्या कांग्रेस अचानक ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की खैरख्वाह बन गई है? जिस “कॉमन मिनिमम प्रोग्राम” का ढोल वे लगातार पीटते रहते हैं, उसका उल्लंघन कांग्रेस ने न जाने कितनी बार कर लिया है, क्या लाल झंडे वालों को पता नहीं है? यदि ये सब उन्हें पता नहीं है तो या तो वे बेहद मासूम हैं, या तो वे बेहद शातिर हैं, या फ़िर वे परले दर्जे के मूर्ख हैं। भाजपा के सत्ता में आने का डर दिखाकर कांग्रेस ने वामपंथियों का जमकर शोषण किया है, और खुद वामपंथियों ने “शेर आया, शेर आया…” नाम का भाजपा का हौआ दिमाग में बिठाकर कांग्रेसी मंत्रियों को इस देश को जमकर लूटने का मौका दिया है।
अब जब आम चुनाव सिर पर आन बैठे हैं, केरल और बंगाल में इनके कर्मों का जवाब देने के लिये जनता तत्पर बैठी है, नंदीग्राम और सिंगूर के भूत इनका पीछा नहीं छोड़ रहे, तब इन्हें “तीसरा मोर्चा” नाम की बासी कढ़ी की याद आ गई है। तीसरा मोर्चा का मतलब है, “थकेले”, “हटेले”, “जातिवादी” और क्षेत्रीयतावादी नेताओं का जमावड़ा, एक भानुमति का कुनबा जिसमें कम से कम चार-पाँच प्रधानमंत्री हैं, या बनने की चाहत रखते हैं। एक बात बताइये, तीसरा मोर्चा बनाकर ये नेता क्या हासिल कर लेंगे? वामपंथियों को तो अब दोबारा 60-62 सीटें कभी नहीं मिलने वाली, फ़िर इनका नेता कौन होगा? मुलायमसिंह यादव? वे तो खुद उत्तरप्रदेश में लहूलुहान पड़े हैं। बाकी रहे अब्दुल्ला, नायडू, चौटाला, आदि की तो कोई औकात नहीं है उनके राज्य के बाहर। यानी किसी तरह यदि सभी की जोड़-जाड़ कर 100 सीटें आ जायें, तो फ़िर अन्त-पन्त वे कांग्रेस की गोद में ही जाकर बैठेंगे, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के नाम पर। क्या मिला? नतीजा वही ढाक के तीन पात। और करात साहब को पाँच साल बाद जाकर यह ज्ञान हासिल हुआ है कि गरीबों के नाम पर चलने वाली योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार हो रहा है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को छूट देने के कारण महंगाई बढ़ रही है… वाह क्या बात है? लगता है यूपीए की समन्वय समिति की बैठक में सोनिया गाँधी इन्हें मौसम का हाल सुनाती थीं, और बर्धन-येचुरी साहब मनमोहन को चुटकुले सुनाने जाते थे। तीसरे मोर्चे की “बासी कढ़ी में उबाल लाने” का नया फ़ण्डा इनकी खुद की जमीन धसकने से बचाने का एक शिगूफ़ा मात्र है। इनके पाखंड की रही-सही कलई तब खुल गई जब इनके “विदेशी मालिक” यानी चीन ने तिब्बत में नरसंहार शुरु कर दिया। दिन-रात गाजापट्टी-गाजापट्टी, इसराइल-अमेरिका का भजन करने वाले इन नौटंकीबाजों को तिब्बत के नाम पर यकायक साँप सूंघ गया।
इन पाखंडियों से पूछा जाना चाहिये कि –
1) स्टॉक न होने के बावजूद चावल का निर्यात जारी था, चावल निर्यात कम्पनियों ने अरबों के वारे-न्यारे किये, तब क्या ये लोग सो रहे थे?
2) तेलों और दालों में NCDEX और MCX जैसे एक्सचेंजों में खुलेआम सट्टेबाजी चल रही थी जिसके कारण जनता सोयाबीन के तेल में तली गई, तब क्या इनकी आँखों पर पट्टी बँधी थी?
3) आईटीसी, कारगिल, AWB जैसे महाकाय कम्पनियों द्वारा बिस्कुट, पिज्जा के लिये करोड़ों टन का गेंहूं स्टॉक कर लिया गया, और ये लोग नन्दीग्राम-सिंगूर में गरीबों को गोलियों से भून रहे थे, क्यों?
जब सरकार की नीतियों पर तुम्हारा जोर नहीं चलता, सरकार के मंत्री तुम्हें सरेआम ठेंगा दिखाते घूमते हैं, तो फ़िर काहे की समन्वय समिति, काहे का बाहर से मुद्दा आधारित समर्थन? लानत है…। आज अचानक इन्हें महंगाई-महंगाई चारों तरफ़ दिखने लगी है। ये निर्लज्ज लोग महंगाई के खिलाफ़ प्रदर्शन करेंगे? असल में यह आने वाले चुनाव में संभावित जूते खाने का डर है, और अपनी सर्वव्यापी असफ़लता को छुपाने का नया हथकंडा…
Suresh Chiplunkar
http://sureshchiplunkar.blogspot.com