14 June 2008

छडिकाऍं - 2

(1)

किन लफ्ज़ो में बताए, किस तरह जी रहे है।

न ज़हर मिला न जाम, अब तो आँसू पी रहे है।।

(2)

जब चूक जाते है निशाने से थोड़ी नज़रसानी होती है।

गलतियाँ जो हम करते है उनको परेशानी होती है।।

(3)

नज़रों से बोलने की कोशिश मै तमाम करता हूँ,

हर सुबह उठता हूँ खुद को दफ़न हर शाम करता हूँ।

लोगों की नज़रों में चुभने लगा हूँ,

जब से शुरू तेरे नाम से, हर काम को करता हूँ।।

2 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

सभी छडि़काऍं बहुत अच्‍छी तरीके से प्रस्‍तुत किया है। थोड़ा सुधार की आवाश्‍यकता है जो मैने आपकी हर कविता, शायरी में देखी है, पर कहने में झिझक रहा था।

राजीव रंजन प्रसाद said...

अच्छी क्षणिकायें..

***राजीव रंजन प्रसाद