सारे शहर में खुशियाँ ही खुशियाँ,
मेरे घर में मातम है।
दिल मेरे दर्द भरा है,
आँखो में गम ही गम है।।
अपना जीवन कुछ भी नही,
ये नाटक का मंचन है।
सारे शहर में .........
कैसे कैसे किरदार जहॉ में,
कुछ है परेशां, कुछ मस्त फिजा में,
कैसे ये खुद को पहचाने
टूटे सारे दर्पण है।
सारे शहर में .........
कुछ है खफ़ा, कुछ नखरे में,
कुछ है आज़ाद खुद पिंजरे में,
कैसे सुनाए हाल-ए-दिलहम,
हर दृश्य विहंगम है।
सारे शहर में .........
बादल सारे बिखर गए है
कैसी से ‘प्रलय’ की दुनियाँ,
सुख-दुख का जो संगम है।
सारे शहर में .........
by प्रलयनाथ ज़ालिम, दिनाँक 2 अप्रेल 2005
5 comments:
अच्छा लगा !
bahut manabhavan kavita .dhanyawaad.
बढ़िया है, लिखते रहिये.
आप सभी महानुभावों को, धन्यवाद
अच्छा लगा
कैसे कैसे किरदार जहॉ में,
कुछ है परेशां, कुछ मस्त फिजा में,
कैसे ये खुद को पहचाने
टूटे सारे दर्पण है।
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