वफाओं को हमने चाहा,
वफाओं का साथ मिला।
इश्क की गलियो में भटकते रहे,
घर आये तो बाबू जी का लात मिला।।
घर लातों को तो हम झेल गये,
क्योकि यें अन्दर की बात थी।
पर इश्क का इन्ताहँ तब हुई जब,
गर्डेन में उसके भाई का हाथ पड़ा।।
इश्क का भूत हमनें देखा है,
जब हमारे बाबू जी ने उतारा था।
फिछली दीवाली में पर,
जूतों चप्पलों से हमारा भूत उतारा था।।
इश्क हमारी फितरत में है,
इश्क हमारी नस-नस में है।
बाबू की की धमकियों से हम नही डरेगें,
हम तो खुल्लम खुल्ला प्यार करेगें।।
अब आये चाहे उसका भाई,
चाहे साथ लेकर चला आये भौजाई।
इश्क किया है कोई चोरी नही की,
तुम्हारे बाप के सिवा किसी से सीना जोरी नही की।।
कई अरसें से कोई कविता नही लिखी, मित्र शिव ने कहा कि कुछ लिख डालों कुछ भाव नही मिल नही रहे थे किन्तु एक शब्द ने पूरी रचना तैयार कर दी, मै इसे कविता नही मानता हूँ, क्योकि यह कविता कोटि में नही है, आप चाहे जो कुछ भी इसे नाम दे सकतें है, यह बस किसी के मन को रखने के लिये लिखा गया।
5 comments:
बढ़िया है, करते जाइए।
घुघूती बासूती
ye post to mene kal bhi padhi thi. acchi hai.
अभी एकाध पहले ही तो यह पढ़वाये थे भाई. फिर पिट गये क्या??
वफाओं को हमने चाहा,
वफाओं का साथ मिला।
इश्क की गलियो में भटकते रहे,
घर आये तो बाबू जी का लात मिला।।
kyon....?
babooji kanhaa the
unako pata kaise chalaa...?
LIKHATE RAHIYE JALD HI AA RAHA HOON.
BAHUT ACHHI
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