मेरे पङौस मे रहने वाला गबरू डायबिटीज का रोगी है और छोटा मोटा मजदूरी का काम कर पेट पालता है. गबरू का बी पी एल कार्ड मैं अपनी तमाम जानकारियों के बाद भी नहीं बनवा पाया .क्यों कि उसने हमारे वर्तमान वार्ड मैंबर के विरोध में मतदान किया था.तो मुझे याद आई 4-5 साल पहले की एक घटना जब मै जोधपुर आयुर्विज्ञान महाविध्यालय से चर्म रोग रोग विभाग में एम डी करते समय , एक दिन एक अच्छा सूटेड बूटेड मरीज पिंपल्स दिखाने के लिए आया.चूंकि हम वरिष्ठ रेजिडेंट चिकित्सक थे,इसलिए रोगी को देखने के बाद उपचार लिखने का अधिकार भी हमें ही था.मैनें जैसे ही दवाई लिखने के लिए पैन चलाना प्रारंभ किया उसने अपना बी पी एल कार्ड आगे किया .चूंकि बी पी एल मरीजों को सरकार की नीति के अनुसार समस्त औषधियां मुफ्त में मिलती थी,इसलिए मैं चौंका ,क्यों कि चिकित्सालय अधीक्षक का मौखिक आदेश था कि ऐसे रोगियों को आवश्यक दवाईयां ही लिखी जायें,और पिंपल्स में ऐसी कोई समस्या नहीं कि जान पे बन आ रही हो .तो मैने उससे पूछा कि भाई आप क्या करते हैं तो उसने बोला कि मैं सिविल इंजिनियर हूं,तो मैने कहा कि इंजिनियर गरीब कैसे हो सकता है.....उसने आंखे तरेर कर मेरी तरफ देखा ,और बोला ...क्यों गरीब को इंजीनियर बनने का भी हक नहीं है क्या........सचमुच लोकतंत्र मैं कोई भी गरीब हो सकता है...बस एक सर्टिफिकैट चाहिये......... क्या गरीब इंजिनियर नहीं हो सकता......
2 comments:
achchha vyang pradhan chot kiya hai. jo dohra var karta hai.
आज तो मलाई का ही जमाना है, लोग मलाई दार तो हो जाते है किन्तु मलाई त्यागने को तैयार नही होते है। :)
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