एक बार फ़िर वही कहानी दोहराई गई, नेताओं ने हमेशा की तरह देश के आत्मसम्मान की जगह पैसे को तरजीह दी, कुर्सी को प्रमुखता दी| मैंने पिछले लेख में लिखा था कि “शरद पवार कम से कम अब तो मर्दानगी दिखाओ”…लेकिन नहीं| समूचे देश के युवाओं ने जमकर विरोध प्रकट किया, मीडिया ने भी (अपने फ़ायदे के लिये ही सही) दिखावटी ही सही, देशभक्ति को दो दिन तक खूब भुनाया| इतना सब होने के बावजूद नतीजा वही ढाक के तीन पात| शंका तो उसी समय हो गई थी जब NDTV ने कहा था कि “बीच का रास्ता निकालने की कोशिशें जारी हैं…”, तभी लगा था कि मामले को ठंडा करने के लिये और रफ़ा-दफ़ा करने के लिये परम्परागत भारतीय तरीका अपनाया जायेगा| भारत की मूर्ख जनता के लिये यह तरीका एकदम कारगर है, मतलब एक समिति बना दो, जो अपनी रिपोर्ट देगी, फ़िर न्यायालय की दुहाई दो, फ़िर भी बात नहीं बने तो भारतीय संस्कृति और गांधीवाद की दुहाई दो… बस जनता का गुस्सा शान्त हो जायेगा, फ़िर ये लोग अपने “कारनामे” जारी रखने के लिये स्वतन्त्र !!!
आईसीसी के चुनाव होने ही वाले हैं, शरद पवार की निगाह उस कुर्सी पर लगी हुई है, दौरा रद्द करने से पवार के सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खराब हो जाते, क्योंकि जो लोग हमसे भीख लेते हैं (वेस्टइंडीज, बांग्लादेश आदि) उनका भी भरोसा नहीं था कि वे इस कदम का समर्थन करते, क्योंकि इन देशों के मानस पर भी तो अंग्रेजों की गुलामी हावी है, इसलिये टीम को वहीं अपमानजनक स्थिति में सिडनी में होटल में रुकने को कह दिया गया, ताकि “सौदेबाजी” का समय मिल जाये| दौरा रद्द करने की स्थिति में लगभग आठ करोड़ रुपये का हर्जाना ऑस्ट्रेलिया बोर्ड को देना पड़ता| जो बोर्ड अपने चयनकर्ताओं के फ़ालतू दौरों और विभिन्न क्षेत्रीय बोर्डों में जमें चमचेनुमा नेताओं (जिन्हें क्रिकेट बैट कैसे पकड़ते हैं यह तक नहीं पता) के फ़ाइव स्टार होटलों मे रुकने पर करोड़ों रुपये खर्च कर सकता है, वह राष्ट्र के सम्मान के लिये आठ करोड़ रुपये देने में आगे-पीछे होता रहा| फ़िर अगला डर था टीम के प्रायोजकों का, उन्हें जो नुकसान (?) होता उसकी भरपाई भी पवार, शुक्ला, बिन्द्रा एन्ड कम्पनी को अपनी जेब से करनी पड़ती? इन नेताओं को क्या मालूम कि वहाँ मैदान पर कितना पसीना बहाना पड़ता है, कैसी-कैसी गालियाँ सुननी पड़ती हैं, शरीर पर गेंदें झेलकर निशान पड़ जाते हैं, इन्हें तो अपने पिछवाड़े में गद्दीदार कुर्सी से मतलब होता है|
तारीफ़ करनी होगी अनिल कुम्बले की… जैसे तनावपूर्ण माहौल में उसने जैसा सन्तुलित बयान दिया उसने साबित कर दिया कि वे एक सफ़ल कूटनीतिज्ञ भी हैं| इतना हो-हल्ला मचने के बावजूद बकनर को अभी सिर्फ़ अगले दो टेस्टों से हटाया गया है, हमेशा के लिये रिटायर नहीं किया गया है| हरभजन पर जो घृणित आरोप लगे हैं, वे भी आज दिनांक तक नहीं हटे नहीं हैं, आईसीसी का एक और चमचा रंजन मदुगले (जो जाने कितने वर्षों से मैच रेफ़री बना हुआ है) अब बीच-बचाव मतलब मांडवाली (माफ़ करें यह एक मुम्बईया शब्द है) करने पहुँचाया गया है| मतलब साफ़ है, बदतमीज और बेईमान पोंटिंग, क्लार्क, सायमंड्स, और घमंडी हेडन और ब्रेड हॉग बेदाग साफ़…(फ़िर से अगले मैच में गाली-गलौज करने को स्वतन्त्र), इन्हीं में से कुछ खिलाड़ी कुछ सालों बाद आईपीएल या आईसीएल में खेलकर हमारी जेबों से ही लाखों रुपये ले उड़ेंगे और हमारे क्रिकेट अधिकारी “क्रिकेट के महान खेल…”, “महान भारतीय संस्कृति” आदि की सनातन दुहाई देती रहेंगे|
सच कहा जाये तो इसीलिये इंजमाम-उल-हक और अर्जुन रणतुंगा को सलाम करने को जी चाहता है, जैसे ही उनके देश का अपमान होने की नौबत आई, उन्होंने मैदान छोड़ने में एक पल की देर नहीं की… अब देखना है कि भारतीय खिलाड़ी “बगावत” करते हैं या “मैच फ़ीस” की लालच में आगे खेलते रहते हैं… इंतजार इस बात का है कि हरभजन के मामले में आईसीसी कौन सा “कूटनीतिक” पैंतरा बदलती है और यदि उसे दोषी करार दिया जाता है, तो खिलाड़ी और बीसीसीआई क्या करेंगे? इतिहास में तो सिडनी में हार दर्ज हो गई…कम से कम अब तो नया इतिहास लिखो…
- सुरेश चिपलूनकर, उज्जैन
2 comments:
सहमति में उठे मेरे दोनो हाथ गिन लें.
यह लीपा पोती शायद अभी और दूर जायेगी.
मान सम्मन गया भाड् मे. इनका बस चले तो यह देश भी गिरवी रख दें.
आपकी चिन्तन जायज है, राजनेताओ में मनोंकाक्षा दिखती है और वे अपने लाभ के लिये देश हित को भी ताक पर रख देते है, इन राजनेताओं ने खेल को अपनी जागीर बना रखी है इसीकारण आज देख खेल में पिछड़ा है।
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