Dainik Bhaskar Indore Tea Party
हाल ही में इन्दौर में दैनिक भास्कर अखबार द्वारा एक सामूहिक चाय पार्टी का आयोजन किया गया था। जिसमें लगभग 32000 लोगों ने एक साथ चाय पी और इस “करतब” को गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में जगह दी गई। इसके लिये गिनीज बुक की विशेष प्रतिनिधि इन्दौर आईं थीं और उन्होंने सारे वाकये की वीडियो रिकॉर्डिंग भी की।
सबसे आपत्तिजनक लेकिन मजे की बात यह थी कि इस बड़े तामझाम को “इन्दौर के विकास” से जोड़ा गया। महीने भर तक “भास्कर” में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर बताया गया कि “सारा इन्दौर” दैनिक भास्कर के साथ एकजुट होगा, इससे इन्दौर की एकता प्रदर्शित होगी, इससे इन्दौर का विकास होगा आदि-आदि। अमूमन ऐसी लफ़्फ़ाजियाँ आमतौर पर मार्केटिंग “गुरु”(?) अपनाते रहते हैं। प्रत्यक्ष तौर पर किसी मूर्ख को भी दिखाई दे रहा है कि यह सारी कवायद इन्दौर के विकास (?) के लिये तो बिलकुल नहीं थी, सिर्फ़ “रिकॉर्ड” बनाने के लिये भी नहीं थी, यह साफ़-साफ़ दैनिक भास्कर की मार्केटिंग का एक फ़ंडा था, जिसमें ब्रुक बाँड रेड लेबल नाम की चाय कम्पनी ने भी एक प्रमुख भूमिका निभाई।
हम भारतवासियों को नाटक-नौटंकी-खेल-तमाशे-झाँकी-झंडे की जैसे आदत सी पड़ गई है, यदि कोई काम सीधे तौर पर ईमानदारी से कर दिया जाये तो लगता ही नहीं काम हुआ है। कोई भी काम करने के लिये (और यहाँ तो कोई काम भी नहीं करना था, चाय पिलाने के अलावा) बड़ा सा तमाशा होना जरूरी है। फ़िर उस तमाशे को कोई एक “नोबल” सा नाम दिया जाये, ताकि लोगों को लगे कि “देखो हम तो कितने नाकारा हैं कि घर से उठकर मुफ़्त की चाय पीने भी नहीं जा सकते, और अगला है कि मेहनत किये जा रहा है इन्दौर के विकास के लिये, कितनी पीड़ा है उसके मन में इन्दौर की तरक्की के लिये।
एक साथ हजारों लोगों के चाय पीने से इन्दौर का विकास कैसे होगा यह समझ में नहीं आता, क्या उससे खराब सड़कें ठीक हो जायेंगी, या हजारों कप चाय पीने भर से इन्दौर के भदेस लोग ट्रैफ़िक नियम सीख जायेंगे, या एक स्टेडियम मे इकठ्ठे होकर गाना-बजाना कर लिया तो इन्दौर का प्रदूषण कम हो जायेगा, या फ़िर भू-माफ़िया अचानक गाँधीवादी हो जायेगा और हथियाई हुई जमीनें सरकार को वापस भले न करे, लेकिन उसके पूरे पैसे सरकार को दे देगा।
जाहिर है कि ऐसा कुछ भी नहीं होना है, न कभी हुआ है, न कभी होगा। लेकिन भारत की जनता को ऐसी नौटंकियों से बहलाया खूब जा सकता है, और इस काम में हमारे नेता और कथित मार्केटिंग गुरु उस्ताद हैं, लेकिन कोढ़ में खाज की बात यह है कि अब इस तमाशे में अखबार भी शामिल हो गये हैं, उन्हें भी अपनी “रीडरशिप” और “खपत संख्या” की चिंता सताने लगी है। जिस अखबार को सरकार, सरकारी कारिंदों, भ्रष्ट अधिकारियों, भू-माफ़ियाओं, अवैध अतिक्रमणों, प्रदूषण जैसी समस्याओं को लेकर अपने अखबार में आग उगलना चाहिये, रोजाना एक से बढ़कर एक भंडाफ़ोड़ करना चाहिये, प्रशासन की नाक नाली में रगड़ना चाहिये, वह चाय पिलाने में लगा हुआ है “विकास” और “एकता” के नाम पर…
हालांकि यह कोई पहला और आखिरी उदाहरण नहीं है, कुछ माह पहले भी मध्यप्रदेश सरकार ने सभी स्कूलों में बच्चों को “गरीबी हटाने” की शपथ दिलवाई थी। अब खुद ही सोचिये, स्कूलों में बच्चों को गरीबी हटाने की शपथ दिलाने से गरीबी कैसे मिट सकती है? जिन आईएएस अफ़सरों और सरकार ने मिलकर यह नौटंकी रचाई थी, गरीबी तो दर-असल उन्हीं लोगों के कारण फ़ैली है, भला उसमें स्कूली बच्चे क्या करेंगे? लेकिन नहीं, वही तथाकथित “उत्सवशीलता” और “जनभागीदारी” के नाम पर जैसे धर्मगुरु तमाशे करते हैं, आये दिन सरकारें, एनजीओ, प्रशासन कुछ न कुछ करता रहता है। कभी एड्स को लेकर मानव श्रृंखला बनाई जायेगी (भले ही अस्पतालों की हालत नरक से बदतर बना दी हो), कभी बच्चों के हाथों में तख्तियाँ पकड़ा कर पोलियो का प्रचार किया जायेगा, कभी कोई प्रवचनकार अपने ढोल-नगाड़े-बैंड-बाजे के साथ एक लम्बी सी शोभायात्रा निकालेंगे (जाहिर है कि विश्व शांति के नाम पर), कहने का मतलब यह कि ईमानदारी से काम करने के अलावा सब कुछ किया जाता है। इस सारे खेल में लाखों रुपया कभी एनजीओ खा जाते हैं, कभी अफ़सर खा जाते हैं, कभी ठेकेदार और उद्योगपति खा जाते हैं…
जनता भी ऐसी होती है कि जैसे उसे अपनी समस्याओं से कोई लेना-देना ही न हो। लोग-बाग आते हैं, तमाशा देखते हैं, चाय-वाय पीते हैं, प्रवचन हों तो तर घी का चकाचक प्रसाद ग्रहण करते हैं, पिछवाड़े से हाथ पोंछते हैं और अपने-अपने घर !!! वाकई क्या मूर्खता है… रही बात दैनिक भास्कर की, तो फ़िलहाल तो वह “माल” कूटने में लगा हुआ है, ढेरों विज्ञापन, ढेरों संस्करण, न जाने क्या-क्या बेचने के लिये विशेष परिशिष्ट (?), महिलाओं की किटी पार्टी जैसी थर्ड क्लास बात की भी पेज भर की रिपोर्टिंग, ताजमहल के लिये SMS भिजवाने की मुहिम, हिन्दी की दुर्दशा और भाषा का भ्रष्टाचार बढ़ाने में भी ये सबसे आगे हैं… आखिर ये हो क्या रहा है? और खुद को कहलाते हैं भारत का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार (आज तक चैनल भी ऐसा ही दावा करता रहा है, और उसका स्तर क्या है सभी जानते हैं)। सिर्फ़ एक छोटी सी बात यह भूल गये हैं वह है “पत्रकारिता और अखबार का लक्ष्य तथा उनकी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियाँ”…
सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
2 comments:
रिकार्ड की बातें रिकार्ड बुक में ही अच्छी लगती है, वास्तविकता के यह बातें, भारतीय समाज के मुँह पर तमाचा होता है, आये दिन समाचार चैनलों तथा पेपरों में वहीं दिखाया जाता है जिसका सरोकार आम आदमी से नही होता है। बड़े बड़ हीरों हीरोइनों के चित्र प्रकाशित होते है कभी समाज में बदलाव करने वाले समाचार नही आ पाते है।
ये सब इंडिया और भारत के वैचारिक मतभेद को सामने लाते हैं...
इंडिया यानी की जहाँ केवल सतही होता है सबकुछ...
जबकि भारत wo है जहाँ दिल और दिमाग सब सही काम में लगाये जाते हैं..ना की ऐसे ओछे कामों में
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