17 April 2015

एक भोर,

एक भोर,
दूजी भोर,
तीजी भोर,
लगातार होती भोर.....
आज तक मेरे आँगन मी लगे बिही के पेड़ पर
बैठ कर कौए की
कोई कांव-कांव नहीं !
एक शाम
दूजी शाम,
तीजी शाम,
मैं कभी न खड़ी हो सकी
प्रिय की प्रतीक्षा में ,
घर की चौखट पे ....!!
एक-एक कर सारे तीज त्यौहार निकल गए,
मैं विधवा आज भी बेडियों से जकड़ी
आख़िरी दिन के इंतज़ार में हूँ,

6 comments:

रीतेश रंजन said...

बहुत सही संकलन है आपका...
आप ने बहुत सही लिखा है ...

Pramendra Pratap Singh said...

महाशक्ति समूह पर प्रथम प्रकाशित कविता की बधाई स्‍वीकार कीजिए।

आपने बहुत अच्छा, वास्‍तविकता से परिपूर्ण लिखा है, आज विधवा की स्थिति दयनीय है, वह एक आदमी के मर जाने पर विधवा कहलाने लगती है, जिसमें उसका कोई गुनाह नही होता है।

बधाई

बाल भवन जबलपुर said...

aapasabakaa aabhaaree hoon...?

Udan Tashtari said...

बढ़िया रचना, बधाई.

Anonymous said...

bahut khoob

बाल भवन जबलपुर said...

मैं विधवा आज भी बेडियों से जकड़ी
आख़िरी दिन के इंतज़ार में हूँ,
मेरी दादी जो सर पर बाल नहीं रखती थी....
मैंने पूछा था ऐसा क्यों...?
उत्तर किताबों ने दिया दादी जी ने कभी नहीं बताया था कुछ
यही आधार है कविता का
आप सबका आभारी हूँ