28 July 2008

माँ को जहाँ जाना है वहीं जायेगीं

विन्‍ध्याचल भवानी की महिमा अपरम्‍पार है, एक सज्‍जन माता की दुर्लभ चित्र लेकर जा रहे थे। अचानक वह किसी कारण वश कहीं छूट गया। एक दिन एक व्‍यक्ति फोन करता कि माता की तस्‍वीर मेरे पास है आप अपना पता बता दे तो मै उसे पहुँचा दूँ। उन सज्‍जन ने अपना नाम और मोबाईल नम्‍बर लिख दिया था। उन सज्‍जन ने उक्‍त फोन करने वाले से कहा कि बन्‍धु माता को मेरे द्वारा पर अभी नही आना था, माता को आपके घर पर ही आसन ग्रहण करना था। आप माता की विधिवत पूजा करें और माता को अपने गृह में विराजमान करें।

निश्चित रूप से हम बस तो एक अंश है, सारा किया धरा तो मॉं का ही होता है, जो समय से पहले नही होता है। माँ को जहाँ जाना होगा वहीं जायेगी, वह किसी व्‍यक्ति विशेष से तालुक नही रखती है। जो होना लिखा है वही होता है, जो नही होता है उसमें भी माँ की इच्‍छा और आशीर्वाद है।

 

जय माँ विन्‍ध्‍यवाशिनी

27 July 2008

पाँच सौ “दया नायक” चाहिये, गाँधीगिरी से कुछ नहीं होगा…

भारत में बम विस्फ़ोटों का सिलसिला लगातार जारी है… नेताओं का अनर्गल प्रलाप और खानापूर्ति (यह पोस्ट पढ़ें) भी हमेशा की तरह जारी है, साथ ही जारी है हम भारतीयों (खासकर छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों का प्रलाप और “गाँधीगिरी” नाम की मूर्खता भी – इसे पढ़ें)। पता नहीं हम लोग यह कब मानेंगे कि आतंकवाद अब इस देश में एक कैंसर का रूप ले चुका है। आतंकवाद या आतंकवादियों का निदान अब साधारण तरीकों से सम्भव नहीं रह गया है। अब “असाधारण कदम” उठाने का वक्त आ गया है (वैसे तो वह काफ़ी पहले ही आ चुका है)। जब शरीर का कोई अंग सड़ जाता है तब उसे काटकर फ़ेंक दिया जाता है, एक “बड़ा ऑपरेशन” (Major Surgery) किया जाता है, ठीक यही किये बिना हम आतंकवाद से नहीं लड़ सकते। लचर कानूनों, समय काटती घिसी-पिटी अदालतों, आजीवन सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले “थकेले” धर्मनिरपेक्षतावादियों, भ्रष्ट पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के रहते आतंकवाद समाप्त होने वाला नहीं है। अब इस देश को आवश्यकता है कम से कम पाँच सौ “दया नायक” की, ऐसे पुलिस अफ़सरों की जो देशभक्त और ईमानदार हैं, लेकिन “व्यवस्था” के हाथों मजबूर हैं और कुछ कर नहीं पा रहे। ऐसे पुलिस अफ़सरों को चुपचाप अपना एक तंत्र विकसित करना चाहिये, “समान विचारधारा वाले” अधिकारियों, पुलिस वालों, मुखबिरों आदि को मिलाकर एक टीम बनाना चाहिये। यह टीम आतंकवादियों, उनके खैरख्वाहों, पनाहगाहों पर जाकर हमला बोले, और उन्हें गिरफ़्तार न करते हुए वहीं हाथोंहाथ खत्म करे। यदि हम गिलानी, अफ़जल, मसूद, उमर जैसे लोगों को नहीं पकड़ते तो न हमें उन्हें अपना “दामाद” बनाकर रखना पड़ता, न ही कंधार जैसे प्रकरण होते। क्या कोई बता सकता है कि हमने अब्दुल करीम तेलगी, अबू सलेम आदि को अब तक जीवित क्यों रखा हुआ है? क्यों नहीं उन जैसों को जल्द से जल्द खत्म कर देते हैं? क्या उन जैसे अपराधी सुधरने वाले हैं? या उन जैसे लोग माफ़ी माँगकर देशभक्त बन जाने वाले हैं? या क्या उनके अपराध छोटे से हैं?

आतंकवाद अब देश के कोने-कोने में पहुँच चुका है (courtesy Bangladesh और Pakistan), लेकिन हम उसे कुचलने की बजाय उसका पोषण करते जा रहे हैं, वोट-बैंक के नाम पर। हमें यह स्वीकार करने में झिझक होती है कि रिश्वत के पैसों के कारण भारत अन्दर से खोखला हो चुका है। इस देश में लोग पेंशनधारियों से, श्मशान में मुर्दों की लकड़ियों में, अस्पतालों में बच्चों की दवाइयों में, विकलांगों की ट्राइसिकल में, गरीबों के लिये आने वाले लाल गेहूँ में… यहाँ तक कि देश के लिये अपनी जान कुर्बान कर देने वाले सैनिकों के सामान में भी भ्रष्टाचार करके अपनी जेबें भरने में लगे हुए हैं। देशभक्ति, अनुशासन, त्याग आदि की बातें तो किताबी बनती जा रही हैं, ऐसे में आप आतंकवाद से लड़ने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? इन सड़े हुए अधिकारियों के बल पर? या इस गली हुई व्यवस्था के बल पर, जो एक मामूली जेबकतरे को दस साल तक जेल में बन्द कर सकती है, लेकिन बिजली चोरी करने वाले उद्योगपति को सलाम करती है।

नहीं… अब यह सब खत्म करना होगा। जैसा कि पहले कहा गया कि हमें कम से कम 500 “दया नायक” चाहिये होंगे, जो मुखबिरों के जरिये आतंकवादियों को ढूँढें और बिना शोरशराबे के उन्हें मौत के घाट उतार दे (खासकर हमारे “नकली मीडिया” को पता चले बिना)। और यह काम कुछ हजार ईमानदार पुलिस अधिकारी अपने व्यक्तिगत स्तर पर भी कर सकते हैं। कहा जाता है कि ऐसा कोई अपराध नहीं होता जो पुलिस नहीं जानती, और कुछ हद तक यह सही भी है। पुलिस को पूर्व (रिटायर्ड) अपराधियों की मदद लेना चाहिये, यदि किसी जेबकतरे या उठाईगीरे को छूट भी देनी पड़े तो दे देना चाहिये बशर्ते वह “काम की जानकारी” पुलिस को दे। फ़िर काम की जानकारी मिलते ही टूट पड़ें, और एकदम असली लगने वाले “एनकाउंटर” कैसे किये जाते हैं यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। अपराधियों, आतंकवादियों का पीछा करके उन्हें नेस्तनाबूद करना होगा, सिर्फ़ आतंकवादी नहीं बल्कि उसके समूचे परिवार का भी सफ़ाया करना होगा। उनका सामाजिक बहिष्कार करना होगा, उनके दुकान-मकान-सम्पत्ति आदि को कुर्क करना होगा, उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर देना चाहिये, तभी हम उन पर मानसिक विजय प्राप्त कर सकेंगे। अभी तो हालत यह है कि पुलिस की टीम या तो भ्रष्ट मानसिकता से ग्रस्त है या फ़िर परास्त मानसिकता से।



“संजू बाबा” नाम के एक महान व्यक्ति ने “गाँधीगिरी” नाम की जो मूर्खता शुरु की थी, उसे जरूर लोगों ने अपना लिया है, क्योंकि यह आसान काम जो ठहरा। एक शहर में ट्रैफ़िक इंस्पेक्टर तक “गाँधीगिरी” दिखा रहे हैं, चौराहे पर खड़े होकर खासकर लड़कियों-महिलाओं को फ़ूल भेंट कर रहे हैं कि “लायसेंस बनवा लीजिये…”, बच्चों को फ़ूल भेंट कर रहे हैं कि “बेटा 18 साल से कम के बच्चे बाइक नहीं चलाते…”… क्या मूर्खता है यह आखिर? क्या इससे कुछ सुधार आने वाला है? इस निकम्मी गाँधीगिरी की बजाय अर्जुन की “गांडीवगिरी” दिखाने से बात बनेगी। सिर्फ़ एक बार, नियम तोड़ने वाले की गाड़ी जब्त कर लो, चौराहे पर ही उसके दोनों पहियों की हवा निकालकर उसे घर से अपने बाप को लाने को कहो, देखो कैसे अगली बार से वह सड़क पर सीधा चलता है या नहीं? लेकिन नहीं, बस लगे हैं चूतियों की तरह “गाँधीगिरी के फ़ूल” देने में। इसी मानसिकता ने देश का कबाड़ा किया हुआ है। आक्रामकता, जीतने का जज्बा और लड़ने का जीवट हममें है ही नहीं, हाँ ऊँची-ऊँची बातें करना अवश्य आता है, “भारत विश्व का गुरु है…”, “भारत ने विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाया…”, “हिन्दू धर्म सहनशील है, सहिष्णु है (मतलब डरपोक है)…” आदि-आदि, लेकिन इस महान देश ने कभी भी स्कूल-कॉलेजों में हर छात्र के लिये कम से कम तीन साल की सैनिक शिक्षा जरूरी नहीं समझी (यौन शिक्षा ज्यादा जरूरी है)।

जब व्यवस्था पूरी तरह से सड़ चुकी हो, उस समय केपीएस गिल, रिबेरो जैसे कुछ जुनूनी व्यक्ति ही देश का बेड़ा पार लगा सकते हैं, आतंकवाद से लड़ाई “मरो या मारो” की होनी चाहिये, “मरो” पर तो वे लोग हमसे अमल करवा ही रहे हैं, हम कब “मारो” पर अमल करेंगे? देश के गुमनाम “दया नायकों” उठ खड़े हो…

, , , , , , , ,

23 July 2008

आसान नही है

राहों में चलते रहना,
आगे बढ़ना,
आसान नही है।

मन्जिल की मन्जिल,
पर चढ़ना,
आसान नही है।

असफलताओं से डर कर,
जिन्‍दगी जीना,
आसान नही है।

दिल पर लगे घावों के,
दर्द को सहना,
आसान नही है।

बीतों हुए लम्‍हों को,
दिल से निकानना,
आसान नही है।

कलेजे के टुकड़े से,
अलग हो कर जीना,
आसान नही है।

मॉं के ऑचल के,
प्‍यार को भूला
पाना आसान नही है।

17 July 2008

पंडित प्रताप नारायण मिश्र स्मृति युवा साहित्‍यकार सम्‍मान

पंडित प्रताप नारायण मिश्र स्मृति युवा साहित्‍यकार सम्‍मान

            हेतु

साहित्‍यकारों से प्रविष्टियाँ आमंत्रित

 

प्रत्‍येक निम्‍न विधा में से एक साहित्‍यकार का चयन किया जायेगा। विधाये है -

1. कविता,
2. कथा साहित्‍य,
3. नटक,
4. बाल साहित्‍य
5 पत्रक‍ारिता
6 संस्‍कृत एवं
7 नेपाली भाषा

सभी चयनित युवा साहित्‍यकारों को सम्‍मान में प्रशस्तिपत्र, प्रतीक चिन्‍ह, अंगवस्‍त्र एवं रूप 5000/- की नकद राशि न्यास द्वारा भेंट की जायेगी।

त्रयोदश सम्‍मान सम्‍मान समारोह में शामिल होने के लिये 40 वर्ष तक की आयु के साहित्‍यकार ही आपने छायाचित्र साहि आत्‍मकथ्‍य (बायोडाटा) अपनी सम्‍पूर्ण कृतियों का समीक्षात्‍माक परिचय तथा प्रकाशित नमूने की किसी पुस्‍तक के साथ 31 जुलाई, 2008 तक निम्‍न पते पर भेज सकतें है।

डाक्‍टर गणेश सारस्‍वत, संयोजक चयन समिति

पता
भाऊराव देवरस सेवा न्‍याय, सरस्‍वती कुंज, निराला नगर, लखनऊ- 226020
दूरभाष - 2789406, 6532653

11 July 2008

वो बिछडा हमसफ़र ..बहुत हसीन था

दिल तडफता है न जाओ अभी छोड़कर
यह. मरता है तुम्ही पर अभी नादान है
बेजान रहा करता है...... जब तुम न हो
बस तुम्हे देखकर यह दिल धड़कता. है.

उदासियाँ रह जायेगी तुम चली जाओगी
बस परछाईयां रह जायेगी तेरी यादो की
दफ़न हो जावेगी दिल की तमाम चाह्ते
घर के आंगन में वीरानियाँ रह जायेगी.

गुलाब के माफिक मुरझा गए अरमान
बह गई है हसरते शराब के पैमानों से
जिंदगी का सफर कट ही जाएगा यारो
वो बिछडा हमसफ़र ..बहुत हसीन था

हमें कुछ इल्म नही जब से जुदा हुए
हमें कुछ ख़बर नही वह खुश या नही.
जब कभी सामने आ गए वो मेरे सनम
बारिश में मैंने चाँद का नजारा कर लिया.

07 July 2008

खतरे में माता हिंगलाज

पाकिस्‍तान के बलूचिस्‍तान प्रान्‍त में हिन्‍दू के 52 शक्ति पीठों में से एक हिंगलात माता के मन्दिर का अस्तित्‍व खतरे में नज़र आ रहा है। पाकिस्‍तान की संघीय सरकार ने मंदिर पास बांध बनाने का प्रस्‍ताव रखा है जिसे बूलचिस्‍तान प्रदेश सरकार ने संघीय सरकार से अपनी परियो‍जना को बदलने का अनुरोध किया है।

इस मंदिर के महत्‍व में कहा जाता है कि यह हिंगलाज हिंदुओं के बावन शक्तिपीठों में से एक है। मंदिर काफ़ी दुर्गम स्थान पर स्थित है, पौराणिक कथाओं केअनुसार भगवान शिव की पत्नि सती के पिता दक्ष ने जब शिवजी की आलोचना की तो सती सहन नहीं कर सकीं और उन्होंने आदाह कर लिया। माता सती के शरीर के 52 टुकड़े गिरे जिसमें से सिर गिरा हिंगलाज में। हिंगोल यानी सिंदूर, उसी से नाम पड़ा हिंगलाज। हिंगलाज सेवा मंडली के वेरसीमल के देवानी ने बीबीसी को बताया कि चूंकि माता सती का सिर हिंगलाज में गिरा था इसीलिए हिंगलाज के मंदिर का महत्व बहुत अधिक है।

जब किसी पवित्र खजू़र के पेड़ को बचाये जाने के लिये सड़क को मोड़ा जा सकता था तो 52 शक्ति पीठों में से एक हिंगलात माता के मन्दिर को क्‍यो नही बचाया जा सकता है। प्रान्‍तीय सरकार के सभी सदस्‍य इस मंदिर को बचाये जाने के पक्ष में है किन्‍तु हर जगह लालू-मुलायम जैसे सेक्‍यूलर नेता पाये जाते है। ऐसा ही उस प्रान्‍त भी है हिंदू समुदाय से संबंध रखने वाले एक विधायक ने मंदिर के पास बाँध के निर्माण की हिमायत की। बलूचिस्तान प्रांतीय असेंबली के सदस्य बसंत लाल गुलशन ने ज़ोर दे कर कहा है कि `धर्म को सामाजिक-आर्थिक विकास की राह में अवरोध बनाए बगैर' सरकार को इस परियोजना पर काम जारी रखना चाहिए। 

हे भगवान इस धरा से इन जयचन्‍द्रों का अंत कब होगा ?

04 July 2008

mahilaon ki jemmedari khatm



साधो
एक समय कहा जाता था की महिलाये अब पुरुषों से कंधे से कन्धा मिलकर चलने लगी है सो अब कहा जाएगा की स्त्रियों से पुरूष भी पीछे नही रहे। क्योंकि अब मेल फिमेल बन गया है। यह कारनामा किया है एम् अमरीकी युवक ने जो एक स्त्री की तरह नव महीने तक गर्भ धारण किए रहा । और आज एक बछि को जना है । मेरी तरफ़ से उसे तहे दिल से शुक्रिया । इस नेक कम के लिए इनाम भी मिलना चाहिए क्योंकि इसने हमारे देश की लगातार घट रही आधी आबादी को पोर करने में मदद करेगा। ओ इस तरह की अब अमेरिकिओं को महिलों और लड़किओं की जरुरत कम पड़ेगी इसलिए ...........kramsh

भाग 1

03 July 2008

कश्मीर - नेहरू परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ… (भाग-1)

अक्टूबर 2002 में जिस वक्त पीडीपी-कांग्रेस की मिलीजुली सरकार कश्मीर में बनने वाली थी और “सौदेबाजी” जोरों पर थी, उस वक्त वहाँ के एक नेता ने कहा था कि “मुफ़्ती साहब को कांग्रेस के बाद सत्ता का आधा हिस्सा लेना चाहिये”, उसके पीछे उनका तर्क था कि “तब हम लोग (यानी पीडीपी) जब चाहे तब सरकार गिरा सकते हैं, अपने चाहे गये समय पर और अपने गढ़े हुए मुद्दों के हिसाब से”… आज वह आशंका सच साबित हो गई है, हालांकि पीडीपी ने पहले जमकर सत्ता का उपभोग कर लिया और अब अन्त में कोई बहाना बनाकर उन्हें सत्ता से हटना ही था क्योंकि चुनाव को सिर्फ़ दो माह बचे हैं। लेकिन क्या कभी इस बात पर विचार किया गया है कि इस प्रकार की राजनैतिक बाजीगरी से भारत का कितना नुकसान होता है? क्यों भारत इन देशद्रोहियों की इच्छापूर्ति के लिये करोड़ों रुपया खर्च करे? “कश्मीर”, हमारी-आपकी-सबकी छाती पर, नेहरू परिवार द्वारा डाला एक बोझ है जो हम सब पिछले साठ वर्षों से ढो रहे हैं।

कश्मीर में एक “शांतिपूर्ण”(?) चुनाव करवाने का मतलब होता है अरबों रुपये का खर्च और सैकड़ों भारतीय जवानों की मौत। लेकिन मुफ़्ती जैसे देशद्रोही नेता कितनी आसानी से मध्यावधि चुनाव की बातें करते हैं। चुनाव के ठीक बाद मुफ़्ती ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि “अब नौजवानों को बन्दूक का रास्ता छोड़ देना चाहिये, क्योंकि “उनके प्रतिनिधि” अब विधानसभा में पहुँच गये हैं, और चाहे हम सत्ता में रहें या बाहर से समर्थन दें, उनकी माँगों के समर्थन में काम करते रहेंगे”… क्या इसके बाद भी उनके देशद्रोही होने में कोई शक रह जाता है? लेकिन हमेशा से सत्ता की भूखी रही कांग्रेस और उनके जनाधारविहीन गुलाम नबी आजाद जैसे लोग तो तुरन्त से पहले कश्मीर की सत्ता चाहते थे और इन देशद्रोहियों से समझौता करने को लार टपका रहे थे। पीडीपी और कुछ नहीं हुर्रियत का ही बदला हुआ रूप है, और उनके ही मुद्दे आगे बढ़ाने में लगी हुई है, यह बात सभी जानते हैं, कांग्रेसियों के सिवाय।

आइये अब देखते हैं कि कैसे कश्मीरी लोग भारत को लूटने में लगे हुए हैं, भारत उनके लिये एक “सोने के अंडे देने वाली मुर्गी” साबित हो रहा है, और यह सब हो रहा है एक आम ईमानदार भारतीय के द्वारा दिये गये टैक्स के पैसों से…

सत्ता में आते ही सबसे पहले महबूबा मुफ़्ती ने SOG (स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप) को भंग कर दिया। जिस एसओजी ने बहुत ही कम समय में एक से एक खूंखार आतंकवादियों को मार गिराया था, उसे भंग करके महबूबा ने अपने “प्रिय” लोगों, यानी तालिबान, अल-कायदा और पाकिस्तानियों को एक “वेलकम” संदेश दिया था। महबूबा का संदेश साफ़ था “आप भारत में आइये, आपका स्वागत है, यहाँ आपका कुछ नहीं बिगड़ने दिया जायेगा, कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जायेगा…” इस प्रकार का खुला निमंत्रण दोबारा शायद न मिले। जाहिर है कि इससे हमें क्या मिलने वाला है, अपहरण, फ़िरौतियाँ, आतंकवाद समूचे देश में।

कश्मीर में अपहरण और राजनेताओं का गहरा सम्बन्ध है, और यह सम्बन्ध एक मजबूत शक की बुनियाद तैयार करते हैं। सबसे पहले 8 दिसम्बर 1989 को रूबिया सईद का अपहरण किया था, जो कि मुफ़्ती मुहम्मद की लड़की है। आतंकवादियों(?) की मुख्य माँग थी जेल में बन्द उनके कुछ खास साथियों को छोड़ना। जिस वक्त बातचीत चल ही रही थी और आतंकवादी सिर्फ़ धनराशि लेकर रुबिया को छोड़ने ही वाले थे, अचानक जेल में बन्द उनके साथियों को रिहा करने के आदेश दिल्ली से आ गये (सन्दर्भ मनोज जोशी – द लॉस्ट रिबेलियन: कश्मीर इन नाइन्टीज़)। उस वक्त केन्द्रीय गृहमंत्री थे मुफ़्ती मुहम्मद सईद और प्रधानमंत्री थे महान धर्मनिरपेक्ष वीपी सिंह। इस एक फ़ैसले ने एक परम्परा कायम कर दी और यह सिलसिला अपने वीभत्सतम रूप में कंधार प्रकरण के तौर पर सामने आया, जब हमारी “महान धर्मनिरपेक्ष” प्रेस, और न के बराबर देशप्रेम रखने वाले “धनिकों” के एक वर्ग के “छातीकूट अभियान” के दबाव के कारण भाजपा को भी मसूद अजहर और उमर शेख को छोड़ना पड़ा। रूस में एक थियेटर में चेचेन उग्रवादियों द्वारा बन्धक बनाये गये 700 बच्चों को छुड़ाने के लिये रूसी कमांडो ने जैसा धावा बोला, या फ़िर इसराइल के एक अपहृत विमान को दूसरे देश से उसके कमांडो छुड़ाकर लाये थे, ऐसी कार्रवाई आज तक किसी भी भारतीय सरकार ने नहीं की है। असल में केन्द्र में (इन्दिरा गाँधी के अवसान के बाद) हमेशा से एक पिलपिली, लुंजपुंज और “धर्मनिरपेक्ष” सरकार ही रही है। किसी भी केन्द्र सरकार में आतंकवादियों से सख्ती से पेश आने और उनके घुटने तोड़ने की इच्छाशक्ति ही नहीं रही (किसी हद तक हम इसे एक आम भारतीय फ़ितरत कह सकते हैं, दुश्मन को नेस्तनाबूद करके मिट्टी में मिला देना, भारतीयों के खून में, व्यवहार में ही नहीं है, अब यह हमारे “जीन्स” में ही है या फ़िर हमें “अहिंसा” और “माफ़ी” का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर ऐसा बना दिया गया है, यह एक शोध का विषय है)। अच्छा… उस वक्त केन्द्र में सरकार में “प्रगतिशील” और “धर्मनिरपेक्ष” लोगों की फ़ौज थी, खुद वीपी सिंह प्रधानमंत्री, और सलाहकार थे आरिफ़ मुहम्मद खान, इन्द्र कुमार गुजराल, अरुण नेहरू, और इन “बहादुरों” ने आतंकवादी बाँध के जो गेट खोले, तो अगले दस वर्षों में हमे क्या मिला? 30000 हजार लोगों की हत्या, हजारों भारतीय सैनिकों की मौत, घाटी से हिन्दुओं का पूर्ण सफ़ाया, धार्मिक कट्टरतावाद, हिन्दू तीर्थयात्रियों का कत्ले-आम, क्या खूब दूरदृष्टि पाई थी “धर्मनिरपेक्ष” सरकारों ने !!!!

अभी आगे तो पढ़िये साहब… 22 सितम्बर 1991 को गुलाम नबी आजाद के साले तशद्दुक का आतंकवादियों ने अपहरण किया। नतीजा? जेल में बन्द कुछ और आतंकवादी छोड़े गये। गुलाम नबी आजाद उस वक्त केन्द्र में संसदीय कार्य मंत्री थे, और अब कश्मीर के मुख्यमंत्री हैं। तात्पर्य यह कि गुलाम नबी आजाद और मुफ़्ती मुहम्मद में “अपहरण” और जेल में बन्द कैदियों को छोड़ना ये दो बातें समान हैं। एक और साहब हैं “सैफ़ुद्दीन सोज़”… कांग्रेस के सांसद, जो पहले नेशनल कॉन्फ़्रेंस में थे और जिनके प्रसिद्ध एक वोट के कारण ही एक बार अटल सरकार गिरी थी (लन्दन से फ़ोन पर उन्हें सलाह देने वाले थे शख्स थे वीपी सिंह)। सोज़ की बेटी नाहिदा सोज़ का अगस्त 1991 में अपहरण किया गया और एक बार फ़िर जेल में बन्द कुछ आतंकवादियों को रिहा किया गया।

क्या आपको यह सब रहस्यमयी नहीं लगता? हमेशा ही इन कथित बड़े नेताओं के रिश्तेदारों को ही अपहरण किया जाता है? आज तक किसी भी कश्मीरी नेता ने देशहित में कभी यह नहीं कहा कि आतंकवादियों के आगे झुकने की आवश्यकता नहीं है। तथ्य साफ़ इशारा करते हैं कि इन नेताओं और आतंकवादियों के बीच निश्चित ही सांठगांठ है। यही नेता “रास्ते से भटके नौजवानों” की आवाज विधानसभा में उठाने का दावा करते हैं और बन्दूक छोड़ने की “घड़ियाली आँसू वाली” अपीलें करते नजर आते हैं।

(भाग-2 में हम देखेंगे कि कैसे कश्मीर हम भारतीयों पर बोझ बना हुआ है…) (भाग-2 में जारी रहेगा…)

सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com

, , , , , , ,