30 May 2020

क्या है भगवान का मतलब हिंदू धर्म के अनुसार

कुछ लोग हिंदू धर्म के संबंध में बिना सोचे समझे इस प्रकार का वर्णन कर देते है जो अत्यंत  दुखी करने वाला होता हैं ऐसी टिप्पणियां निहायत अध्ययन रहित और दुर्भावना से प्रेरित होती है।

     ऐसे लोगों को मैं स्पष्ट रूप से बता देना चाहता हूं कि हिंदू धर्म में भय से भगवान का निर्माण नहीं हुआ है। डर से देवता का निर्माण नहीं हुआ है। हमारे यहां हिंदू धर्म में देवी और देवता वह हैं जो संसार को कुछ देते हैं। संसार से कुछ भी नहीं लेते हैं। हमारे यहां विभिन्न परंपराओं में पशु,पक्षी,वृक्ष और झाड़ियों की पूजा होती है। 

     यहां पूजा का अर्थ धन्यवाद देना है। उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करना है। आपने देखा होगा हिंदू समाज के लोग नीम के पेड़ में जल छोड़ते हैं। नीम को ही शीतला माता का दर्जा दिया गया है। आज विश्व मान रहा है कि नीम में औषधीय गुण हैं यह तमाम बीमारियों से व्यक्ति को दूर रखता है।

     दुर्भावना से भरी व्याख्या व्यक्ति को दिग्भ्रमित कर सकती है। सनातन संस्कृति के विशाल भंडार का अध्ययन करके ही यदि इस पर टीका टिप्पणी की जाए तो उचित होगा।

04 September 2015

प्रगति के प्रेरक हैं युवा : स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद का कहना है कि बहती हुई नदी की धारा ही स्वच्छ, निर्मल तथा स्वास्थ्यप्रद रहती है। उसकी गति अवरुद्ध हो जाने पर उसका जल दूषित व अस्वास्थ्यकर हो जाता है। नदी यदि समुद्र की ओर चलते-चलते बीच में ही अपनी गति खो बैठे, तो वह वहीं पर आबद्ध हो जाती है। प्रकृति के समान ही मानव समाज में भी एक सुनिश्चित लक्ष्य के अभाव में राष्ट्र की प्रगति रुक जाती है और सामने यदि स्थिर लक्ष्य हो, तो आगे बढ़ने का प्रयास सफल तथा सार्थक होता है।
हमारे आज के जीवन के हर क्षेत्र में यह बात स्मरणीय है। अब इस लक्ष्य को निर्धारित करने के पूर्व हमें विशेषकर अपने चिरन्तन इतिहास, आदर्श तथा आध्यात्मिकता का ध्यान रखना होगा। स्वामीजी ने इसी बात पर सर्वाधिक बल दिया था। देश की शाश्वत परंपरा तथा आदर्शों के प्रति सचेत न होने पर विश्रृंखलापूर्ण समृद्धि आएगी और संभव है कि अंततः वह राष्ट्र को प्रगति के स्थान पर अधोगति की ओर ही ले जाए।
 
विशेषकर आज के युवा वर्ग को, जिसमें देश का भविष्य निहित है, और जिसमें जागरण के चिह्न दिखाई दे रहे हैं, अपने जीवन का एक उद्देश्य ढूँढ लेना चाहिए। हमें ऐसा प्रयास करना होगा ताकि उनके भीतर जगी हुई प्रेरणा तथा उत्साह ठीक पथ पर संचालित हो। अन्यथा शक्ति का ऐसा अपव्यय या दुरुपयोग हो सकता है कि जिससे मनुष्य की भलाई के स्थान पर बुराई ही होगी। स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि भौतिक उन्नाति तथा प्रगति अवश्य ही वांछनीय है, परंतु देश जिस अतीत से भविष्य की ओर अग्रसर हो रहा है, उस अतीत को अस्वीकार करना निश्चय ही निर्बुद्धिता का द्योतक है।

अतीत की नींव पर ही राष्ट्र का निर्माण करना होगा। युवा वर्ग में यदि अपने विगत इतिहास के प्रति कोई चेतना न हो, तो उनकी दशा प्रवाह में पड़े एक लंगरहीन नाव के समान होगी। ऐसी नाव कभी अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचती। इस महत्वपूर्ण बात को सदैव स्मरण रखना होगा। मान लो कि हम लोग आगे बढ़ते जा रहे हैं, पर यदि हम किसी निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर नहीं जा रहे हैं, तो हमारी प्रगति निष्फल रहेगी। आधुनिकता कभी-कभी हमारे समक्ष चुनौती के रूप में आ खड़ी होती है। इसलिए भी यह बात हमें विशेष रूप से याद रखनी होगी।
 
इसी उपाय से आधुनिकता के प्रति वर्तमान झुकाव को देश के भविष्य के लिए उपयोगी एक लक्ष्य की ओर सुपरिचालित किया जा सकता है। स्वामी ने बारंबार कहा है कि अतीत की नींव के बिना सुदृढ़ भविष्य का निर्माण नहीं हो सकता। अतीत से जीवनशक्ति ग्रहण करके ही भविष्य जीवित रहता है। जिस आदर्श को लेकर राष्ट्र अब तक बचा हुआ है, उसी आदर्श की ओर वर्तमान युवा पीढ़ी को परिचालित करना होगा, ताकि वे देश के महान अतीत के साथ सामंजस्य बनाकर लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकें।

02 September 2015

विवेकानंद : कौन मांगने वाला, कौन याचक




एक बार की बात है, विवेकानन्द के पिता चल बसे, तो घर में बहुत गरीबी थी और घर मे भोजन भी नही था कि माँ और बेटा दोनों भोजन कर पाएँ. तो विवेकानन्द अपनी माँ को कह कर की आज किस मित्र के घर निमंत्रण है, मै वहाँ जाता हूँ - कोई निमंत्रण नही होता था, कोई मित्र भी नही था - सड़को पर चक्कर लगा कर घर वापस लौट आते थे. अन्यथा भोजन इतना कम है की माँ उनको खिला देगी और ख़ुद भूखी रहेगी. तो भूखे घर लौट आते. हँसते हुए आते की आज तो बहुत गजब का खाना मिला, क्या चीजे बनी थी! 

रामकृष्ण को पता चला तो उन्होंने कहा की तू कैसा पागल है, भगवन से क्यों नही कह देता! सब पूरा हो जाऐगा . तो विवेकानन्द ने कहा की खाने-पीने की बात भगवन से चलाऊँ तो जरा बहुत साधारण बात हो जायेगी. फिर भी रामकृष्ण ने कहा, तूं एक दफा कह कर देख! तो विवेकानन्द को भीतर भेजा. घंटा बीता, डेढ़ घंटा बीता, वे मन्दिर से बाहर आए, बड़े आन्दित थे, नाचते हुए बाहर निकले थे। रामकृष्ण ने कहा, मिल गया है?  मांग लिया न?  विवेकनद ने कहा, क्या?  रामकृष्ण ने कहा, तुझे मैंने कहा था की मांग अपनी रख देना। तू इतना आन्दित क्यों आ रहा है ? विवेकानन्द ने कहा, वह तो मैं भूल ही गया।
ऐसा कई बार हुआ। रामकृष्ण भेजते और विवेकानन्द वहाँ से बाहर आते और वे पूछते तो वे कहते, क्या? तो रामकृष्ण ने कहा, तूं पागल तो नही है! क्योंकि भीतर जब जाता है तो पक्का वचन देकर जाता है. विवेकानन्द कहते की जब भीतर जाता हूँ, तो परमात्मा से भी मांगूं, यह तो ख्याल ही नही रह जाता. देने का मन हो जाता है की अपने को दे दूँ. और जब अपने को देता हूँ तो इतना आनंद, इतना आनंद की फिर कैसी भूख, कैसी प्यास, कौन मांगने वाला, कौन याचक ?

01 September 2015

लोकमान्‍य बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक ने देश सेवा तथा समाज सुधार का बीड़ा बचपन में ही उठा लिया था। उनका जन्म 23 जुलाई, 1856 को हुआ था। पहले उनका नाम बलवंत राव था। वे अपने देश से बहुत प्यार करते थे। उनके बचपन की एक ऐसी ही घटना है, जिससे उनके देशप्रेम का तो पता चलता ही है, साथ ही यह भी पता चलता है कि छोटी-सी अवस्था में ही तिलक में कितनी सूझ-बूझ थी। 

बाल गंगाधर तिलक भारत के एक प्रमुख नेता, समाज सुधारक और स्वतन्त्रता सेनानी थे। ये भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता थे। इन्होंने सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वराज की माँग उठाई। इनका कथन "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा" बहुत प्रसिद्ध हुआ। इन्हें आदर से "लोकमान्य" (पूरे संसार में सम्मानित) कहा जाता था। इन्हें हिन्दू राष्ट्रवाद का पिता भी कहा जाता है। 

उस समय भारत अंगरेजों का गुलाम था, लेकिन देश में कुछ व्यक्ति ऐसे भी थे, जो उनकी गुलामी सहने को तैयार नहीं थे। उन्होंने अपने छोटे-छोटे दल बनाए हुए थे, जो अंगरेजों को भारत से बाहर निकालने की योजनाएं बनाते थे और उन्हें अंजाम देते थे। ऐसा ही एक दल बलवंत राव फड़के ने भी बनाया हुआ था। वह अपने साथियों को अस्त्र-शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग देते थे, ताकि समय आने पर अंगरेजों का डटकर मुकाबला किया जा सके। गंगाधर भी उनके दल में शामिल हो गए और टे्रनिंग लेने लगे। जब वह अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग में सिध्दहस्त हो गए, तो फड़के ने उन्हें बुलाया और कहा कि अब तुम्हारा प्रशिक्षण पूरा हुआ। तुम शपथ लो कि देश सेवा के लिए अपना जीवन भी बलिदान कर दोगे। इस पर गंगाधर बोले, 'मैं आवश्यकता पड़ने पर अपने देश के लिए जान भी दे सकता हूं, लेकिन व्यर्थ में ही बिना सोचे-समझे जान गंवाने का मेरा इरादा नहीं है। अगर आप यह सोचते हैं कि केवल प्रशिक्षण से ही अंगरेजों का मुकाबला हो सकता है, तो यह सही नहीं है। अब तलवारों का जमाना गया। अब बाकायदा योजनाएं बनाकर लड़ाई के नए तरीके अपनाने होंगे।' यह कहकर गंगाधर तेज कदमों से वहां से चले आए। फिर उन्होंने योजनाबध्द तरीके से देश के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर देश की आजादी की लड़ाई लड़ी। 

तिलक ने भारतीय समाज में कई सुधार लाने के प्रयत्न किए। वे बाल-विवाह के विरुद्ध थे। उन्होंने हिन्दी को सम्पूर्ण भारत की भाषा बनाने पर ज़ोर दिया। महाराष्ट्र में उन्होंने सार्वजनिक गणेश पूजा की परम्परा प्रारम्भ की ताकि लोगों तक स्वराज का सन्देश पहुँचाने के लिए एक मंच उपलब्ध हो। भारतीय संस्कृति, परम्परा और इतिहास पर लिखे उनके लेखों से भारत के लोगों में स्वाभिमान की भावना जागृत हुई। उनके निधन पर लगभग 2 लाख लोगों ने उनके दाह-संस्कार में हिस्सा लिया।
एक अगस्त, 1920 को उनका निधन हो गया।

31 August 2015

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका

इस संपूर्ण जड एवं चेतन संसार के कण कण में ईश्‍वर व्याप्त हैं| हिन्दू धर्म ने इस मूल तत्व को आदि काल में ही जान लिया था| वेद एवं पूराण ३३ करोड देवी देवतों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं जो कि मानव, पशू, नरपशु, ग्रह, नक्षत्र, वनस्पति तथा जलाशय इत्यादि हर रूप में व्याप्त हैं| पर इनके शिखर पर हैं त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु एवं सदाशिव ... ।

शिव के अनुयायी शैव्य एवं विष्णु के अनुयायी वैष्णव ; प्रतिस्पर्द्धा अपने इष्ट को श्रेष्ठ सिद्ध करने की; संधर्भ - कुछ तथ्य, कुछ भ्रांतिया ; लब्ध - कलेश ।


अनादि काल से चले आ रहे शैव एवं वैष्णव के मध्य चले आरहे प्रतिस्पर्द्धा पर एक आलेख...

विष्णु के भक्त वैष्णव कहलाते हैं तथा शिव भक्त शैव्य | पर वास्तव में अन्य कुछ धर्म एंव समुदाय के विपरीत वैष्णव तथा शैव्य हिन्दू धर्म में संघर्ष का कारण नहीं होते| वस्तुतः शैव्य विष्णू को भी पुजते हैं तथा वैष्णव शिव को भी पूजते हैं| तो वैष्णव तथा शैव्य सिर्फ अपने प्रमूख ईष्ट की मान्यता में एक दूसरे से अलग हैं| वैष्णव भगवान विष्णु को सव देवों में श्रेष्ठ मानता है तथा उन्हे त्रिदेवों से उपर परमेश्वर मानता है, तो शैव्य देवाधिदेव सर्वेश्वर शिव को परमेश्वर जानता है| यह आदि काल से चली आ रही परंपरा है| स्वंय वेद एवं पूराण अनेक उदाहरण प्रस्तूत करते हैं जिसमे शिव तथा विष्णु एक दूसरे अपना ही स्वरूप तथा परस्पर आदर्श बतलाते हैं| पर विघटन प्रकृति का नियम है| वेदोत्तर काल में इस मान्यता में भी अंतर आया| और शैव्य एंव वैष्णव परंपरा का एक कट्‍टर स्वरूप सामने आया ... "वीर शैव्य" तथा "वीर वैष्णव"| वीर वैष्णव का अधिक समय शिव तथा शैव्यों के द्वेष में ही बीतता है| वे शैव्यों के साथ संपर्क नहीं बढाते, वे शिव को नहीं पूजते, यहां तक की वे कभी कभी तो वे शैव्यों से जल भी ग्रहण नहीं करते| ठीक उसी प्रकार वीर शैव्य विष्णु तथा वैष्णवों से द्वेष को अपना परम कर्तव्य जानते हैं| वास्तव में ये शैव्य तथा वैष्णव न होकर "वीर" मात्र रह जाते हैं तथा एक दूसरे के विरोधी होने के बाद भी एक ही परंपरा का अनुसरण करते हैं| ये ज्ञान शुन्य होते हैं तथा अपने ही इष्ट के मूल रूप को नहीं जान पाते हैं| संपूर्ण जीवन साधना के बाद भी इन्हे दिव्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता तथा इनकी द्वेष भावना बहुदा इनके ही नाश का कारण सिद्ध होती है| वास्तव में ये अपने इष्ट को प्रसन्न करने की अपेक्षा उन्हे भी अप्रसन्न कर देते हैं| प्रजापती दक्ष का शिव विरोधी होने के कारण सर्वनाश हूआ, यद्यपि वे विष्णू भगवान की शरण में था| ठीक उसी प्रकार परम शिव भक्त होने के बाद भी ॠषि कागभूषंडी को अपने ही इष्ट का क्रोधभाजन बनना पडा तथा उनकी सिद्धियां नष्ट हूईं| कारण उन्होंने भगवान विष्णू के अवतार श्री राम का अनादर किया तथा तथा अपने तत्वज्ञानी गूरू लोमेश को वैष्णव जान उनकी अवहेलना की| वास्तव में लोमेश जैसे ज्ञानी ही परंज्ञान के अधिकारी होते हैं| यथार्थ में ईश्‍वर एक हैं|



वही परम कल्यानकारी तथा सर्वसमुद्भवकारण हैं| शिव का अर्थ होता है कल्यान| अतः जो कल्यानकारी है वही शिव हैं, उही परमात्मा हैं| परमात्मा का कोई स्वरूप नहीं होता| वे शुन्य सामान हैं| रूद्र का अर्थ होता है शुन्य, स्वरूप का ना होना| अतः रूद्र ही परमेश्वर हैं| निराकार परमेश्वर समय, काल तथा कारण के अनुसार अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं| शिवपूराण के अनुसार शिव जी ने ही सृष्टी के संपादन के लिए स्वंय से शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति के एका से का विष्णू स्वरूप धारण हूआ| विष्णू से ब्रह्मा की उत्पत्ती हूई| ब्रह्मा ने सृजन, विष्णु ने सुपालन का कार्यभार ग्रहण किया| फिर सृष्टी के पूनरसृजन के हेतू विलय की आवश्यकता होने पर शिव ने ही महादेव रूप धारण कर विलय का कार्य अपने हाथों में लिया| विष्णुपूराण के अनुसार परमेश्‍वर ही ब्रह्मा बन कर सृष्टी की रचना करते हैं, वे ही विष्णू बन कर सृष्टी का सुपालन करते हैं, तथा आयू के शेष हो जाने पर वे ही सदाशिव बन कर संहार करते हैं| वास्तव में वे एक ही हैं तथा ये विभिन्न नाम किसी व्यक्ति सामान देवों के नही वरण उन पदों तथा उपाद्धीयों के हैं जिन्हे धारण करण ईश्‍वर अपना कार्य कर रहे होते हैं| यह ठीक उसी प्रकार है जैसे हम एक हैं पर कोई हमें पूत्र जानता है तो कोई पिता, कोई शिष्य जानता है तो कोई गूरु, तथा हम ही किसी के लिए मित्र होते हैं, किसी के लिए शत्रू | और अनेकों के लिए तो हम कूछ होते भी नहीं| पर इन सब के मध्य हम एक ही होते हैं| तो फिर विवाद कैसा? कौन ब्रह्मा, विष्णु, महेश? कौन शिव, कौन शक्ति? जब वे एक ही हैं तो क्या अंतर पडता है यदि कोई उन्हे विष्णु के नाम से जाने तो कोई शिव के नाम से जाने तथा कोई शक्ति के नाम से? ईश्वर एक हैं| वे तीन त्रिदेवों अथवा ३३ करोड देवताओं में ही नहीं, अपितू संपूर्ण सृष्टी के कण कण में व्याप्‍त हैं|वे हमारे नश्‍‍वर शरीर के अन्दर की आत्मा हैं| वे हमारे सदविचार हैं| ब्रह्मा कर्ता हैं, विष्णू कार्य तथा कार्यफल हैं, शिव कारण हैं| त्रिदेव एक वृक्ष के सामन हैं| ब्रह्म उस वृक्ष के तना हैं, विष्णु उस वृक्ष के विस्तार है, डालिया, पत्ते, पूष्प तथा फल सामान हैं| सदाशिव उस वृक्ष के जड हैं| शिव जी की आरती इसी तत्व को संबोधित है| वास्तव में ये त्रिगूण शिव जी की आरती है जिसमे स्पष्ट शब्दों में उलेखित है ... ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका|प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका||



संकलित

30 August 2015

धर्म क्षेत्र

  1. इस जन्‍म में कम से कम इतना काम कर लेना चाहिेये, कि मनुष्‍य-जन्‍म से नीची योनि में जन्‍म न लेना पड़े।
  2. अपने घर में अन्न शुद्ध कमाई का होना चाहिये।
  3. धार्मिक पुस्‍तके घर में पड़े पड़े भी कल्‍याण करती है।
  4. स्‍वार्थ और अभिमान का त्‍याग करके अभाग्रस्‍तो को अन्‍न, जल, वस्‍त्रादि देना परम सेवा है।
  5. सत्‍पुरूष ही सत्‍प्रेम कर सकता है।

24 August 2015

श्यामा का दर्द यह शुभ दिन बार बार आये

श्‍यामा को फेफडे का क्षय नही था, बल्कि उसे अंत्र-छय था। जिसे डाक्‍टर लोग छ: वर्ष नही पहचान सके थे, और जब उनहोने उसे पहचाना तो वह लाइलाज हो चुका था। अपरेशन थिएटर में जाते वक्‍त वह जिस प्रकार मुस्‍काराई थी, उसने मुझे उसकी सुहागरात की मुस्कान याद दिला दी थी। वह बच्‍चों की सी मुस्‍कान कर चेहरा मेरे हृदय पर अंकित कर विदा हुई थी। मृत्‍यु शय्या पर वह हँसती रही कहीं मै यह न समझू कि उसे मने में कष्‍ट हो रहा है।
मृत्‍यु के एक दिन पूर्व उसने मेरी आँखों में आँखे डाल कर पूछा, “मै मर जाऊँगी तो तुम बहुत दुखी होगे ?” मै चुप रहा। उसने कहा, “मेरे मरने के बाद बहुत दुखी होना तो शादी कर लेना”। और ठीक मृत्‍यु के दिन उसेने मुझसे कहा था, “ मुझ पर कोई ऐसी रचना करना जिससे, जिससे दुनिया के अंदर मेरी याद रहे।“ कहा था इसलिये कि वह न रहे तो मुझे अपने सूनेपन, अपने खालीपन को भुलाने के लिये कुछ रहे। सृजन से अधिक डुबाने वाला कुछ नही।
संकीर्ण, कट्टरपंथी और प्राय: ईष्‍या द्वेष प्रेरित आलोचकों के आरोप मुझे पत्‍युत्‍र में गीत अथवा कविता लिखने को उकसा जाते थे। ‘कवि की वासना’, ‘कवि की निराशा’, ‘कवि का उपहास’ और ‘पथभ्रष्‍ट’ श्‍यामा की रोग शैय्या के निकट लिखे गये थे। कवि का गीत, लहरों का निमंत्रण और मांझ़ी आदि भी उसी समय की है। श्‍यामा की देहावसान के बाद इन सब कविताओं का संग्रह “मधुकलश” नाम से प्रकाशित हुआ जिसे मैने श्‍यामा की स्‍मृति मे विश्‍व वृक्षकी डाल से बांध दिया, जैसे मृतकों के लिये घंट बांधा जाता है। 27 नवम्‍बर को जिस दिन श्‍यामा का दसवां था उसी दिन मेरी 29वीं वर्षगाठ थी, तार से कई बधाई संदेश मिले ‘यह शुभ दिन बार-बार आये’। समय के इस व्‍यंग पर मुस्काराने के अतिरिक्‍त और क्‍या किया जा सकता था।?

24 July 2015

प. पू. डॉ. हेडगेवार ने कहा -

संगठन ही राष्‍ट्र की प्रमुख शक्ति होती है। संसार में कोई समस्‍या हल करनी हो तो वह शक्ति के आधार पर ही हो सकती है। शक्तिहीन राष्‍ट्र की कोई भी आकांक्षा कभी भी सफन नही होती। पर सामर्थ्‍यशाली राष्‍ट्र कोई भी काम, जब चाहे तब, अपनी इच्‍छानुसार कर सकता है।

16 July 2015

21वीं सदी में मीडिया के समक्ष चुनौतियां व भविष्य

भारतीय लोकतंत्र के स्थाई स्तंभ न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका के बदलते स्वरूप से आज लोकतांत्रिक मूल्यों में दिन पर दिन गिरावट आती जा रही है, जिससे पूरा देश गंभीर संकट के बीच उलझता जा रहा है। पत्रकारिता इसी लोकतंत्र का चौथा स्थाई स्तंभ है। जिसकी सजग भूमिका इस बदलते परिवेश की पृष्ठभूमि को सकारात्मक दिशा की ओर मोड़ सकती है। ऐसे समय में मीडिया जो पत्रकारिता की महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि है, के समक्ष गंभीर चुनौतियों का खड़ा होना स्वाभाविक है तथा उसकी कार्य प्रणाली पर निर्भर है इसका भविष्य। इतिहास साक्षी है। देश पर जब-जब भी गंभीर संकट आया है, पत्रकारिता की सजग पृष्ठभूमि ने ही सही दिशा में मार्ग प्रशस्त कर समूचे देकश को जागृत किया है। इसके आलोक में दुश्मनों को पहचानने एवं उससे लड़ने की उर्जा सदैव मिलती रही है। इसी कारण आज तक इस स्तंभ की साख पूरे देश ही नहीं, विश्व स्तर पर सर्वोच्च बनी हुई है। पूरा तंत्र इससे भयभीत रहता है। तथा इसकी सजग निगाहों के समक्ष खडे होने की किसी में भी गलत तरीके से हिम्मत नहीं होती।
स्वतंत्रता आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर नजर डाले तो इसके जागरूक स्वरूप को देखा जा सकता हैं जहां देश को आजाद कराने की दिशा में सक्रिय भूमिका निभाने वाले देशभक्तों ने इसका सहारा लिया। आवाज को जनता तक पहुंचाने उन्हें जाागृत करने में प्रतिबंध लगने के बावजूद भी ऐन-केन प्रकारेण समाचार पत्र निकाले जाने तथा वितरित किये जाने का प्रकरण सभी भली भांति जानते है। लाला लाजपत राय, माखन लाल चतुर्वेदी की कलम को इतिहास कभी भूला नहीं सकता। अनेक गुमनाम एवं चर्चित नाम भी इतिहास के पृष्ठों में अमर पृष्ठभूमि बना चुकें है। जिनकी सजग कलम, प्रखर आवाज ने सदियों की दास्ता से मुक्ति दिलााई। आज फिर से देश गंभीर संकट से गुजर रहा है, जहां लोकतंत्र के स्तंभों में प्रमुख न्यायपालिका, विधायिका, एवं कार्यपालिका का मूल स्वरूप दिन पर दिन स्वार्थ की परिधि में उलझकर बदलता जा रहा है।
विधायिका के बदलते जा रहे स्वरूप का साक्षात प्रमाण यहां के संसद एवं विधायक भवन दे रहें है। जहां गंभीर चिन्तन की जगह असभ्यता के पांव पसारते जा रहे है। दागी ही दगा से पूछ रहा है दागी कौन है। बाहुबल एवं अर्थबल के बढ़ते प्रभाव ने इसकी काया ही बदल गई है। अपराध पर अपराध करते जाइये और जब तक न्यायालय अंतिम रूप से अपराधों न मान लें किसे हिम्मत है जो अपराधी कह दे। न्यायालय भी जब कब्जे मे हो तो निर्णय का मजबूरन पक्ष में होना भी स्वाभाविक है। इस तरह की बदलती पृष्ठभूमि से भी सभी भलीं भांति परिचित है।
जहां न्याय पालिका की बदलती पृष्ठभूमि को आसानी से देखा जा सकता है। आने वाले समय में पक्ष विपक्ष की एकात्मक भूमिका न्यायपालिका के स्वतंत्र वजूद को लील जाने को तैयार बैठी है। कार्य पालिका का स्वरूप भी किसी से अपरिचित नहीं, जिस पर ऐन-केन प्रकारेण विधायिका का वर्चस्व स्वहित में देखा जा सकता है। वैसे कार्य पालिका पर नियन्त्रण हेतु विधायिका होती है, यह पहलू राष्ट्रहित एवं जनहित में सही तो माना जा सकता है। परन्तु जब विधायिका का कार्यपालिका पर नियन्त्रण राष्ट्रहित एवं जनहित को ताक पर रखकर स्वहित में होने लगे तो इस तरह का परिवेश निश्चित रूप से लोकतंत्र के लिए घातक है। आजकल कुछ इसी तरह की पृष्ठभूमि ज्यादा बनती जा रही है। जिसके कारण सरकार बदलते ही कार्यपालिका का स्वरूप बदल जाता है। ऐसे परिवेश में सही कार्य को मूर्त रूप दे पाना कतई संभव नही हो पाता। इस तरह के परिवेश 21वीं सदी की ओर बढ़ते कदम में स्वतंन्त्र सर्वाधिक बनते जा रहे हैं, जहां लोकतंत्र के अस्तित्व के समक्ष गंभीर संकट खड़ा है।
देश में बढ़ता आतंकवाद, भ्रष्टाचार, लूटपाट अनैतिक गतिविधिंयों की भरमार इस बदलते परिवेश की देन हैं। जहां न्यायपालिका भी जब स्वतंत्र पृष्ठभूमि नहीं बना पा रही है। विधायिका क्षेत्र में बढ़ते अनैतिक कदम लोकतंत्र के वास्तविक स्वरूप को ही बदलते जा रहे है। जहां देश का बुध्दिजीवी वर्ग कुंठित हो चला है। यह स्थिति निश्चित रूप से सभी के लिए घातक है। ऐसे परिवेश में जहां विधायिका हर प्रकार से लोकतंत्र के सजग स्तंभों पर हावी होती जा रही है, पत्रकारिता को इस दूषित वातावरण से अपने आपको अलग खड़ा कर अपनी पहचान बनानी होगी, तभी 21वीं सदी में पत्रकारिता का भविष्य सुरक्षित हो पायेगा। आज अर्थयुग का परिवेश चारों तरफ हावी नजर आ रहा है। इस परिवेश के बीच अपने वास्तविक स्वरूप को खड़ा करना एवं उजागर कर पाना मीडिया के समक्ष गंभीर चुनौतिया है, जिसे लीलने को विधायिका तैयार बैठी है। आज समूचा देश फिर से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पत्रकारिता की ओर आत्मविश्वास के साथ आत्मरक्षा कवच पाने की लालस देख रहा है। जहां इस भ्रष्ट होती जा रही व्यवस्था को दूर करने का मार्ग प्रशस्त हो सके। यह आजादी पाने की दिशा मेें नई जग की शुरूआत मानी जाएगी। जहां मीडिया को आज तड़क-भड़क आर्थिक युग की पृष्ठभूमि में अपनी पहचान बनाये रखनी होगी। यही 21वीं सदी की मीडिया के समक्ष गंभीर चुनौतियां है। तथा इसकी सफलता में उसका भविष्य सुरक्षित है।

03 July 2015

क्‍या आप सही हिन्‍दी लिख रहे है ?

अक्सर हम हिन्दी को लेकर दुविधा में रहते हैं, कि क्या हम सही बोल/लिख रहे है? इसका मुख्‍य कारण यह है कि हम गलत लिखते है इसलिये गलत उच्चारण भी करते हैं। जैसे कुछ लोग हिन्दी को हिन्दि, मालूम को मालुम या मलूम, विष का विश या विस और स्थान को अस्थान आदि लिखते है। यही कारण है कि वे बोलने में भी लिखने के अनुसार उच्चाकरण करते है। आज से हिन्दी की कक्षा शुरू हो रही है, इस कक्षा में हम कुछ ऐसे ही शब्दों ठीक करने का प्रयास करेगें।
गलत शब्‍द
सही शब्‍द
अस्‍पष्‍ट
स्‍पष्‍ट  
अस्‍कूल
स्‍कूल  
अस्‍थान
स्‍थान  
अछर, अच्‍छर
अक्षर
अस्‍नान
स्‍नान  
अस्‍पर्श 
स्‍पर्श  
गिरस्‍थी
गृहस्‍थी 
बेजजी, बेज्‍जती 
बेइज्ज़ती
स्त्रि, इस्‍त्री     
स्‍त्री
छिन भर, छन भर
छण भर
भगती, भक्‍ती
भक्ति
इस्थिति
स्थिति
छमा   
क्षमा   
मतबल 
मतलब
उधारण 
उदाहरण
ज़बरजस्‍ती     
जबरदस्‍ती
मदत  
मदद
उमर
उम्र   
नखलऊ, लखनउ
लखनऊ
मुकालबे
मुकाबले
अस्‍‍तुति
स्‍तुति
प्रालब्‍ध 
प्रारब्‍ध
शाशन, सासन, साशन,  
शासन 
बिद्या  
विद्या
शाबास 
शाबाश 
ग्यान
ज्ञाऩ
छत्रिय  
क्षत्रिय  
अधिकतर लोग इन शब्‍दों में हमेशा गलती करते है। कुछ ऐसे अक्षर भी जिनके कारण यह गलती हमेशा होती रहती है। वे अक्षर है- इ/ई, उ/ऊ, ए/ऐ, ओ/औ, स/श/ष, घ/ध और क्ष/छ को लिखने में गलती करते है, और यही कारण है कि हम लिखने के साथ बोलने में भी अशुद्धि दिखाते है।
गृहकार्य- यदि आपको भी कुछ ऐसे शब्दो का ज्ञान हो जिनका उच्‍चारण गलत होता है, बताइयेगा ताकि अगली कक्षा में उसे समायोजित किया जाय। अगली कक्षा के गुरूजी प्रमेन्‍द्र प्रताप सिंह रहेगें, बड़े शख्‍़त गुरूजी है उनसे बच कर रहना।