31 March 2008

अफ़जल मुझे प्‍यारा लगे - मेघा

भारत में डायनों की कमी नही है, जो समय समय पर अपना पिचासिनी रूप दिखाने के तत्‍पर रहती है। यह जानी मानी समाज सेविका मेधा पाटेकर है जो दिल्‍ली में अफजल के समर्थन में घरने पर बैठी है।

ये भारत के लिये पूतना से कम नही है जो कृष्‍ण को मारने के लिये सुन्‍दर स्‍त्री का रूप धरती है किन्‍तु सत्‍य के आये असली चेहरा आ ही जाता है। आज अफजल के मामले में मेधा की असली चेहरा सामने आ ही गया है। जो समाज सेविका के नाम पर आंतकवादियों के साथ दे रही है।

(यह चित्र अक्‍टूबर 2006 का है)

 

29 March 2008

जीवित व्यक्तियों पर डाक टिकट? क्या बकवास है…

केन्द्र सरकार के एक बयान के अनुसार सरकार जीवित व्यक्तियों पर भी डाक टिकट निकालने का विचार कर रही है। संचार मंत्री के अनुसार देश की विशिष्ट हस्तियों पर डाक टिकट छापने के लिये एक समिति इस बात का विचार कर रही है। सरकार ने जो दो-चार नाम गिनाये हैं उसके अनुसार शाहरुख खान, सचिन तेंडुलकर, सानिया मिर्जा आदि के चित्रों वाले डाक टिकट जारी किये जाने की योजना है।

हमारे देश में कुछ न कुछ नया अजूबा करने-दिखाने की हमेशा होड़ लगी रहती है। यह कथित नायाब विचार भी इसी “खुजली” का एक नमूना है। सबसे पहली बात तो यह है कि पहले से ही कई मरे हुए व्यक्तियों, प्रकृति, पशु-पक्षी, स्मारक आदि पर डाक टिकट जारी हो चुके हैं, फ़िर ये नया शिगूफ़ा कि “जीवित व्यक्तियों पर भी डाक टिकट” जारी किये जायेंगे, की कोई तुक नहीं है। जिस देश में इतनी मतभिन्नता हो, जहाँ “महान” माने जाने के इतने अलग-अलग पैमाने हों, जहाँ हरेक मरे हुए नेताओं तक की इज्जत नहीं होती हो, कई मरे हुए नेताओं को लोग आज भी खुलेआम गालियाँ देते हों, ऐसे में जीवित व्यक्तियों पर डाक टिकट जारी करना नितांत मूर्खता है, और जरूरत भी क्या है? क्या पहले से मरे हुए व्यक्ति कम पड़ रहे हैं, क्या विभिन्न जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, फ़ूल-पत्तियाँ आदि कम हैं जो नये-नये विवाद पैदा करने का रास्ता बना रहे हो? सरकार खुद ही सोचे, क्या शाहरुख सर्वमान्य हैं? क्या समूचा भारत उन्हें पसन्द करता है? और सबसे बड़ी बात तो यह कि डाक टिकट जारी करने का पैमाना क्या होगा? किस आधार पर यह तय किया जायेगा कि फ़लाँ व्यक्तित्व पर डाक टिकट जारी करना चाहिये? क्या डाक टिकट पर शाहरुख को सिगरेट पीते दिखाया जायेगा? या सचिन कोका-कोला की बोतल के साथ डाक टिकट पर दिखेंगे? सौ बात की एक बात तो यही है कि ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी है? क्या मरे हुए और पुराने “सिम्बॉल” कम पड़ रहे हैं, जो जीवितों के पीछे पड़े हो? या कहीं सरकार भी हमारे “न्यूड” (न्यूज) चैनलों की तरह सोचने लगी है कि धोनी, राखी सावन्त आदि पर डाक टिकट जारी करके वह डाक विभाग को घाटे से उबार लेगी? या उसे कोरियर के मुकाबले अधिक लोकप्रिय बना देगी? कोई तो लॉजिक बताना पड़ेगा…

जब एक बार सरकार कोई नीतिगत निर्णय कर लेगी तो सबसे पहले हमारे नेता उसमें कूद पड़ेंगे। इस बात की क्या गारंटी है कि कांग्रेसी चमचे सोनिया गाँधी पर डाक टिकट जारी नहीं करेंगे, फ़िर राहुल गाँधी, फ़िर प्रियंका गाँधी, फ़िर “वर्ल्ड चिल्ड्रन्स डे” के अवसर पर प्रियंका के दोनो बच्चे एक डाक टिकट पर… यानी एक अन्तहीन सिलसिला चल निकलेगा। एक बात और नजर-अन्दाज की जा रही है कि डाक टिकट पर छपे महापुरुषों के वर्तमान में क्या हाल होते हैं। सबसे अधिक खपत महात्मा गाँधी के डाक टिकटों की होती है। गाँधी की तस्वीर वाले उस डाक टिकट को न जाने कहाँ-कहाँ, और न जाने कैसे-कैसे रखा जाता है, थूक लगाई जाती है, रगड़ा जाता है, पोस्ट मास्टर अपनी बीवी का सारा गुस्सा उस पर जोर से ठप्पा लगाकर निकालता है। नोटों पर छपे गाँधी न जाने कैसे-कैसे लोगों के हाथों से गुजरते हैं, महिलाओं द्वारा जाने कहाँ-कहाँ रखे जाते हैं, क्या ये सब अपमानजनक नहीं है? क्या यह जरूरी है कि महापुरुषों का सम्मान नोटों और डाक टिकट पर ही हो? रही प्रेरणा की बात, तो भाई मल्लिका शेरावत पर डाक टिकट छापने से किसको प्रेरणा मिलने वाली है?

जिस देश में नल से पानी लेने की बात पर हत्या हो जाती हो, घूरकर देखने की बात पर अपहरण हो जाते हों, वहाँ जीवित व्यक्तियों पर डाक टिकट जारी करने से विवाद पैदा नहीं होंगे क्या? सोनिया पर डाक टिकट जारी होगा तो नरेन्द्र मोदी पर भी होगा और ज्योति बसु पर भी होगा। सचिन तेंडुलकर पर जारी होगा तो बंगाली कैसे पीछे रहेंगे… सौरव दादा पर भी एक डाक टिकट लो। सानिया मिर्जा पर डाक टिकट निकाला तो बुर्के में फ़ोटो क्यों नहीं छापा? शाहरुख के डाक टिकट की धूम्रपान विरोधियों द्वारा होली जलाई जायेगी। और फ़िर उद्योगपति पीछे रहेंगे क्या? मुकेश अम्बानी की जेब में 150 सांसद हैं तो उनका डाक टिकट जरूर-जरूर जारी होगा, तो विजय माल्या भी अपनी कैलेण्डर गर्ल्स के साथ एक डाक टिकट पर दिखाई देंगे… मतलब एक न खत्म होने वाली श्रृंखला चालू हो जायेगी। हाँ एक बात जरूर है कि सरकार की डाक टिकटों की बिक्री जरूर बढ़ जायेगी, कैसे? भई जब भी कांग्रेसी किसी राज्य से पोस्टकार्ड अभियान चलायेंगे तो सोनिया के टिकटों की माँग एकदम बढ़ जायेगी। बुद्धदेव भट्टाचार्य के मुखड़े वाले डाक टिकट सिंगूर और नंदीग्राम में खूब बिकेंगे। सबसे ज्यादा मजा लेगी आम जनता, जो अपनी-अपनी पसन्द के मुताबिक डाक टिकट के सामने वाले हिस्से में थूक लगायेगी।

यदि मजाक को एक तरफ़ रख दिया जाये, तो कुल मिलाकर सरकार का यह निर्णय बेहद बेतुका, समय खराब करने वाला और नये बखेड़े खड़ा करने वाला है। इसकी बजाय सरकार को ऐसे वीरों पर डाक टिकट जारी करना चाहिये जो निर्विवाद हों (और ऐसा शायद ही कोई मिले)।

सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com

28 March 2008

"लाडली-लक्ष्मी"

हमको मालूम न था कि एक दम सोच में बदलाव आ जाएगा ,बेटियों के बारे में बदलनी ही चाहिए ,एक सरकार सोच बदल देने में सफल क्यों हुई ......??क्या सरकारें केवल शासक होतीं हैं ....?आपको ये सवाल आपको सता रहें हैं आप खोज़ना चाहते हैं"यकीनन "
तो आप "लाडली-लक्ष्मी" योजना पे गौर करिए भारत में मध्य-प्रदेश एक ऐसा प्रदेश है जन्हाँ मानव-विकास को भी महत्त्व पूर्ण माना है... अधोसंराचानात्मक विकास के साथ साथ जीवन-समंकों की सकारात्मक दिशा तय करने वाली मध्य-प्रदेश सरकार ने जो कार्यक्रम चलाए उनमे "लाडली-लक्ष्मी " योजना सबसे चर्चित योजना है।
बेटियां अब समाज पर बोझ नहीं है अपितु लक्ष्मी सदृश्य है । प्रदेश सरकार ने बेटी के जन्म लेते ही उसे लखपति बनाने का मार्ग प्रशस्त किया है । सरकार द्वारा इसके लिये शुरू की गई ''लाडली लक्ष्मी'' योजना से मेरी परियोजना क्षेत्र बाल-विकास परियोजना बरगी ने जबलपुर जिले की किसी भी ग्रामीण परियोजना की तुलना में सर्वाधिक प्रकरण 490 प्रकरण तैयार कर विभाग अध्यक्ष को भेज दिए हैं. जिला कार्यक्रम अधिकारी महिला एवं बाल विकास विभाग श्री महेन्द्र द्विवेदी के मार्ग दर्शन में मुझे मिली इस सफलता की चाबी कुमारी माया मिश्रा,संध्या नेमा,मीना बड़कुल,नीलिमा दुबे,जीवन श्रीवास्तव,जयंती अहिरवार, सरला कुशवाहा,सुषमा मांडे के हाथों में रही । प्रदेश सरकार अपनी ओर से लाडली लक्ष्मी योजना के तहत पंजीकृत हर बालिका को 5 वर्ष तक प्रति वर्ष 6 हजार रूपये अर्थात कुल 30 हजार रूपये के राष्ट्रीय बचत पत्र क्रय करके देगी । जब बालिका विवाह योग्य होगी तब उसे करीबन लाख रूपये से अधिक की राशि मिलेगी । इसके अलावा बालिका जब छठी कक्षा में पहुंचेगी तब उसे दो हजार रूपये, नवी कक्षा में प्रवेश पर साढ़े सात हजार रूपये तथा 11वीं एवं 12वीं कक्षा में अध्ययन के दौरान 200 रूपये प्रतिमाह के हिसाब से छात्रवृत्ति भी प्रदान की जायेगी ।

क्या सचमुच भारत का मीडिया विदेशी हाथों में पहुँच चुका है?

भारत में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के मालिक कौन हैं? हाल ही में एक-दो ई-मेल के जरिये इस बात की जानकारी मिली लेकिन नेट पर सर्च करके देखने पर कुछ खास हाथ नहीं लग पाया (हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो मीडिया वाले ही बता सकते हैं) कि भारत के कई मीडिया समूहों के असली मालिक कौन-कौन हैं?

हाल की कुछ घटनाओं के मीडिया कवरेज को देखने पर साफ़ पता चलता है कि कतिपय मीडिया ग्रुप एक पार्टी विशेष (भाजपा) के खिलाफ़ लगातार मोर्चा खोले हुए हैं, गुजरात चुनाव और चुनावों के पूर्व की रिपोर्टिंग इसका बेहतरीन नमूना रहे। इससे शंका उत्पन्न होती है कि कहीं हमारा मीडिया और विख्यात मीडियाकर्मी किन्हीं “खास” हाथों में तो नहीं खेल रहे? भारत में मुख्यतः कई मीडिया और समाचार समूह काम कर रहे हैं, जिनमें प्रमुख हैं – टाइम्स ऑफ़ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू, आनन्दबाजार पत्रिका, ईनाडु, मलयाला मनोरमा, मातृभूमि, सहारा, भास्कर और दैनिक जागरण समूह। अन्य कई छोटे समाचार पत्र समूह भी हैं। आईये देखें कि अपुष्ट और गुपचुप खबरें क्या कहती हैं…

समाचार चैनलों में एक लोकप्रिय चैनल है NDTV, जिसका आर्थिक फ़ंडिंग स्पेन के “गोस्पेल ऑफ़ चैरिटी” से किया जाता है। यह चैनल भाजपा का खासमखास विरोधी है। इस चैनल में अचानक “पाकिस्तान प्रेम” जाग गया है, क्योंकि मुशर्रफ़ ने इस एकमात्र चैनल को पाकिस्तान में प्रसारण की इजाजत दी। इस चैनल के सीईओ प्रणय रॉय, कम्युनिस्ट पार्टी के कर्ता-धर्ता प्रकाश करात और वृन्दा करात के रिश्तेदार हैं। सुना गया है कि इंडिया टुडे को भी NDTV ने खरीद लिया है, और वह भी अब भाजपा को गरियाने लग पड़ा है। एक और चैनल है CNN-IBN, इसे “सदर्न बैप्टिस्ट चर्च” के द्वारा सौ प्रतिशत की आर्थिक मदद दी जाती है। इस चर्च का मुख्यालय अमेरिका में है और दुनिया में इसके प्रचार हेतु कुल बजट 800 मिलियन डॉलर है। भारत में इसके कर्ताधर्ता राजदीप सरदेसाई और उनकी पत्नी सागरिका घोष हैं। गुजरात चुनावों के दौरान नरेन्द्र मोदी और हिन्दुओं को लगातार गाली देने और उनकी छवि बिगाड़ने का काम बड़ी ही “स्वामिभक्ति” से इन चैनलों ने किया। गुजरात के दंगों के दौरान जब राजदीप और बरखा दत्त स्टार टीवी के लिये काम कर रहे थे, तब उन्होंने सिर्फ़ मुसलमानों के जलते घर दिखाये और मुसलमानों पर हुए अत्याचार की कहानियाँ ही सुनाईं, किसी भी हिन्दू परिवार का इंटरव्यू नहीं लिया गया, मानो उन दंगों में हिन्दुओं को कुछ हुआ ही न हो।

टाइम्स समूह “बेनेट कोलमेन” द्वारा संचालित होता है। “वर्ल्ड क्रिश्चियन काउंसिल” इसका 80% खर्चा उठाती है, एक अंग्रेज और एक इतालवी रोबर्टियो मिन्डो इसके 20% शेयरों के मालिक हैं। यह इतालवी व्यक्ति सोनिया गाँधी का नजदीकी भी बताया जाता है। स्टार टीवी तो खैर है ही ऑस्ट्रेलिया के उद्योगपति का और जिसका एक बड़ा आका है सेंट पीटर्स पोंटिफ़िशियल चर्च मेलबोर्न। 125 वर्ष पुराना दक्षिण के एक प्रमुख समाचार समूह “द हिन्दू” को अब जोशुआ सोसायटी, बर्न्स स्विट्जरलैण्ड ने खरीद लिया है। इसके कर्ताधर्ता एन.राम की पत्नी स्विस नागरिक भी हैं। दक्षिण का एक तेलुगु अखबार “आंध्र ज्योति” को हैदराबाद की मुस्लिम पार्टी “एम-आई-एम” और एक कांग्रेसी सांसद ने मिलकर खरीद लिया है। “द स्टेट्समैन” समूह को कम्युनिस्ट पार्टी संचालित करती है, और “कैराल टीवी” को भी। “मातृभूमि” समूह में मुस्लिम लीग के नेताओं का पैसा लगा हुआ है। “एशियन एज” और “डेक्कन क्रॉनिकल” में सऊदी अरब का भारी पैसा लगा हुआ है। जैसा कि मैने पहले भी कहा कि हालांकि ये खबरें सच हैं या नहीं इसका पता करना बेहद मुश्किल है, क्योंकि जिस देश में सरकार को यह तक पता नहीं लगता कि किसी एनजीओ को कुल कितनी मदद विदेश से मिली, वहाँ किसी समाचार पत्र के असली मालिक या फ़ाइनेन्सर का पता लगाना तो बहुत दूर की बात है। अधिग्रहण, विलय, हिस्सेदारी आदि के जमाने में अन्दर ही अन्दर बड़े समाचार समूहों के लाखों-करोड़ों के लेन-देन हुए हैं। ये खबरें काफ़ी समय से इंटरनेट पर मौजूद हैं, हवा में कानोंकान तैरती रही हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि आपके मुहल्ले का दादा कौन है ये आप जानते हैं लेकिन लोकल थानेदार जानते हुए भी नहीं जानता। अब ये पता लगाना शौकिया लोगों का काम है कि इन खबरों में कितनी सच्चाई है, क्योंकि कोई खोजी पत्रकार तो ये करने से रहा। लेकिन यदि इसमें जरा भी सच्चाई है तो फ़िर ब्लॉग जगत का भविष्य उज्जवल लगता है।

ऐसे में कुल मिलाकर तीन समूह बचते हैं, पहला “ईनाडु” जिसके मालिक हैं रामोजी राव, “भास्कर” समूह जिसके मालिक हैं रमेशचन्द्र अग्रवाल और तीसरा है “जागरण” समूह। ये तीन बड़े समूह ही फ़िलहाल भारतीय हाथों में हैं, लेकिन बदलते वक्त और सरकार की मीडिया क्षेत्र को पूरी तरह से विदेशियों के लिये खोलने की मंशा को देखते हुए, कब तक रहेंगे कहना मुश्किल है। लेकिन एक बात तो तय है कि जो भी मीडिया का मालिक होता है, वह अपनी राजनैतिक विचारधारा थोपने की पूरी कोशिश करता है, इस हिसाब से भाजपा के लिये आने वाला समय मुश्किलों भरा हो सकता है, क्योंकि उसे समर्थन करने वाले “पाञ्चजन्य” (जो कि खुद संघ का मुखपत्र है) जैसे इक्का-दुक्का अखबार ही बचे हैं, बाकी सब तो विरोध में ही हैं।

सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com

25 March 2008

कम्युनिस्ट पार्टी का धर्म हिंसा है

इस से पहले आपने पढा़ था कन्नूर: कम्युनिस्ट पार्टी का रक्तरंजित इतिहास उससे से आगे पढे़

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शांति-प्रयासों का हमेशा स्वागत तथा समर्थन दिया । आगे हिंसा न हो, इस प्रयास में भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेगडी़ तथा दीनदयाल शोध संस्थान दिल्ली के तत्कालीन निदेशक श्री पी.परमेश्वरन ने दिल्ली के वरिष्ट कम्युनिस्ट नेता श्री ई.एम.एस. नम्बुदरीपाद और श्री राममूर्ति से वार्ता की । इसी प्रकार केरल में भी संघ और सी.पी.एम. के नेताओं के बीच वार्तायें हुयीं। लेकिन शांति समझौते के कागज की स्याही सूख्नने से पहले ही संघ स्वयंसेवकों पर बिना किसी उत्तेजना के हमले प्रारम्भ कर दिये गये। शांति बनाये रखने के लिये प्रतिबद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अतिसम्मानित न्यायाधीश कृष्णाय्यर एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री ई.के. नयनार की पहल पर सी.पी.एम. के साथ पुन: बैठकर 1999 में शान्ति प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के लिये सहमत हुआ। परन्तु इस वार्ता के दो दिन बाद ही सी.पी.एम. कार्यकर्ताओं ने भारतिय जनता युवा मोर्चा के राज्य उपाध्यक्ष श्री जयकृ्ष्णन मास्टर की उनके विद्यालय की कक्षा में छोटे-छोटे बच्चों के सामने निर्मम ढंग से हत्या कर दी गई। स्पष्ट है कि शान्ति वार्तायें पूर्णत: असफल एवं अनुपयोगी सिद्ध हुयीं।
फिर भी कुछ वर्षो तक भड़काने के गम्भीर प्रयासों के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शान्ति बनाए रखने की अपनी प्रतिबद्धता पर डटा रहा और कभी प्रतिकार नहीं किया और इसका परिणाम यह हुआ कि संघ को कई अच्छे कार्यकर्ताओं को खोना पड़ा और सी. पी. एम. के कार्यकर्ता और अधिक निर्दयी होते गये। वे जब भी राज्य में आते हैं तो सरकारी मशीनरी की मदद से उनकी निर्दयता सभी सीमायें लाँघ जाती है।
मार्च से शुरु हत्याओं का नवीनतम दौर अब तक पाँच स्वयंसेवकों का जान ले चुका है। 5 मार्च 2008 को शिवरात्रि के दिन थलसेरी शहर में तालुक शारीरिक शिक्षण प्रमुख श्री सुमेश हमेशा से शान्ति वार्ताओं में संघ का प्रतिनिधित्व करते थे। उसी दिन निखिल (22 वर्ष ) नाम के एक दूसरे स्वयंसेवक की जो लांरी क्लीनर था और अपने गरीब परिवार का एकमात्र सहारा था, हत्या कर दी गयी। श्री सत्यन नाम के राज मिस्त्री स्वयंसेवक को उसके कार्यस्थल से अक्षरश: बाहर घसीटकर उसका सिर काट दिया गया । उसके सिर कटे शरीर को उसके घर के निकट सड़क पर फेंक दिया गया । अगले दिन 6 मार्च को कुत्तुमरम्बा गांव के श्री महेश नाम के कार्यकर्ता की हत्या कर दी गयी और सिर धड़ से अलग कर दिया गया, अगले दिन 7 मार्च को कुडिडयेरी के श्री सुरेश बाबू तथा इल्थ्थुजा के श्री के.वी.सुरेन्द्रन (65 वर्ष ) की नि्र्मम हत्या की गई । इस प्रकार तीन दिनो़ में गरीब परिवारों के पांच नौजवान कार्यकर्ता हमसे छीन लिये गये । एक दर्जन से अधिक युवकों का अंग - भंग कर दिया गया। और वे विकलांग हो गये।

24 March 2008

गंगाजल से मध्यान्ह भोजन “अपवित्र” हो जाता है?

केन्द्र और राज्य सरकारों की मिलीजुली महती योजना है मध्यान्ह भोजन योजना। जैसा कि सभी जानते हैं कि इस योजना के तहत सरकारी प्राथमिक शालाओं में बच्चों को मध्यान्ह भोजन दिया जाता है, ताकि गरीब बच्चे पढ़ाई की ओर आकर्षित हों और उनके मजदूर / मेहनतकश/ ठेले-रेहड़ी वाले/ अन्य छोटे धंधों आदि में लगे माँ-बाप उनके दोपहर के भोजन की चिंता से मुक्त हो सकें। इस योजना के गुणदोषों पर अलग से चर्चा की जा सकती है क्योंकि इस योजना में कई तरह का भ्रष्टाचार और अनियमिततायें हैं, जैसी कि भारत की हर योजना में हैं। फ़िलहाल बात दूसरी है…

जाहिर है कि उज्जैन में भी यह योजना चल रही है। यहाँ इस सम्पूर्ण जिले का मध्यान्ह भोजन का ठेका “इस्कॉन” को दिया गया है। “इस्कॉन” यानी अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ को जिले के सभी स्कूलों में मध्यान्ह भोजन (रोटी-सब्जी-दाल) बनाने और पहुँचाने का काम दिया गया है। इसके अनुसार इस्कॉन सुबह अपनी गाड़ियों से शासकीय स्कूलों में खाना पहुँचाता है, जिसे बच्चे खाते हैं। चूँकि काम काफ़ी बड़ा है इसलिये इस हेतु जर्मनी से उन्होंने रोटी बनाने की विशेष मशीन बुलवाई है, जो एक घंटे में 10,000 रोटियाँ बना सकती है। (फ़िलहाल इस मशीन से 170 स्कूलों हेतु 28,000 बच्चों का भोजन बनाया जा रहा है)

जबसे इस मध्यान्ह भोजन योजना को इस्कॉन को सौंपा गया है, तभी से स्थानीय नेताओं, सरपंचों और स्कूलों के पालक-शिक्षक संघ के कई चमचेनुमा नेताओं की भौंहें तनी हुई हैं, उन्हें यह बिलकुल पसन्द नहीं आया है कि इस काम में उन्हें “कुछ भी नहीं” मिल रहा। इस काम को खुले ठेके के जरिये दिया गया था जिसमें जाहिर है कि “इस्कॉन” का भाव सबसे कम था (दो रुपये साठ पैसे प्रति बच्चा)। हालांकि इस्कॉन वाले इतने सक्षम हैं और उनके पास इतना विदेशी चन्दा आता है कि ये काम वे मुफ़्त में भी कर सकते थे (इस्कॉन की चालबाजियों और अनियमितताओं पर एक लेख बाद में दूँगा)। अब यदि मान लिया जाये कि दो रुपये साठ पैसे प्रति बच्चे के भाव पर इस्कॉन जिले भर के शासकीय स्कूलों में रोटी-सब्जी “नो प्रॉफ़िट-नो लॉस” के स्तर पर भी देता है (हालांकि इस महंगाई के जमाने में यह बात मानने लायक नहीं है), तो विचार कीजिये कि बाकी के जिलों और तहसीलों में चलने वाली इस मध्यान्ह भोजन योजना में ठेकेदार (जो कि प्रति बच्चा चार-पाँच रुपये के भाव से ठेका लेता है) कितना कमाता होगा? कमाता तो होगा ही, तभी वह यह काम करने में “इंटरेस्टेड” है, और उसे यह कमाई तब करनी है, जबकि इस ठेके को लेने के लिये उसे जिला पंचायत, सरपंच, स्कूलों के प्रधानाध्यापक, पालक-शिक्षक संघ के अध्यक्ष और यदि बड़े स्तर का ठेका हुआ तो जिला शिक्षा अधिकारी तक को पैसा खिलाना पड़ता है। जाहिर सी बात है कि इस्कॉन को यह ठेका मिलने से कईयों के “पेट पर लात” पड़ गई है (हालांकि सबसे निरीह प्राणी यानी पढ़ाने वाले शिक्षक इससे बहुत खुश हैं, क्योंकि उनकी मगजमारी खत्म हो गई है), और इसीलिये इस योजना में शुरु से ही “टाँग अड़ाने” वाले कई तत्व पनपे हैं। मामले को ठीक से समझने के लिये लेख का यह विस्तार जरूरी था।

“टाँग अड़ाना”, “टाँग खींचना” आदि भारत के राष्ट्रीय “गुण” हैं। उज्जैन की इस मध्यान्ह भोजन योजना में सबसे पहले आरोप लगाया गया कि इस्कॉन इस योजना को चलाने में सक्षम नहीं है, फ़िर जब इस्कॉन ने इस काम के लिये एक स्थान तय किया और वहाँ शेड लगाकर काम शुरु किया तो जमीन के स्वामित्व और शासन द्वारा सही/गलत भूमि दिये जाने को लेकर बवाल मचा दिया गया। जैसे-तैसे इससे निपट कर इस्कॉन ने काम शुरु किया, 10000 रोटियाँ प्रति घंटे बनाने की मशीन मंगवाई तो “भाई लोगों” ने रोटी की गुणवत्ता पर तमाम सवाल उठाये। बयानबाजियाँ हुई, अखबार रंगे गये, कहा गया कि रोटियाँ मोटी हैं, अधपकी हैं, बच्चे इसे खा नहीं सकते, बीमार पड़ जायेंगे आदि-आदि। अन्ततः कलेक्टर और जिला शिक्षा अधिकारी को खुद वहाँ जाकर रोटियों की गुणवत्ता की जाँच करनी पड़ी, न कुछ गड़बड़ी निकलना थी, न ही निकली (इस्कॉन वालों की सेटिंग भी काफ़ी तगड़ी है, और काफ़ी ऊपर तक है, ये छुटभैये नेता कहाँ लगते उसके आगे)। लेकिन ताजा आरोप (वैसे तो आरोप काफ़ी पुराना है) ज्यादा गंभीर रूप लिये हुए है, क्योंकि इसमें “धर्म” का घालमेल भी कर दिया गया है।

असल में शुरु से ही शासकीय मदद प्राप्त मदरसों ने मध्यान्ह भोजन योजना से भोजन लेने से मना कर दिया था। “उनके दिमाग में किसी ने यह भर दिया था” कि इस्कॉन में बनने वाले रोटी-सब्जी में गंगाजल और गोमूत्र मिलाया जाता है और फ़िर उस भोजन को भगवान को भोग लगाकर सभी दूर भिजवाया जाता है। काजियों और मुल्लाओं द्वारा विरोध करने के लिये “गोमूत्र” और “भगवान को भोग” नाम के दो शब्द ही काफ़ी थे, उन्होंने “धर्म भ्रष्ट होने” का आरोप लगाते हुए मध्यान्ह भोजन का बहिष्कार कर रखा था। इससे मदरसों में पढ़ने वाले गरीब बच्चे उस स्वादिष्ट भोजन से महरूम हो गये थे। कहा गया कि मन्दिर में पका हुआ और गंगाजल मिलाया हुआ भोजन अपवित्र होता है, इसलिये मदरसों में मुसलमानों को यह भोजन नहीं दिया जा सकता (जानता हूँ कि कई पाठक मन ही मन गालियाँ निकाल रहे होंगे)। कलेक्टर और इस्कॉन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने मदरसों में जाकर स्थिति स्पष्ट करने की असफ़ल कोशिश भी की, लेकिन वे नहीं माने। इस तथाकथित अपवित्र भोजन की शिकायत सीधे मानव संसाधन मंत्रालय को कर दी गई। तुरत-फ़ुरत अर्जुनसिंह साहब ने एक विशेष अधिकारी “श्री हलीम खान” को उज्जैन भेजा ताकि वे इस्कॉन में बनते हुए भोजन को खुद बनते हुए देखें, उसे चखें और शहर काजी तथा मदरसों के संचालकों को “शुद्ध उर्दू में” समझायें कि यह भोजन “ऐसा-वैसा” नहीं है, न ही इसमें गंगाजल मिला हुआ है, न ही गोमूत्र, रही बात भगवान को भोग लगाने की तो उससे धर्म भ्रष्ट नहीं होता और सिर्फ़ इस कारण से बेचारे गरीब मुसलमान बच्चों को इससे दूर न रखा जाये। काजी साहब ने कहा है कि वे एक विशेषाधिकार समिति के सामने यह मामला रखेंगे (जबकि भोजन निरीक्षण के दौरान वे खुद भी मौजूद थे) और फ़िर सोचकर बतायेंगे कि यह भोजन मदरसे में लिया जाये कि नहीं। वैसे इस योजना की सफ़लता और भोजन के स्वाद को देखते हुए पास के देवास जिले ने भी इस्कॉन से आग्रह किया है कि अगले वर्ष से उस जिले को भी इसमें शामिल किया जाये।

वैसे तो सारा मामला खुद ही अपनी दास्तान बयाँ करता है, इस पर मुझे अलग से कोई कड़ी टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन फ़िर भी यदि मध्यान्ह भोजन योजना में हो रहे भ्रष्टाचार और इसके विरोध हेतु धर्म का सहारा लेने पर यदि आपको कुछ कहना हो तो कहें…

सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com

23 March 2008

गांधी जी हत्‍यारे है

महाशक्ति समूह महान देश भक्‍तों को नमन करती है। हम आपके बलिदान को जाया नही जाने देगें। गांधी को और हत्‍या नही करने देगे। आज ग़र आप हमारे बीच नही हो तो सिर्फ और सिर्फ गांधी जी के कारण। गांधी जी ने भले अपने जीवन में चीटी न मारी हो कि अनेको देश भक्‍तों की जरूर हत्‍या की है।

 

जय भगत सिंह, जय राजगुरू, जय सुखदेव, जय भारत

20 March 2008

कन्नूर: कम्युनिस्ट पार्टी का रक्तरंजित इतिहास

उत्तर केरल के कन्नूर जिले में सी.पी.एम. के कार्यकर्ताओ द्वारा 05-03-2008 के बाद पुन: शुरु किये गये आक्रमणों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मे पांच कार्यकर्ता मारे गये हैं तथा दर्जनों गम्भीर रुप से घायल हुये हैं। इस हिंसा में 40 से अधिक स्वयंसेवक के घर को नष्ट कर दिये गये हैं।
यह माना जाता है कि केरल की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कन्नूर जिले के पिनाराई नामक स्थान पर हुआ था और पार्टी इस जिले को अपना गढ़ मानती है। इस जिले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य 1943 में शुरु हुआ और 25 वर्ष से अधिक समय तक शान्तिपूर्ण ढँग से चला । इस दैरान सी.पी.एम. के कई कार्यकर्ता संघ के प्रति आकर्षित हुये और बडी़ संख्या में उसमें शामिल हुये। संघ की बढती हुई शक्ति को सी.पी.एम. सहन नहीं कर सकी और 1969 से हत्या की राजनीति पर उतर आई।
एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी श्री रामकृष्णन थलसैरी शाखा के मुख्य शिक्षक थे उसने कम्युनिस्टों के आतंक का हिम्म्त से मुकाबला किया और थलसैरी तथा आस-पास के क्षेत्र में कई शाखायें खडी़ कीं। वह कम्युनिस्टों का पहला शिकार बना और 1969 में उसकी निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गयी। वर्तमान में सी.पी.एम. पार्टी के राज्य सचिव श्री पिनराई विजयन, जो इसी जिले के निवासी हैं, इस हत्या के मुख्या अभित्युक्तों में से एक हैं। वर्तमान गृहमंत्री कुडियेरी बालकृष्णन जो कन्नूर जिले के ही निवासी हैं के. सतीशन नामक, दूसरे स्वयंसेवक की हत्या में अभियुक्त थे।
अब तक अकेले इस जिले में 60 से अधिक स्वयंसेवक सी.पी.एम. के हाथों मारे गये हैं। यहाँ तक कि वृद्ध महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया। 22 मई 2002 को एक स्वयंसेवक श्री उत्त्मन जिसकी हत्या सी.पी.एम. ने पहले दिन की थी, उसकी अंत्येष्टि में भाग लेकर जीप से वापस आ रहीं श्रीमती अम्मू अम्मा (72 वर्ष ) की सी.पी.एम कार्यकर्ताओं द्वारा बम फेंककर हत्या कर दी गयी।

बुरा न मानो होली है

netaji :- देवदास
पुनीत ओमर : छुपा-रुस्तम,
Varsa Singh : अब क्या मिसाल
Tara Chandra Gupta : तारे चन्द्रमा की वजह से supt
maya :महा ठगनी हम जानी,
अरुण ,क्या बात है...
Kavi Kulwant : आए तो छाए,
राज कुमार : मन भाए मूड न लागे,
anoop : खरपतवार,
TARUN JOSHI "NARAD": नकद,नारायण-नारायण,
मनोज ज़ालिम "प्रलयनाथ" : जालिम लोग ही प्रलय लातें हैं...?
हिन्दु चेतना : जगह न पाए,
तेज़ धार : कर रहा हूँ,
Manvendra Pratap Singh , नाम बडे दर्शन...?
Vishu :बारहवां खिलाड़ी
SWAMEV MRIGENDRATA : झंडा ऊँचा रहे तुम्हारा,
देवेन्‍द्र प्रताप सिंह : प्रेम प्रताप पतियाले वाला,
Suresh Chiplunkar : मुन्ना भाई के सर्किट,बोले तो....?
mahashakti : तेज़ हवाओं से बचने की कोशिश में .
Ruchi Singh : अरुचिकर ब्लॉगर,
मिहिरभोज : कभी किसी रोज़ ,
अभिषेक शर्मा : हया यक लखत आयी और शबाब....आहिस्ता....
रीतेश रंजन : कभी तो मिलेगी,
neeshoo : कोई जब तुम्हारा...तोड़ दे
Abhiraj : अभी,राज़ रहने दो
आशुतॊष : कलयुग की रामायण,
गिरीश बिल्लोरे 'मुकुल': जो कहना था कह दिया अब ऊपर वाले के हाथ मे है.....

19 March 2008

होली आई रे ....














देखो यारों देखो होली आई रे...
रंग रंगीला मौसम देखो लायी रे॥

अबीर
गुलाल से रंगीन हो रहा संसार,
पकवानों की सुगंध से सराबोर हो रहा घर बार।
देखो एक नया संसार लेकर होली आई रे,
देखो यारों देखो होली आई रे॥

सजने लगी देखो सारी रंगोलियाँ,
मिल गई बचपन की सारी हम्जोलियाँ।
जीवन में त्यौहार देखो लायी रे,
देखो यारों देखो होली आई रे॥

देखो आया मौसम यारों पकवानों का,
ओर अग्रजों को मिलने वाले सम्मानों का।
फिजाओं में प्यार की फुहार लेकर आई रे,
देखो यारों देखो होली आई रे


यार दोस्तों का मिलन लेकर आई रे,
प्यार के संदेश को फैलाने देखो आई रे।
एकता का प्रदर्शन करने आई रे,
देखो यारों देखो होली आई रे। देखो यारों देखो होली आई रे॥

ब्लॉग जगत को अलविदा कहने का वक्त आ गया लगता है…

भाईयों और बहनों, यह मेरी 200 वीं पोस्ट है। “श्मशान वैराग्य” किसे कहते हैं यह कई लोगों को मालूम होगा। जिन्हें नहीं मालूम, उन्हें बता दूँ कि जब हम किसी को श्मशान में छोड़ने जाते हैं और वहाँ उस मुर्दे की मिट्टी को जलते देखते हैं तो मन में एक विशेष भाव पैदा होता है। “यह जगत तो मिथ्या है…”, “यहाँ सब बेकार है…”, "ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं…" टाइप की भावनायें पैदा होती हैं। यही भाव आज मेरे मन में भी पैदा हो रहा है।

26 जनवरी 2007 को जब मैंने पहली-पहली पोस्ट लिखी थी, तब मैं सोचता था कि ब्लॉग के जरिये क्रांति बस आने ही वाली है। विगत चौदह माह में 200 पोस्टें लिखने, 50 सब्स्क्राइबर बना लेने, लगभग 18000 बार पढ़े जाने के अलावा मैंने किया क्या है? नेताओं, अफ़सरों, भ्रष्टाचार, अनैतिकता के खिलाफ़ जमकर लिखा, कुछ लोगों ने पसन्द भी किया। एक-एक ब्लॉग को 100-150 लोगों ने पढ़ा भी, लेकिन उससे हुआ क्या? क्या मैंने कुछ हासिल किया? कुछ नहीं…। मुझे आत्मसंतुष्टि के अलावा क्या मिला? कुछ नहीं…। क्या मैं कुछ लोगों के विचारों को प्रभावित कर पाया? या क्या मैंने कुछ लोगों के विचार बदलने में सफ़लता हासिल की? पता नहीं…। मेरे अच्छे-अच्छे लेखों की दो-चार लोगों ने तारीफ़ कर दी तो उससे क्या? इसकी बजाय तो गालीगलौज करने वाले, हिन्दू-मुस्लिम दंगों पर रोटी सेंकने वाले, दलित-दलित, महिला-महिला भजने वाले कई ब्लॉग हैं जो आये दिन छाये रहते हैं, विवाद करते हैं, विवाद पैदा करते हैं, विवादों में ही अपनी दुनिया रमाते हैं, कुछ नकली नामों से लिखते हैं, कुछ नकली नामों से अपने ही ब्लॉग पर टिप्पणी कर देते हैं, यानी कि चालबाजियाँ, साँठगाँठ, उठापटक करने वाले ब्लॉग ज्यादा पढ़े जा रहे हैं। आज तक किसी ब्लॉग एग्रीगेटर के काउंटर पर मैंने टॉप नहीं किया (और मूर्खों की तरह मैं समझता था कि अच्छा लिखना ही काफ़ी है)।

फ़िर क्यों मैं ब्लॉग लिख रहा हूँ, अपना समय नष्ट कर रहा हूँ, अपना पैसा खराब कर रहा हूँ… क्या ब्लॉग लिखने से मुझे कमाई हो रही है? बिलकुल नहीं…। उलटा मेरा कीमती समय, बेशकीमती ऊर्जा, इंटरनेट के खर्चे आदि इसमें लग रहा है। क्या भविष्य में इस प्रकार के लेखन से मुझे कोई कमाई की सम्भावना है? अभी तक तो नहीं लगता…। क्या बड़ी मेहनत से रिसर्च करके तैयार किये गये मेरे लेखों को कोई अखबार छापेगा? यदि छापेगा तो पैसे देगा? यदि बगैर पैसों के छाप भी देगा तो उससे क्या होने वाला है? हजारों लोग यूँ ही रोज लाखों पन्ने काले कर देते हैं, कहीं कुछ होता है क्या? क्या ऐसे लेख लिखने भर से नेता, अफ़सर, उद्योगपति, भ्रष्ट बाबू आदि सुधर जायेंगे? नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला, फ़िर मैं ब्लॉग क्यों लिख रहा हूँ? सिर्फ़ अपने मन के लिये, अपने मन को सहलाने के लिये? यदि हाँ तो इसकी कीमत बहुत ज्यादा है, जो मेरे जैसे निम्न-मध्मवर्गीय व्यक्ति के लिये मायने रखती है। तरक्की हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं है। पहले 20 सब्स्क्राइबर थे, जो बढ़कर 50 हो गये हैं, पहले प्रति पोस्ट पाठकों का औसत 20-30 ही था जो अब बढ़कर 70-80 हो गया है, एडसेंस खाते में जीरे के समान 5 डॉलर भी जमा हो गये हैं, लेकिन फ़िर वही सवाल कि इस सबका फ़ायदा क्या?

बुजुर्गों ने कहा है कि “शौक ऐसा पालो कि जो तुम्हारी औकात का हो…” क्या ब्लॉग लेखन का शौक मेरे बूते का है? मुझे नहीं लगता। यह शौक अब धीरे-धीरे नशा बनता जा रहा है। जिस तरह से सिगरेट, शराब का नशा होता है, उसी तरह से ब्लॉग लेखन भी एक लत होती है। जब तक आप ब्लॉग नहीं लिख लेते तब तक आप बेचैन रहते हैं, एक प्रकार की “प्रसव-पीड़ा” होती रहती है। किसी समस्या पर नहीं लिख पाते तो मन बेचैन रहता है, यह साफ़-साफ़ “लत” के लक्षण हैं। इस नशे का अगला चरण होता है, “कितने लोगों ने पढ़ा…” उसका अगला चरण होता है, “कितने लोगों ने टिप्पणी की…”, फ़िर विचार मंथन, नहीं पढ़ा तो क्यों नहीं पढ़ा? पढ़ लिया तो टिप्पणी क्यों नहीं की? टिप्पणी की तो विरोधी स्वर क्यों निकाले? यानी अन्तहीन साँप-बिच्छू। (सौभाग्य से अभी मैं नशे के पहले चरण में ही हूँ, यानी कि सिर्फ़ जो मन में आये लिखता हूँ, कोई पढ़े या न पढ़े, टिप्पणी करे न करे, अच्छा बोले या बुरा कोई फ़र्क नहीं पड़ता), लेकिन आखिर यह सब कब तक?

हाल ही में किसी विद्वान ने कहा है कि “अधिक ब्लॉगिंग करने से मानव कर्महीन, निरर्थक और मानसिक खोखला होता जाता है…”। एक मनोचिकित्सक कहते हैं कि Paralysis by Analysis, यानी अच्छा ब्लॉग लिखने के लिये Research and Analysis करना पड़ता है जिससे मानसिक पैरेलिसिस भी हो सकता है, ऊपर से “बुद्धिजीवी” कहलाये जाने का खतरा हमेशा सिर पर मँडराता रहता है। समझ में नहीं आता क्या किया जाये? ब्लॉगिंग पहले-पहल एक शौक होता है, फ़िर वह आत्मसंतुष्टि का साधन बनता है, फ़िर पागलपन और अन्त में एक खतरनाक नशा। ऐसा घातक नशा, जिसका प्रभाव सामने वाले को दिखता तक नहीं… मैं फ़िलहाल दूसरी स्टेज में पहुँचा हुआ हूँ, यानी आत्मसंतुष्टि वाली स्टेज, लेकिन इस पर मैं कब तक रह सकूँगा कह नहीं सकता। बढ़ते खर्चों (और लिखने से कोई कमाई नहीं) तथा ब्लॉग लिखने के लिये होने वाली ऊर्जा विनाश को देखते हुए मेरे पास ज्यादा समय नहीं बचा है…शायद ब्लॉग जगत को अलविदा कहने का वक्त आ गया है।

डिस्क्लेमर : उज्जैन की भांग बहुत प्रसिद्ध है, होली का माहौल है। भंग की तरंग में ऊपर लिखित नायाब, अफ़लातून (और शायद फ़ायदेमंद) विचार सामने आये हैं, जिससे अब मैं वाकई गंभीरता से सोचने लगा हूँ कि भांग का नशा ज्यादा बेहतर है या ब्लॉग लिखने का? दो रुपये की भांग में पूरा दिन दिमाग चकाचक और तबियत झकाझक, जबकि ब्लॉग लिखने से मिलता क्या है… धेला-पत्थर, कुछ तारीफ़ें-कुछ गालियाँ, अब बताइये कौन सा सौदा बेहतर है?

सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com

18 March 2008

सुभाषित

दातव्‍यमिति यद्दानं दीयतेSनुपकारिणे।

देश काले च पात्रे च तद्दानं सात्विक स्‍मृतम्।। श्री म.भ.गीता 17/20

भावार्थ -

दान देना ही कर्त्तव्‍य है, ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्‍त होने पर अउपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है, वह दान सा‍त्विक कहा गया है।

16 March 2008

"परगति के वीर....!!",

दधि मथ माखन काढ़ते,जे परगति के वीर,
बाक-बिलासी सब भए,लड़ें बिना शमशीर .
बांयें दाएं हाथ का , जुद्ध परस्पर होड़
पूंजी सन्मुख जे दिखें ,खड़े जुगल कर जोड़
अब तो गांधी आपको, आते हैं क्यों याद
क्या विचार की चुक गई परगति वीरो खाद.
धर्म पंथ मध्यम बरग,विषय परगति को भाय
उसी थाल को छेदते जिसमें भोजन खाय.

होली तो ससुराल


होली तो ससुराल की बाक़ी सब बेनूर
सरहज मिश्री की डली,साला पिंड खजूर
साला पिंड-खजूर,ससुर जी ऐंचकताने
साली के अंदाज़ फोन पे लगे लुभाने
कहें मुकुल कवि होली पे जनकपुर जाओ
जीवन में इक बार,स्वर्ग का तुम सुख पाओ..!!
#########
होली तो ससुराल की बाक़ी सब बेनूर
न्योता पा हम पहुंच गए मन संग लंगूर,
मन में संग लंगूर,लख साली की उमरिया
मन में उठे विचार,संग लें नयी बंदरिया .
कहत मुकुल कविराय नए कानून हैं आए
दो होली में झौन्क, सोच जो ऐसी आए ...!!
#########
होली तो ससुराल की ,बाक़ी सब बेनूर
देवर रस के देवता, जेठ नशे में चूर ,
जेठ नशे में चूर जेठानी ठुमुक बंदरिया
ननदी उम्र छुपाए कहे मोरी बाली उमरिया .
कहें मुकुल कवि सास हमारी पहरेदारिन
ससुर देव के दूत जे उनकी हैं पनिहारिन..!!
#########

सुन प्रिय मन तो बावरा, कछु सोचे कछु गाए,
इक-दूजे के रंग में हम-तुम अब रंग जाएं .
हम-तुम अब रंग जाएं,फाग में साथ रहेंगे
प्रीत रंग में भीग अबीरी फाग कहेंगे ..!
कहें मुकुल कविराय होली घर में मनाओ
मंहगे हैं त्यौहार इधर-उधर न जाओ !!

15 March 2008

मैं आत्म हत्या क्यों न करलूं ?

मैं आत्म हत्या क्यों न करलूं ?
Thursday, 22. November 2007, 15:34:52

आत्म हत्या क्यों न करलूं ?आईये, हम इस सोच की पड़ताल करें कि क्यों आता है ये विचार मन में....? आम जिन्दगी का यह एक सहज मुद्दा है। खुशी,प्रेम,क्रोध,घृणा की तरह पलायन वादी भाव भी मन के अन्दर सोया रहता है। इस भाव के साथ लिपटी होती है एक सोच आत्महत्या की जो पल भर में घटना बन जाती है, मनोविज्ञानियों का नज़रिया बेशक मेरी समझ से क़रीब ही होगा ।गहरे अवसाद से सराबोर होते ही जीवन में वो सोच जन्म ले ही लेती है ।इस पड़ताल में मैं सबसे पहले खुद को पेश करने कि इजाज़त मांगता हूँ:-"बचपन में एक बार मुझे मेरी गायों के रेल में कट जाने से इतनी हताशा हुयी थी कि मैनें सोचा कि अब दुनियाँ में सब कुछ ख़त्म सा हों गया वो सीधी साधी कत्थई गाय जिसकी तीन पीड़ी हमारे परिवार की सदस्य थीं ,जी हाँ वही जिसके पेट से बछड़ा पूरा का पूरा दुनियाँ मी कुछ पल के लिए आया और गया" की मौत मेरे जीवन की सर्वोच्च पराजय लगी और मुझे जीवन में कोई सार सूझ न रहा था , तब ख्याल आया कि मैं क्यों जिंदा हूँ ।दूसरे ही पल जीवन में कुछ सुनहरी किरणें दिखाई दीं ।पलायनी सोच को विराम लग गया।********************************************************************ये सोच हर जीवन के साथ सुप्तरूप से रहती है।इसे हवा न मिले इसके लिए ज़रूर है ....आत्म-चिंतन को आध्यात्मिक आधार दिया जाये।अध्यात्म नकारात्मक ऊर्जा को समाप्त या नगण्य कर देता है। इसका उदाहरण देखिये :-"प्रेम में असफल सुशील देर तक रेल स्टेशन पर गाड़ी का इंतज़ार कर रहा था बेमन से इलाहाबाद का टिकट भी ले लिया सोच भी साथ थी आत्म हत्या की किन्तु अध्यात्म आधारित वैचारिक धरातल होने के कारण सुशील ने प्रयाग की गाड़ी पकड़ी कुछ दिन बाद लौट भी आया और अपने व्यक्तित्व को वैचारिक निखार देकर जब मुझसे मिला तो सहज ही कहां था उसने-"भैया,जीवन तो अब शुरू हुआ है""कैसे....?""मैं असफलता से डिप्रेशन में आ गया था सोच आत्म हत्या की थी लेकिन जैसे ही मैंने सोचा कि मुझे ईश्वर ने जिस काम के लिए भेजा है वो केवल नारी से प्रेम कर जीवन सहज जीना नही है मुझे कुछ और करना है "सुशील अब सफल अधिकारी है उसके साथ वही जीवन साथी है जिसने उसे नकार दिया था। जीवन रफ़्तार ने उसे समझाया तो था किन्तु समय के संदेशे को वो बांच नहीं पाया । सुशील पत्नी ,सहज जीवन,ऊँचे दर्जे की सफलता थी उसके साथ। वो था अपनी मुश्किलों से बेखबर ।समय धीरे-२ उसे सचाई के पास ले ही आया पत्नी के चरित्र का उदघाटन हुआ , उसकी सहचरी पत्नी उसकी नहीं थी। हतास वो सीधे मौत की राह चल पडा। किन्तु समझ इतनी ज़रूर दिखाई चलो पत्नी से बात की जाये किसी साजिश की शिकार तो नहीं थी वो। शक सही निकला कालेज के समय की भूल का परिणाम भोग रही जान्हवी फ़ूट पड़ी , याद दिलाये वो पल जब उसने बतानी चाही थी मज़बूरी किन्तु हवा के घोडे पर सवार था सुन न सका था , भूल के एहसास ने उसे मज़बूत बना ही दिया । पत्नी की बेचारगी का संबल बना वो . नहीं तो शायद दो ज़िंदगियाँ ...............

प.पू.पं. श्रीराम शर्मा आचार्य उवाच

"इन दिनों इतिहास का अभिनव अध्याय लिखा जा रहा है । इसमें हम में से हर किसी का ऎसा स्थान और योगदान होना चाहिए , जिसकी चर्चा पीढि़यों तक होती रहे । जिसकी स्मृति हर किसी को प्रेरणा दे सके , कि सोचना किस तरह चाहिए और चलना किस दिशा में , किस मार्ग पर चाहिए ? दीपक छोटा होते हुए भी अपने प्रभावक्षेत्र में प्रकाश प्रस्तुत करने और यथार्थता से अवगत कराने से घनघोर अंधेरे को भी परास्त करने में सफ़ल होता है ; भले ही इस प्रयास में उसे अपने तेल-बत्ती जैसे सीमित साधनों को भी दाँव पर लगाना पडे़ । क्या हमारा मूल्य दीपक से भी कम है ?"

12 March 2008

जनतंत्र की शक्ति

image

हर तरफ आवाज उठती,
दबा रही सरकारें है।
नही दबेगीं वे आवाजें,
ये शेर की दहाड़े है।

देश का वैभव अब चमकेगा,
आयेगी खुशहाली।
चट्टने चाहे जितनी आये,
नही रूकेगी धाराऐं।।

प्रतिशोध का समय है,
जनमत का उपयोग करों।
जो सरकार निक्‍कमी हो,
उसको मूल से नाश करों।।

रोटी कपड़ा और छत,
यह आधार भूत जरूरते है।
जिन शासको को यह न दिखें,
उनका जाना जरूरी है।।

भरो हुँकार, रख रूप खूँखार,
सारी शक्ति तुममे है।
क्‍योकि तुममें ही,
जनतंत्र की वास्‍तविक शक्ति है।।

10 March 2008

मुकुल के दोहे

प्रिया बसी है सांस में मादक नयन कमान
छब मन भाई,आपकी रूप भयो बलवान।
सौतन से प्रिय मिल गए,बचन भूल के सात
बिरहन को बैरी लगे,क्या दिन अरु का रात
प्रेमिल मंद फुहार से, टूट गयो बैराग,
सात बचन भी बिसर गए,मदन दिलाए हार ।
एक गीत नित प्रीत का,रचे कवि मन रोज,
प्रेम आधारी विश्व की , करते जोगी खोज । ।
तन मै जागी बासना,मन जोगी समुझाए-
चरण राम के रत रहो , जनम सफल हों जाए । ।

दधि मथ माखन काढ़ते,जे परगति के वीर,
बाक-बिलासी सब भए,लड़ें बिना शमशीर .
बांयें दाएं हाथ का , जुद्ध परस्पर होड़
पूंजी पति के सामने,खड़े जुगल कर जोड़

06 March 2008

महिला दिवस पर एक चिंतन "चिंता नहीं चिंतन की ज़रूरत है"

महिला दिवस पर एक चिंतन "चिंता नहीं चिंतन की ज़रूरत है"
महिला सशक्तिकरण की चिंता करना और समाज के समग्र विकास में महिलाओं की हिस्सेदारी पर चिंतन करना दो अलग-अलग बिन्दु हैं ऐसा सोचना बिलकुल गलत है । लिंग-भेद भारतीय परिवेश में मध्य-कालीन देन है किन्तु अब तो परिस्थितियाँ बदल रहीं है किन्तु बदलती तासीर में भी महिला वस्तु और अन्य वस्तुओं के विक्रय का साधन बन गयी है। अमूल माचो जैसे विज्ञापन इसके ताज़ा तरीन उदाहरण हैं .क्या विकास के इस फलक पर केवल विज्ञापन ही महिलाओं के लिए एक मात्र ज़गह है...? ऑफिस में सेक्रेटरी,क्लर्क,स्टेनो,स्कूलों में टीचर,बस या इससे आगे भी-"आकाश हैं उनके लिए॥?"हैं तो किन्तु यहाँ सभी को उनकी काबिलियत पे शक होता है .होने का कारण भी है जो औरतैं स्वयम ही प्रदर्शित करतीं हैं जैसे अपने आप को "औरत" घोषित करना यानी प्रिवलेज लेने की तैयारी कि हम महिला हैं अत:...हमको ये हासिल हों हमारा वो हक है , .... जैसा हर समूह करता है।.....बल्कि ये सोच होनी चाहिए कि हम महिलाएं इधर भी सक्षम हैं...उस काम में भी फिट...! यहाँ मेरा सीधा सपाट अर्थ ये है की आप महिला हैं इसका एहसास मत .होने दीजिए ...सामाजिक तौर पे स्वयम को कमजोर मत सिद्ध करिए ... वरन ये कहो की-" विकास में में समान भागीदार हिस्सा हूँ.....!"दरअसल परिवार औरतों को जन्म से औरत होने का आभास कराते हैं घुट्टी के संस्कार सहजता से नहीं जाते ।आगे जाते-जाते ये संस्कार पुख्ता हो जातें हैं।मसला कुल जमा ये है कि महिला के प्रति हमारी सोच को सही दिशा की ज़रूरत है...वो सही दिशा है समग्र विकास के हिस्से के तौर पर महिला और पुरुष को रखने की कोशिश की जाए॥

इस संबंध कानून और सरकारों के अपने-अपने वादे थे सो पूरे किए जा रहे है जैसे महिला उत्पीडन, को रोकने के कानून,भ्रूण हत्या के खिलाफ़ प्रिवेंसन,घरेलू हिंसा को रोकने के लिए कानून, किन्तु समाज में कानूनों का कितना सम्मान किया जा रहा है , कैसे कानून से खुद को बचाने के तरीके खोजे जा रहें हैं सभी समझते हैं। अब तो ज़रूरत है सामाजिक जागरण की यही जागरण महिलाओं की स्थिति में सुधार, को सही दशा और दिशा मिलेगी

05 March 2008

रात की रानी की तरह महकती हूँ



रात की रानी की तरह महकती हूँ,
दिन के राज के लिये तरसती हूँ।
शाम होने पर वो चला जाता है,
सुबह होने पर मै चली जाती हूँ।

मिलने के लिये तरसते है दोनो,
वक्‍त के फेर में तड़पते है दोनो।
मिलन की की आस में दोनों,
दिन-रात में महकते है दोनों।

04 March 2008

देश बनाम वोट बैंक

पिछले दिनों केन्द्र की यू पी ए सरकार ने एक ऐतिहासिक घोषणा की। इस घोषणा ने एक नई चर्चा को जन्म दे दिया। ये घोषणा थी:
"आतंकवादियों के आश्रितों को पेंशन देने की"

इस घोषणा ने एक नया विवाद खड़ा किया, परन्तु देश के कथित बुद्धिजीवियों और मीडिया ने कोई प्रतिक्रिया नही दर्ज की क्यूंकि मीडिया तो देश के सबसे बड़े खेल क्रिकेट और फ़िल्म जगत के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण ख़बर देने में लगा था गोया वो देशहित का काम कर रही हो।

यह विवाद था कि "क्या देश के लोगों को मारने वाले, देश के विरुद्ध कार्यरत लोग ये सम्मान पाने के हकदार हैं ?"

आप सभी ये जानते हैं कि इससे पहले ये सम्मान कुछ तरह के लोगों को मिलता आया है , ये लोग हैं:
  • सरकारी कर्मचारी।
  • देश कि रक्षा विभाग में अपनी सेवाएं देने वाले अधिकारी, वैज्ञानिक।
  • देश कि रक्षा करने वाले सिपाही।
  • देश के लिए शहीद होने वाले स्वतंत्रता सेनानी।
  • देश के लिए जान देने वाले सैनिक के परिजन।
  • देश के नेतागण जिन्होंने लोक सभा, राज्य सभा, विधान सभा, विधान परिषद् में काम किया हो।
  • देश के राष्ट्रपति ।
अब ये सम्मान देशद्रोहियों को भी प्राप्त होगा, जो काफी अचरज की बात है।

क्या ये इन लोगों का अपमान नही है?
क्या देश के लोगों ने इसका विरोध करना चाहिए ?

शायद ये काम देश के कथित अल्पसंख्यकों को संतुष्ट करने के लिए किया गया है, जबकि शायद ये लोग ये नही जानते कि अल्पसंख्यक में जो भारतीय हैं उन्हें इन ओछ्हे तरीकों से भरमाया नही जा सकताकेवल उन लोगों को अपने तरफ़ मोडा जा सकता है जो देश के ख़िलाफ़ काम करते हैं। ये लोग ये भूल जाते हैं की ये सब करके वो आतंक को बढावा देते हैं।

वैसे इस सन्दर्भ में एक और बात याद आती है:
जब देश के बजाय अपनी सेवा करने के लिए राजनीति में आये लोगों को देश के बड़े सम्मानों से नवाजा जा सकता है, तो ये भी शायद ग़लत नहीं (आपने शायद इस बार का पद्म भूषण, विभूषण और श्री पुरस्कारों का वितरण याद रखा हो, जिसमे कुछ राजनीतिज्ञों को भी तवज्जो दी गई, भले ही उन्होंने देश के लिए कुछ भी ना किया हो )।

देखते हैं की इस देश के प्रशासकों का चरित्र और कितना नीचे गिरता है ?
या फ़िर हमें आगे आक़र ये सब रोकना पड़ेगा और इसके ख़िलाफ़ हल्ला बोलना होगा।

02 March 2008

"भगवान का प्यार कैसा होता है ?"

"भगवान के प्यार करने के तीन तरीके हैं-पहला भगवान जिसे प्यार करते है, उसे ‘संत’ बना देते हैं । संत यानी श्रेष्ठ आदमी । श्रेष्ठ विचार वाले,शरीफ़,सज्जन आदमी को श्रेष्ठ कहते है । वह अन्तःकरण को संत बना देता है । दूसरा-भगवान जिसे प्यार करते हैं उसे ‘सुधारक’ बना देते है । वह अपने आपको घिसता हुआ चला जाता है तथा समाज को ऊँचा उठाता हुआ चला जाता है। तीसरा-भगवान जिसे प्यार करते है उसे ‘शहीद’ बना देते है । शहीद जिसने अपने बारे में विचार ही नही किया । समाज की खुशहाली के लिए जिसने अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, वह शहीद कहलाता है ।जो दीपक की तरह जला, बीज की तरह गला,वह शहीद कहलाता है। चाहे वह गोली से मरा हो या नही, वह मैं नहीं कहता, परन्तु जिसने अपनी अक्ल, धन, श्रम, पूरे समाज के लिए अर्पित कर दिया , वह शहीद होता है । जटायु ने कहा कि आपने हमें धन्य कर दिया । आपने हमें शहीद का श्रेय दे दिया, हम धन्य हैं । जटायु , शबरी की एक नसीहत है । यह भगवान की भक्ति है । यही सही भक्ति हैं ।"

 

  • "गुरुवर की धरोहर-३"  से

हास्य कविता :प्रतियोगिता

हास्य कविता :प्रतियोगिता मित्रो,होली के अवसर पर आप सभी कलम उठाइए , लिखा भेजिए एक छोटी सी हास्य रचनामध्य-प्रदेश लेखक संघ, जबलपुर की और सेप्रथम तीन विजेता प्रतिभागीयों को क्रमश: 300/- , 200/- तथा 100/- की पुरूस्कार राशी एक एक प्रशस्ति पत्र भेजा जावेगा। 10 प्रतिभागी भी सम्मानित होंगे,नियम:रचना की मौलिकता ज़रूरी होगी,स्पष्ट पता -मेल आई डी , तथा मौलिकता की घोषणा पत्र , रचना के साथ संलग्न हों। कविता ए-फॉर आकार के पेज से अधिक लम्बी होने पर प्रतियोगिता से हटाने का अधिकार निर्णायक मंडल का होगा व्यक्तिगत आक्षेप न हों एक रचना कार एक रचना ही भेज सकते हैं,यूनीकोड पर टंकित कर ने इस लिंक का सहारा लीजिये => http://www.google.com/transliterate/indicतथा रचना/प्रविष्ठी girishbillore@gmail.com पर मेल करिए अन्तिम तिथि:- १०/०३/२००८ गिरीश बिल्लोरे "मुकुल "

“दैनिक भास्कर” की चाय पार्टी नौटंकी

Dainik Bhaskar Indore Tea Party

हाल ही में इन्दौर में दैनिक भास्कर अखबार द्वारा एक सामूहिक चाय पार्टी का आयोजन किया गया था। जिसमें लगभग 32000 लोगों ने एक साथ चाय पी और इस “करतब” को गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में जगह दी गई। इसके लिये गिनीज बुक की विशेष प्रतिनिधि इन्दौर आईं थीं और उन्होंने सारे वाकये की वीडियो रिकॉर्डिंग भी की।

सबसे आपत्तिजनक लेकिन मजे की बात यह थी कि इस बड़े तामझाम को “इन्दौर के विकास” से जोड़ा गया। महीने भर तक “भास्कर” में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर बताया गया कि “सारा इन्दौर” दैनिक भास्कर के साथ एकजुट होगा, इससे इन्दौर की एकता प्रदर्शित होगी, इससे इन्दौर का विकास होगा आदि-आदि। अमूमन ऐसी लफ़्फ़ाजियाँ आमतौर पर मार्केटिंग “गुरु”(?) अपनाते रहते हैं। प्रत्यक्ष तौर पर किसी मूर्ख को भी दिखाई दे रहा है कि यह सारी कवायद इन्दौर के विकास (?) के लिये तो बिलकुल नहीं थी, सिर्फ़ “रिकॉर्ड” बनाने के लिये भी नहीं थी, यह साफ़-साफ़ दैनिक भास्कर की मार्केटिंग का एक फ़ंडा था, जिसमें ब्रुक बाँड रेड लेबल नाम की चाय कम्पनी ने भी एक प्रमुख भूमिका निभाई।

हम भारतवासियों को नाटक-नौटंकी-खेल-तमाशे-झाँकी-झंडे की जैसे आदत सी पड़ गई है, यदि कोई काम सीधे तौर पर ईमानदारी से कर दिया जाये तो लगता ही नहीं काम हुआ है। कोई भी काम करने के लिये (और यहाँ तो कोई काम भी नहीं करना था, चाय पिलाने के अलावा) बड़ा सा तमाशा होना जरूरी है। फ़िर उस तमाशे को कोई एक “नोबल” सा नाम दिया जाये, ताकि लोगों को लगे कि “देखो हम तो कितने नाकारा हैं कि घर से उठकर मुफ़्त की चाय पीने भी नहीं जा सकते, और अगला है कि मेहनत किये जा रहा है इन्दौर के विकास के लिये, कितनी पीड़ा है उसके मन में इन्दौर की तरक्की के लिये।

एक साथ हजारों लोगों के चाय पीने से इन्दौर का विकास कैसे होगा यह समझ में नहीं आता, क्या उससे खराब सड़कें ठीक हो जायेंगी, या हजारों कप चाय पीने भर से इन्दौर के भदेस लोग ट्रैफ़िक नियम सीख जायेंगे, या एक स्टेडियम मे इकठ्ठे होकर गाना-बजाना कर लिया तो इन्दौर का प्रदूषण कम हो जायेगा, या फ़िर भू-माफ़िया अचानक गाँधीवादी हो जायेगा और हथियाई हुई जमीनें सरकार को वापस भले न करे, लेकिन उसके पूरे पैसे सरकार को दे देगा।

जाहिर है कि ऐसा कुछ भी नहीं होना है, न कभी हुआ है, न कभी होगा। लेकिन भारत की जनता को ऐसी नौटंकियों से बहलाया खूब जा सकता है, और इस काम में हमारे नेता और कथित मार्केटिंग गुरु उस्ताद हैं, लेकिन कोढ़ में खाज की बात यह है कि अब इस तमाशे में अखबार भी शामिल हो गये हैं, उन्हें भी अपनी “रीडरशिप” और “खपत संख्या” की चिंता सताने लगी है। जिस अखबार को सरकार, सरकारी कारिंदों, भ्रष्ट अधिकारियों, भू-माफ़ियाओं, अवैध अतिक्रमणों, प्रदूषण जैसी समस्याओं को लेकर अपने अखबार में आग उगलना चाहिये, रोजाना एक से बढ़कर एक भंडाफ़ोड़ करना चाहिये, प्रशासन की नाक नाली में रगड़ना चाहिये, वह चाय पिलाने में लगा हुआ है “विकास” और “एकता” के नाम पर…

हालांकि यह कोई पहला और आखिरी उदाहरण नहीं है, कुछ माह पहले भी मध्यप्रदेश सरकार ने सभी स्कूलों में बच्चों को “गरीबी हटाने” की शपथ दिलवाई थी। अब खुद ही सोचिये, स्कूलों में बच्चों को गरीबी हटाने की शपथ दिलाने से गरीबी कैसे मिट सकती है? जिन आईएएस अफ़सरों और सरकार ने मिलकर यह नौटंकी रचाई थी, गरीबी तो दर-असल उन्हीं लोगों के कारण फ़ैली है, भला उसमें स्कूली बच्चे क्या करेंगे? लेकिन नहीं, वही तथाकथित “उत्सवशीलता” और “जनभागीदारी” के नाम पर जैसे धर्मगुरु तमाशे करते हैं, आये दिन सरकारें, एनजीओ, प्रशासन कुछ न कुछ करता रहता है। कभी एड्स को लेकर मानव श्रृंखला बनाई जायेगी (भले ही अस्पतालों की हालत नरक से बदतर बना दी हो), कभी बच्चों के हाथों में तख्तियाँ पकड़ा कर पोलियो का प्रचार किया जायेगा, कभी कोई प्रवचनकार अपने ढोल-नगाड़े-बैंड-बाजे के साथ एक लम्बी सी शोभायात्रा निकालेंगे (जाहिर है कि विश्व शांति के नाम पर), कहने का मतलब यह कि ईमानदारी से काम करने के अलावा सब कुछ किया जाता है। इस सारे खेल में लाखों रुपया कभी एनजीओ खा जाते हैं, कभी अफ़सर खा जाते हैं, कभी ठेकेदार और उद्योगपति खा जाते हैं…

जनता भी ऐसी होती है कि जैसे उसे अपनी समस्याओं से कोई लेना-देना ही न हो। लोग-बाग आते हैं, तमाशा देखते हैं, चाय-वाय पीते हैं, प्रवचन हों तो तर घी का चकाचक प्रसाद ग्रहण करते हैं, पिछवाड़े से हाथ पोंछते हैं और अपने-अपने घर !!! वाकई क्या मूर्खता है… रही बात दैनिक भास्कर की, तो फ़िलहाल तो वह “माल” कूटने में लगा हुआ है, ढेरों विज्ञापन, ढेरों संस्करण, न जाने क्या-क्या बेचने के लिये विशेष परिशिष्ट (?), महिलाओं की किटी पार्टी जैसी थर्ड क्लास बात की भी पेज भर की रिपोर्टिंग, ताजमहल के लिये SMS भिजवाने की मुहिम, हिन्दी की दुर्दशा और भाषा का भ्रष्टाचार बढ़ाने में भी ये सबसे आगे हैं… आखिर ये हो क्या रहा है? और खुद को कहलाते हैं भारत का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार (आज तक चैनल भी ऐसा ही दावा करता रहा है, और उसका स्तर क्या है सभी जानते हैं)। सिर्फ़ एक छोटी सी बात यह भूल गये हैं वह है “पत्रकारिता और अखबार का लक्ष्य तथा उनकी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियाँ”…

सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com

01 March 2008

पिछली पोस्‍ट एग्रीगेटरों के शिकंजे से बच निकली

इस ब्‍लाग की पिछली पोस्‍ट एग्रीगेटरों के शिकंजे से बच निकली, ऐसा कैसे हुआ मुझे पता नही चल सका। यह देखना है कि यह किस कारण हुआ मुझे पता नही चल पाया। यह देखने के लिये यह पोस्‍ट कर रहा हूँ।

पिछली पोस्‍ट का लिंक निम्‍न है - भारत विकासशील देश है या नहीं?
आज का एक वाकया है जिसने मुझे ये सोचने पर मजबूर कर दिया की भारत विकासशील देश है या नहीं?

यह वाकया था ट्रैफिक सिग्नल पर तमाशा दिखा कर पैसे कमाने वाले छोटे बच्चों का:
हुआ कुछ ऐसा की एक साक्षात्कार के सिलसिले में मैं गुरगांव से गाजिअबाद गया था। लौटते समय मैंने ग्रेटर कैलाश के आस पास ट्रैफिक सिग्नल पर कुछ बहुत छोटे बच्चों को तमाशा दिखा कर पैसे मांगते देखा जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया। दृश्य के केन्द्र में एक मैलेकुच्ले कपडों में बच्ची थी, जो शरीर से करतब दिखा कर गुजरती गाड़ी वालों से पैसे मांग रही थी।पास की ही बस्ती में प्लास्टिक के तम्बुओं में शायद उसपे माता पिता रहते थे

दूसरा दृश्य जिसने मेरा ध्यान भंग किया जब मेरी गाड़ी आगे बढ़ी वो कुछ ऐसे था:
ये दृश्य था बच्चों द्वारा ट्रैफिक पर भीख मांगने का। साकेत का था ये किस्सा । इस घटना ने मुझे ये सोचने पर मजबूर किया की अगर विकासशील देश की राजधानी में धन का इतना असमान वितरण है टू बाकि शहरों का अंदाजा लगना कठिन नहीं है ।
क्या इन लोगों को देश के आर्थिक विकास का फायदा कभी मिलेगा?
क्या देश के विकास का फायदा लेने के अधिकारी वे लोग नहीं हैं? या देश के आर्थिक विकास का फायदा वो ही लोग हैं जिनके कारण दिल्ली की सडकों पर गाड़ियों और ट्रैफिक की दिक्कत हो गई है?
हमारी सरकारें दावा करती हैं प्रति व्यक्ति आय बढ़ने की, और देश के धनवान बनने का, तो क्या उन्हें ये याद नही रहता कि देश की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग ऐसे ही गरीब लोगों का है । क्या हमें उन्हें ये याद नही दिलाना चाहिए?
क्या वे बच्चे स्कूल जाना नहीं चाहते होंगे?क्या वे इस काबिल nahi बन सकते कि समाज के दुसरे लोगों के साथ बात सकें?ऐसे बहुत से सवाल हैं जो यह साबित करते हैं कि भारत अभी कम विकसित देश है। ये तो कोई और देश है जो विकासशील है, शायद इसी देश का नाम इंडिया है, क्यूंकि इस देश में वो लोग रहते हैं जो कान्वेंट स्कूल में पढ़ते हैं, और गरीबों को कीडे मकोडे समझते हैं। इस देश इंडिया के लोगों कि एक और खासियत है:
ये देश के साथ जुड़े बहुत सी बातों को जानते भी नहीं,मसलन:
इनमे से बहुत से लोग तो राष्ट्रगान राष्ट्रीय गीत कहते हैं।
इनको देश के राष्ट्रीय पशु, पक्षी, वगैरह किसी चीज़ से कोई सरोकार नही , और ना ये इन सब चीजों के बरे में जानते हैं॥
क्या इंडिया ही विकास करेगा , भारत नहीं?
ये सवाल कब अपना उत्तर पायेगा , ये तो अभी देखना है, हमें आपको, और भारत देश की करोड़ों अरबों की जनसंख्या को..