30 November 2007

अस्तित्‍व की खोज

जल की एक बूँद किसी प्रकार समुद्र के अथाह जल के पास पहुँची ओर उसमें घुलने लगी तो बूँद ने समुद्र से कहा – “मुझे अपने अस्तित्‍व को समाप्‍त करना मेरे लिये सम्‍भव नही होगा।, मै अपनी सत्‍ता खोना नही चाहती।”

समुद्र ने बूँद को समझाया-“तुम्‍हारी जैसी असंख्‍य बूँदों का समन्‍वय मात्र ही तासे मैं हूँ। तुम अपने भाई बहनों के साथ ही तो घुल‍ मिल रही हो। उसमें तुम्‍हारी सत्ता कम कहाँ हुई, वह तो और व्यापक हो गई है।”

बूँद को समु्द्र की बात पर संतोष नही हुआ और वह अपनी पृथक सत्ता की बात करती रही, और वार्त्ता के दौरान ही वह सूर्य की पंचड गर्मी के कारण वह वाष्‍प बन गई और कुछ देर बाद पुन: बारिस की बूँद के रूप में समुद्र के दरवाजें पर पहुँची। उसे अपनी ओर आता देख समुद्र तो समुद्र ने कहॉं कि- “बच्‍ची अपनी पृथक सत्‍ता बनाऐ रहकर भी तुम अपने स्वतंत्र अस्तित्‍व की रक्षा कहाँ कर सकीं? अपने उद्गम को समझो, तुम समष्टि से उत्‍पन्‍न हुई थीं अैर उसी की गोद में ही तुम्‍हें चैन मिलेगा।“

29 November 2007

जिन्दगी/मौत : एक तलाश???


मेरे जेहन मे अचानक ख्याल आया की, क्यों ना मौत की परिभाषा ढुढीं जाये। क्या सांसो के रुकने को ही मौत का नाम दिया जा सकता है या मौत की कोई और भी परिभाषा हो सकती है । पर सर्वप्रथम ये जानना जरुरी है की जिन्दगी क्या है? क्योकीं जिन्दगी और मौत एक सिक्के के दो पहलु है, और एक को जाने बिना दुसरे को जानना नामुमकिन है ।

जिन्दगी चलने का नाम है, जो कभी नही रुकती, किसी के लिये भी, चाहे शाहंशाह हो या फकीर। जिन्दगी हॅसने, खेलने, और मुस्कुराने का नाम है। कहना कितना आसान है, पर हकीकत से कोसों दुर।

जिन्दगी की शुरुआत होती है, जब बच्चा माँ के गर्भ मे आता है,हर तरफ खुशियां। प्रसवपीडा के असहनीय दर्द को सहते हुये, जब माता अपने पुत्र/पुत्री को निहारती है, तो उसे जैसे एह्सास होता है, जैसे ये दर्द तो जिन्दगी की उन खुशियों मे से है, जिसका इन्तजार वो वर्षों से कर रही हो। और शुरुआत होती है, एक नयी जिन्दगी की, सिर्फ पुत्र की नहीं वरन माता की भी। दुसरा पहलु आधुनिक युग २१वीं सदी...जहाँ माता मातृत्व के सुख से दुर होने की कोशिश कर रहीं, सिर्फ अपनी काया को बचाये रखने के लिये । अपनी ना खत्म होने वाली महत्वाकांक्षी आकाक्षओं की पुर्ति के लिये । क्या इसे भी जिन्दगी का नाम दिया जा सकता है, शायद नही, ये भी तो मौत का ही एक रुप है, जहां एक तरफ माँ की मौत हो रही है तो दुसरी तरफ उस बालक की जो इस संसार मे अपने अस्तिव को तलाशने लिये उत्सुक है।

श्रवण कुमार, जिसने अपने अँधे माता पिता को अपने काँधे पर बैठा कर तीर्थयात्रा का प्रयोजन किया और पुत्रधर्म को निभाते निभाते स्वर्गवासी हो गया । दुसरी तरफ आज का युवा, आखों मे हजारों सपने, बस वक्त नही है तो अपने मातापिता के लिये । लेकिन लेकिन लेकिन ये कहना गलत होगा की आज का युवा पुत्रधर्म नही निभाता है । पुत्रधर्म आज भी निभाया जा रहा है, वृद्धाआश्रम मे कुछ रुपयों को दे कर । फिर से एक ही चरित्र, “पुत्र “ जो एक तरफ मौत को गले लगाता है, और रिश्तों को जी जाता है, और दुसरी तरफ, दूसरा पुत्र हंस रहा है, खेल रहा है, गा रहा है, बस कुछ रुपये वृद्धाआश्रम मे दे कर। पर शायद ये भी जिन्दगी है, जो एक पुत्र रिश्तों के मौत पर जीता है।

सांसो के शुरुआत से लेकर सांसो के बंद होने तक, एक इन्सान ना जाने कितनी बार जन्म लेता है,और कितनी बार मरता है, फिर शोक हमेशा सांसो के बंद होने के बाद ही क्यों मनाया जाता है? अगर सांसो का बंद होना ही मृत्यु है, तो आज हम महात्मा गान्धी, भगत सिंह्, सुभाषचन्द्र बोस जैसे अनगिनत विभुतियों के नाम क्यों याद रखते है? क्यों हर बार अपनी बातों मे इनका जिक्र ले आते है? क्योकि शायद ये विभुतियां आज भी जिन्दा हैं ।मैने सुन रखा है, "जिन्दगी चंद सांसो की गुलाम है,जब तक सांसे है तब तक जिन्दगी है", पर शायद ये अधुरा सच है, क्योंकि पुरे सच मे "मौत चंद सांसो की गुलाम है, जो इन्तजार करती है की कब ये सांसे रुके और मै कब अपना दामन फैलाऊं। और जिन्दगी उन कर्मों का नाम है, जो कभी खत्म नही होती, इतिहास के पन्नों मे कैद हो कर, सदा सदा के लिये जीवित रहती है"।

मौत तो बेवफा है,फकत चंद सांसो के ले जायेगी,
जिन्दगी तो महबुबा है, अपने कर्मों के संग,
इतिहास के पन्नों मे मुझको लिखवा कर,
सदा के लिये जीवित कर जायेगी

दु:खद समाचार

ईश्वर भी कितनी निष्ठुर हो सकता है, मुझे इसका अनुमान न था। हमारे समूह श्री आशुतोष “मासूम” जी के 21 वर्षीय छोटे भाई दीपक का दो दिनों पूर्व देहान्‍त हो गया। परिवार को जो छति हुई उसी क्षतिपूर्ति किसी भी प्रकार नही की जा सकती है। दीपक के जाने शून्‍य स्‍थापित हुआ है वह भरा नही जा सकता है। विपत्ति की इस घड़ी में ईश्‍वर से प्रार्थना है कि शोक संतप्‍त परिवार को बल प्रदान करें और दिवंगत आत्‍मा को शान्ति प्रदान करें।

27 November 2007

और यूनिवर्सिटी के दरवाजे सदा के लिये बंद हो गये(बच्चन की जन्मशती पर विशेष)

बात उन दिनों की जब एमए का परिणाम निकला था, उन्हे द्वितीय श्रेणी मिली थी। उस वर्ष किसी को भी प्रथम श्रेणी नही मिली थी। जब वे साहस कर विभागाध्‍यक्ष श्री अमरनाथ झा के पास पहुँचे तो उन्‍होने इनसे पूछा कि आगे क्‍या करने का विचार है। बच्चन जी ने कहा कि मेरा विचार तो यूनिवर्सिटी में रह कर अध्‍यापन कार्य करने का था किन्‍तु .... । झा साहब कि ओर से कोई उत्‍तर न पा कर फिर अपने वाक्‍य को सम्‍भाल कर कहा कि अब किसी इंटर या हाई स्‍कूल में नौकरी करनी पड़ेगी। इस पर झा साहब के ये वाक्‍य उन पर पहाड़ की तरह टूट पडें कि स्‍थाईत्‍व के लिये एलटी या बीटी कर लेना। जो कुछ भी झा साहब की ओर से अपेक्षा थी उनके इस उत्‍तर से समाप्‍त हो गया। उन्हे लगा कि अब मेरे लिये यूनिवर्सिटी के दरवाजे सदा के लिये बंद हो गये। इसी के साथ उन्‍होने उनसे विदा मांगी। मन उदास हो गया पर उदासी में ही शायद मन कुठ विनोद के साधन खोजनेकी ओर प्रवृत्‍त हो चुका था। और उन्‍हे अपने एक मित्र की लिमरिक याद आई, जो उनके मित्र ने झा साहब से यूनिवर्सिटी में जगह मॉंग मॉंग कर हार जाने के बाद लिखी थी और बच्‍चन जी भी उसी को गाते हुऐ विश्‍वविद्यालय से विदा लिये।
There was a man called A Jha;
He had a very heavy Bheja;
He was a great snob,
When you asked him for job,He dolesomely uttered, ‘Achchha dekha jayega.’

उँर्दू का तो था ही और हिन्दी का भी आ गया(बच्चन की जन्मशती पर विशेष)

हरिवंश राय बच्‍चन के जीवन की कुछ महत्‍वपूर्ण घटनाओं में से एक घटी। उनके पास अग्रेजी विभाग के अध्‍यक्ष पंडित अमर नाथ झा का एक पत्र की आया, जिनसे वे अपेक्षा रखते थे कि वे उन्‍हे यूनिवर्सिटी में अध्‍यापन का अवसर देगें। झा साहब ने पत्र में लिखा था कि विभाग में एक अध्यापक के अवकाश ग्रहण करने से एक अस्‍थाई स्‍थान रिक्‍त है। क्‍या आप उसमें 125 रूपये प्रति माह वेतन पर काम करना चाहेगें? यदि आप इच्छुक हो तो शीघ्र विभागाध्‍यक्ष से मिलें। यह पत्र उन्‍हे देख कर सहसा उन्‍हे विश्‍वास नही हुआ।
वह झा साहब से मिलने गये, तो उन्‍होने सलाह दिया कि मै अग्रवाल कालेज का स्‍थाई अध्‍यापन छोड़कर, इलाहाबाद विवि की अस्‍थाई अध्‍यापन स्‍वीकार करूँ। बच्‍चन जी कहते है कि मुझे अपनी क्षमता का इतना विश्‍वास न था जितनी कि झा साहब कि निर्णायक बुद्धि का। उन्‍होने मुझे एक चेतावनी भी दी कि क्‍लास में कभी मै अपनी कविताएं न सुनाऊँ और विश्‍वविद्यालय में पढ़ाई के समय अपने को हिन्‍दी का कवि नही अंग्रेजी का लेक्चरर समझूं।
उनके मन में हमेशा एक बात कौधती रहती थी कि शायद मै अध्‍यापक न होता तो एक अच्‍छा कवि होता किन्‍तु कभी कहते थे कि मै एक कवि न होता तो एक अच्‍छा अध्‍यापक होता। वे अपने बारे में कहते है कि मेरी कविता को प्रेमियों का दल कभी एक बुरा कवि नही कहेगा। और मेरे विद्यार्थियों की जमात एक बुरा अध्‍यापक। उन्‍होने अपने अध्‍यापक को कभी भी कवि पर हावी नही होने दिया।
अग्रेजी विभाग में अपने स्‍वागत के विषय में कहते है कि शायद ही कुछ हुआ हो किन्‍तु एक जिक्र अवश्‍य करते है। उन दिनों अग्रेंजी विभाग में रघुपति सहाय ‘फिराक’ हुआ करते थे, जो उँर्दू के साहित्‍यकार थे। और उन दिनों काफी चर्चा हुआ करती थी कि अंग्रेजी विभाग में उँर्दू के शायर तो थे ही अब हिन्‍दी के कवि भी आ गये।

इलाहाबाद विश्विविद्यालय ने नही कहा “डाक्टसर बच्च न”

अपनी आत्‍म कथा में इलाहाबाद वि‍श्‍वविद्यालय के बारे बाताते है कि जुलाई में विश्‍वविद्यालय खुल गया और मुझे दो महीने के तनख्‍वाह के रूप में इलाहाबाद वि‍श्‍वविद्यालय की तरफ से 1000 रूपये मिल गये। विश्‍वविद्यालय के उनके प्रति व्‍यवहार के विषय में वह कहते है कि एक बात हमेंशा खटकती है कि विश्वविद्यालय में मेरे प्रति विरोध का नही किन्‍तु असाहनुभूति और उपेक्षा का वातावरण था। जब से मेरी कैम्ब्रिज से वापसी हुई उस दिन से विभाग कदम-कदम पर मुढेमहसूर करा देना चाहता था कि तुम यहॉं वांक्षित नही हो। उन्‍होने मुझे डाक्‍टर बच्‍चन कहकर संबोधित करने में भी अपनी हीनता समझी। उन‍के लिये आज भी बच्‍चन जी था, बच्‍चन जी हिन्दी का कवि।
बच्‍चन जी आगे कहते है - विभाग का सारा तंत्र मुझे यह कटु अनुभूति करा देना चाहता था कि तुम आज भी ठीक उसी जगह हो जाहँ दो वर्ष पूर्व अपने को छोड़कर अपने को गये थे, जिममें मेरा वेतन भी सम्मिलित था। परन्‍तु मेरे सहयोगी ये दो बातें नही जानते थे कि प्रथम यह कि मेरा उद्देश्‍य किसी आर्थिक लाभ का रखकर अपने शोध कार्य को पूरा करने का नही था। दूसरी यह कि मेरा अर्जन का क्षेत्र केवल विश्‍वविद्यालय ही नही थी।

“तेजी” नही “श्या’मा” और मेरी शिक्षा

हरिवंश राय बच्‍चन की प्रथम पत्‍नी तेजी बच्‍चन नही थी, उनकी पहली पत्‍नी का नाम श्‍यामा था। इलाहाबाद के बाई के बाग में रहने वाले श्री राम किशोर की बड़ी बेटी के साथ बच्‍चन जी का विवाह 1926 में हुआ था। उस समय उनकी अवस्‍था 19 वर्ष की थी और श्‍यामा की उम्र 14 साल के आस-पास थी। श्‍यामा के बारे में बच्‍चन जी कहते है – श्‍यामा मेरे सामने बिल्‍कुल बच्‍ची थी भोली, नन्‍ही, नादान, हँसमुख, किसी ऐसे मधुवन की टटकी गुलाब की कली, जिसमें न कभी पतझर आया हो, और न जिसने कभी काँटों की निकटता जानी हो।
1927 में डाक्‍टर बच्‍चन इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय के छात्र बन चुके थे, और उन्‍होने एच्छिक विषय में हिन्‍दी और दर्शन शास्‍त्र लिया, जबकि उन दिनों अग्रेंजी अनिवार्य हुआ करती थी। विश्‍वविद्यालय उनके घर से करीब चार मील दूर हुआ करती थी। जो वे पैदल तय करते थे, इसमें बहुत सा समय बर्बाद हुआ करता था। तो उन्‍होने चलते हुऐ पढ़ने की आदत डाल लिया। सुबह और शाम का समय ट्यूशन होता था। वे रात्रि 12 बजे तक पढ़ते थे और सुबह 4 बजे उठ जाते थे। उनके लिये 4 घन्‍टे की नींद पर्याप्‍त होती थी, किन्‍तु कभी कभी उन्‍हे दो घन्‍टे 12 से 2 के बीच ही काम चलाना पढ़ता था। जब इनके ससुर श्री रामकिशोर को पता चला कि वे पैदल विश्‍वविद्यालय जाते है तो उन्‍हो ने द्रवित होकर एक साइकिल भेज दी। साइ्रकिल से इनका समय और श्रम दोनो बचा। 1929 में ये विश्‍वविद्यालय के प्रथम 3 छात्रों में उत्‍तीर्ण होने वालों में से थे।
एक दिन इन्हे श्‍याम के बुखार के बारे में पता चलता है,जो करीब 4 माह तक नही उतरा। यह बुखार वह तपेदिक बुखार था जो श्‍यामा अपने माता जी की सेवा के दौरान अपने साथ ले आई थी। और यह श्‍यामा के साथ तब तक थी जब तक कि उसका अंत नही हो गया। डाक्‍टर बच्‍चन श्‍यामा के प्रति असीम प्रेम के बारे में कहते है- वह मेरी शरीर की संगिनी नही बन सकती थी, मेरे मन की संगिनी तो बन ही सकती थी और मेरे मन का कुछ भी ऐसा न था जो उसके मन में न उतार दिया हो। उसने मेरा नाम Suffering रख दिया था, जब हम अकेले होते थे तो वह मुणे इसी नाम से सम्‍बोधित करती थीऔर मै उसे Joy कहता।
घर की आर्थिक स्थिति ठीक नही थी, और एम.ए. प्रीवियस की परीक्षा किसी प्रकार पास हो गया किन्‍तु अगले साल इनकी पढ़ाई जारी न रह सकी और इनकी पढ़ाई छूट गई। 1930 में आयोजित एक प्रतियोगिता में इनकी एक कहानी को प्रथम पुरस्‍कार मिला। 1931 में ये विश्‍वविद्यालय के छात्र ने थे किन्‍तु अपनी कहानी ‘हृदय की आखें’ इतनी अच्‍छी थी कि प्रेमचन्‍द्र ने उसे हंस में भी छापा।

26 November 2007

हरिवंश राय बच्चजन – प्रारम्भिक जीवन

डाक्टर हरिवंश राय बच्‍चन मूलत: उत्‍तर प्रदेश के बस्ती के अमोढ़ा नामक ग्राम था। बाद में इनका पूरा परिवार प्रतापगढ़ जिले के बाबूपट्टी गाँव में आ गया। इनका पूरा परिवार बाद में इलाहाबाद चला आया, प्रतापगढ़ से इलाहाबाद आने वाले प्रथम मनसा व्‍यक्ति थें। इनके पिता का नाम श्री प्रतापनारायण था और इनके दो पुत्र श्री शालिग्राम और श्री हरिवंशराय बच्चन था। इनके पिता का विवाह इश्वरीप्रसाद की कन्‍या सुरसती देवी के साथ तय हुआ।
बच्‍चन जी अपने बच्‍चन के बारे में कहते है कि – मेरे माता-पिता ने मुझे जिस नाम से घर में पुकारा था, उसी को मैने अपने लेखक के लिए स्‍वीकार किया, उसी को मैंने अपने लेखक के लिये स्‍वीकार किया, हालांकि उन दिनों जैसे साहित्यिक और श्रुति-मधुर उपनाम लोग अपने लिए चुनते थे, उनके मेरे बच्‍चन जैसे छोटे लघुप्राण, अप्रभावकारी, घरेलू नाम का कोई मेल न था।
इनके पिता श्री अंग्रेजी पायनियर में क्‍लार्क पद पर कार्यरत थें, इन्‍होने पायनियर में सबसे छोटे पद से लेकर सबसे ऊँचे पद पर कार्यरत किये। जब वे रिटायर हुऐ तो उनकी तनख्‍वाह 200 रूपये से ज्‍यादा थी। इनके सहयोगियों ने इन्‍हे “पायनियर कार्यालय का आधार स्‍तंम्‍भ” (Pillar of the support of the Pioneer Office) कहा था।
बच्‍चन जी का जन्म 27 नवम्‍बर 1907 को हुआ, ओर इनके माता‍-पिता ने नाम हरिवंश रखा किनतु दुलार से इन्‍हे बच्‍चन कह कर पुकारते थे। इनकी प्रारम्भि शिक्षा घर पर ही हुई हिन्‍दी बड़ी बहनों से सीखा तो उर्दू की शिक्षा दीक्षा मॉं ने दी। बचपन के दिनों की बात बताते हुऐ, बच्‍चन जी कहते है कि एक बार इलाहाबाद में लोकमान्‍य तिलक और एनी बेसेंट का आगमन हुआ था और मैने इनके बारे में बहुत कुछ सुना था। टमटम के बैठा कर उनका जूलूस निकाला जाना था। और जब टमटम रूकी तो हिन्‍दू बोर्डिग हाऊस के छात्रों ने घोडें खोल दिये और स्‍वयं उनकी गाड़ी को खीचा। अगर मै अपने जीवन में कुछ न कर पाता तो मुझे अपने जीवन में एक बात पर गर्व करने के लिये पर्याप्‍त होता कि जिन लड़को ने उनकी गाड़ी खीची उनमें मै भी था। एक बार जब यह छोटे थे तो इन्हे पता चला कि विद्या मन्दिर में स्‍वामी सत्‍य देव परिव्राजक का व्याख्‍यान है। और यह भी उन्‍हे सुनने के लिये गये, भाषण में उनकी ओजस्विता से काफी प्रभावित हुए, उनकी आवाज़ दूर तक साफ साफ सुनाई देती थी। उनका भाषण हिन्‍दी हमारी राष्‍ट्रभाषा पर था। फिर उन्‍होन भी निर्णण किया कि मै हिन्‍दी माध्‍यम से शिक्षा ग्रहण करूँगा। उन दिनों स्‍कूलों में माध्‍यम बदलने के लिये डिप्‍टी इंस्‍पेक्‍टर से अनुमति लेना जरूरी होता था। उस समय डिप्‍टी इन्‍स्‍पेक्‍टर बाबू शिव कुमार सिंह थे। हिन्‍दी के प्रति इनका उत्‍साह देख का डिप्‍टी इंस्‍पेक्‍टर ने इन्‍हे हिन्‍दी की अनुमति दे दी। परीक्षा में प्रथम स्‍थान की अपेक्षा थी किन्‍तु हिन्‍दी माध्‍यम के कारण इन्‍हे द्वितीय स्‍थान से ही संतोष करना पड़ा। परन्‍तु इस सम्‍बन्‍ध में बच्‍चन जी का कहना कि मैने सही कदम चुना है।

गांधी और मधुशाला

बात उन दिनों की है जब अखिल भारतीय हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन का वार्षिकोत्सव होने वाल था, और गांधी जी उस उत्‍सव का सभापति बनना था। सभा नेत्री के रूप में महादेवी जी ने आसन ग्रहण किया था। उस दौर में पहली बार मधुशाला इन्‍दौर की जनता के सामने आने वाली थी। बहुत से लोग मधुशाला का अर्थ नही समझते थे। किसी ने पूछा कि सेठजी मधुशाला शूं छे? सेठ जी ने उत्‍तर दिया मधुशाला शोई अपणी कांग्रेस, हिन्‍दू शभा मन्दिर, मुस्लिम लीग मस्जित।

किसी को मधुशाला से बैर था और उसने गांधी जी से शिकायत कर दी कि आप जिस सम्‍मेलन के सभापति है वहॉं मदिरा का गुणगान किया जाना है। दूसरे दिन अंतरंग सभा की बैठक थी, रात के 12 बजे थे। गांधी जी ने मुझे 11.55 पर मुझे सभा हाल के बगल वाले कमरे में बच्‍चन जी को मिलने के लिये बुलाया। बच्‍चन जी अपने गांधी मिलन की बात को बताते है- मुझे गांधी जी से मिलने की खुशी थी डर भी था, अगर कह दें कि मधुशाला न पढ़ा करूँया नष्‍ट कर दूँ तो उनकी आज्ञा को टलाना कैसे संभव होगा? गांधी जी ने शिकायत की चर्चा की और कुछ पद सुनने चाहे। कुछ मैने भी सर्तकता बतरती चुन चुन कर ऐसी सुबाइयां सुनाई जिनके संकेतार्थ शायद उन्‍हें ग्राह्य होते। बच्‍चन जी कुछ पक्तिंतयों को गाते है और कुछ देर बाद गांधी जी का यह उत्‍तर पा कर कि इसमें तो मदिरा का गुणगान नही है, गांधी जी के मुँह से यह शब्‍द सुनकर बच्‍चन जी की खुशी की सीमा ही न रही। यह गांधी जी के साथ बच्‍चन जी की पहली और अन्तिम भेंट थी। और इसका पूरा श्रेय मधुशाला और उसके विरोधियों को जाता है।

24 November 2007

महाशक्ति समूह मनाऐगा हरिवंश राय जन्‍मशती उत्‍सव

महाशक्ति समूह ने 27 नवम्‍बर को डाक्‍टर श्री हरिवंश राय बच्‍चन जी की जन्‍मश‍ती उत्‍सव मनाने का निर्णय लिया है। इलाहाबाद में एक लघु बैठक में यह निर्णय हुआ कि इस प्रयाग की माटी को कई महापुरूषों ने अपने नाम से गौरवान्वित किया है। जिस अमर कवि को सारा देश याद करेगा उसके सम्‍मान हमारे द्वारा कुछ श्रद्धा पुष्‍प अर्पित किया जाना चाहिए।
इसलिये महाशक्ति समूह ने यह निर्णय लिया है कि हम 27 नवम्‍बर के दिन बच्‍चन जी के सम्‍मान में उनके संदर्भ में विभिन्‍न रचनाऍं प्रकाशित करेगें। यदि आपके पास भी कुछ भी बच्‍चन जी से सम्‍बन्धित समाग्री उपलब्‍ध हो, आप चाहते है कि वह सामग्री हमारे द्वारा आयोजिक कार्यक्रम का हिस्‍सा बनें तो आप मुझे या प्रमेन्‍द्र प्रताप सिंह को ईमेल के द्वारा उक्‍त सामग्रियॉं प्रेषित कर सकते है, हम बकायदा आपके नाम के साथ उसे प्रकाशित करेंगें, और आपके द्वारा किये गये सहयोग के प्रति कृतज्ञ रहेगें।

गौरव त्रिपाठी - tripathi.gt(at)gmail(dot)कॉम
प्रमेन्‍द्र प्रताप सिंह - pramendraps(at)gmail(dot)कॉम

23 November 2007

जय गुरू नानक देव

कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्‍नान का हिन्‍दू धर्म में बड़ा महात्‍व होता है। प्रात: काल से ही हिन्‍दू धर्म के अनुयायी विभिन्‍न नदियों में स्‍नान करते है। इसी पुण्‍य तिथि के दिन सिक्‍ख पंथ के संस्थापक एवं प्रथम गुरू नानक देव जी का जन्‍म दिवस है। इनका जन्‍म अखंड भारत के ननकाना पंजाब प्रान्‍त में हुआ था जो आज पकिस्‍तान में है। इनके विषय में कहा जाता है कि जन्‍म होते ही ये हँस पडे थे। गुरू नानक जी को पंजाबी, संस्‍कृत, एवं फारसी का ज्ञान था। बचपन से ही इनके अंदर आध्‍यत्‍म और भक्ति भावना का संचार हो चुका था। और प्रारम्‍भ से ही संतों के संगत में आ गये थे। विवाह हुआ तथा दो संतान भी हुई, किन्‍तु पारिवारिक माह माया में नही फँसे। वे कहते थे “जो ईश्‍वर को प्रमे से स्‍मरण करे, वही प्‍यारा बन्‍दा”। हिन्‍दू मसलमान दोनो ही इनके शिष्‍य बने। देश-विदेश की यात्रा की, मक्‍का गये। वहॉं काबा की ओर पैर कर के सो रहे थे। लोग इनकी यह बात देख कर नाराज हो गयें, और इनके पैर को उठाकर दूसरी ओर कर दिया किन्‍तु जिधर पैर करते उधर ही काबा हो जाता। जब वे बगदाद पहुँचे तो वहॉं का खलीफा जनता का शोषण कर अपार धर जमा किये हुये थे। इन्‍होने कंकड़-पत्‍थर इकट्ठे कर खलीफा से पूछा क्‍यो मेरे द्वारा इन पत्‍थरों से तुझे मार दिये जाने पर क्‍या यह सब धन तेरे साथ उपर जायेगा ? खलीफा की बुद्धि ठिकाने आ गई और उसने जनता पर अत्‍याचार बंद कर दिया। प्रिय शिष्‍य भाई लहणा को अंग से लगाया तो लहण अंगद देव बन गये उन्‍ही को गरू की गद्दी पर बिठाया। 70 वर्ष की आयु में स्‍वर्ग धाम को चले गयें। सभी को कार्तिक पूर्णिमा व श्री गुरूनानक देव जंयती पर हार्दिक सुभकानाऍं।

20 November 2007

फतवा और मुस्लिम औरत

फतवा क्या है
जो लोग फतवों के बारे में नहीं जानते, उन्‍हें लगेगा कि यह कैसा समुदाय है, जो ऐसे फतवों पर जीता है। फतवा अरबी का लफ्ज़ है। इसका मायने होता है- किसी मामले में आलिम ए दीन की शरीअत के मुताबिक दी गयी राय। ये राय जिंदगी से जुड़े किसी भी मामले पर दी जा सकती है। फतवा यूँ ही नहीं दे दिया जाता है। फतवा कोई मांगता है तो दिया जाता है, फतवा जारी नहीं होता है। हर उलमा जो भी कहता है, वह भी फतवा नहीं हो सकता है। फतवे के साथ एक और बात ध्‍यान देने वाली है कि हिन्‍दुस्‍तान में फतवा मानने की कोई बाध्‍यता नहीं है। फतवा महज़ एक राय है। मानना न मानना, मांगने वाले की नीयत पर निर्भर करता है। लेकीन हिन्दुस्तान मे फतवा मुस्लमाने के लिये हिन्दुस्तान का संविधान से भी ज्याद महत्वपुर्ण है ।

बलात्कार की शिकार लड़की को 200 कोड़े मारने की सजा
जेद्दाह : जेद्दाह में एक सऊदी अदालत ने पिछले साल सामूहिक बलात्कार की शिकार लड़की को 90 कोड़े मारने की सजा दी थी। उसके वकील ने इस सजा के खिलाफ अपील की तो अदालत ने सजा बढ़ा दी और हुक्म दिया: '200 कोड़े मारे जाएं।' लड़की को 6 महीने कैद की सजा भी सुना दी। अदालत का कहना है कि उसने अपनी बात मीडिया तक पहुंचाकर न्याय की प्रक्रिया पर असर डालने की कोशिश की। कोर्ट ने अभियुक्तों की सजा भी दुगनी कर दी।
इस फैसले से वकील भी हैरान हैं। बहस छिड़ गई है कि 21वीं सदी में सऊदी अरब में औरतों का दर्जा क्या है? उस पर जुल्म तो करता है मर्द, लेकिन सबसे ज्यादा सजा भी औरत को ही दी जाती है।

बेटी से निकाह कर उसे गर्भवती किया
जलपाईगुड़ी : पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में एक व्यक्ति ने सारी मर्यादाओं को तोड़ते हुए अपनी सगी बेटी से ही शादी कर ली और उसे गर्भवती भी कर दिया है। यही नहीं , वह इसे सही ठहराने के लिए कहा रहा है कि इस रिश्ते को खुदा की मंजूरी है। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस निकाह का गवाह कोई और नहीं खुद लड़की की मां और उस शख्स की बीवी थी।
जलपाईगुड़ी के कसाईझोरा गांव के रहने वाले अफज़ुद्दीन अली ने गांव वालों से छिपाकर अपनी बेटी से निकाह किया था इसलिए उस समय किसी को इस बारे में पता नहीं चला। अब छह महीने बाद लड़की गर्भवती हो गई है ।

मस्जिद में नमाज अदा करने पर महिलाओं को मिला फतवा
गुवाहाटी (टीएनएन) : असम के हाउली टाउन में कुछ महिलाओं के खिलाफ फतवा जारी किया गया क्योंकि उन्होंने एक मस्जिद के भीतर जाकर नमाज अदा की थी।
असम के इस मुस्लिम बाहुल्य इलाके की शांति उस समय भंग हो गई , जब 29 जून शुक्रवार को यहां की एक मस्जिद में औरतों के एक समूह ने अलग से बनी एक जगह पर बैठकर जुमे की नमाज अदा की। राज्य भर से आई इन महिलाओं ने मॉडरेट्स के नेतृत्व में मस्जिद में प्रवेश किया। इस मामले में जमाते इस्लामी ने कहा कि कुरान में महिलाओं के मस्जिद में नमाज पढ़ने की मनाही नहीं है।
जिले के दीनी तालीम बोर्ड ऑफ द कम्युनिटी ने इस कदम का विरोध करते हुए कहा कि इस तरीके की हरकत गैरइस्लामी है। बोर्ड ने मस्जिद में महिलाओं द्वारा नमाज करने को रोकने के लिए फतवा भी जारी किया।

कम कपड़े वाली महिलाएं लावारिस गोश्त की तरह: मौलवी
मेलबर्न (एएनआई) : एक मौलवी के महिलाओं के लिबास पर दिए गए बयान से ऑस्ट्रेलिया में अच्छा खासा विवाद उठ खड़ा हुआ है। मौलवी ने कहा है कि कम कपड़े पहनने वाली महिलाएं लावारिस गोश्त की तरह होती हैं , जो ' भूखे जानवरों ' को अपनी ओर खींचता है।
रमजान के महीने में सिडनी के शेख ताजदीन अल-हिलाली की तकरीर ने ऑस्ट्रेलिया में महिला लीडर्स का पारा चढ़ा दिया। शेख ने अपनी तकरीर में कहा कि सिडनी में होने वाले गैंग रेप की वारदातों के लिए के लिए पूरी तरह से रेप करने वालों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
500 लोगों की धार्मिक सभा को संबोधित करते हुए शेख हिलाली ने कहा , ' अगर आप खुला हुआ गोश्त गली या पार्क या किसी और खुले हुए स्थान पर रख देते हैं और बिल्लियां आकर उसे खा जाएं तो गलती किसकी है , बिल्लियों की या खुले हुए गोश्त की ?'

कामकाजी महिलाएं पुरुषों को दूध पिलाएं : फतवा
काहिरा : मिस्र में पिछले दिनों आए दो अजीबोगरीब फतवों ने अजीब सी स्थिति पैदा कर दी है। ये फतवे किसी ऐरे-गैरे की ओर से नहीं बल्कि देश के टॉप मौलवियों की ओर से जारी किए जा रहे हैं।
देश के बड़े मुफ्तियों में से एक इज्ज़ात आतियाह ने कुछ ही दिन पहले नौकरीपेशा महिलाओं द्वारा अपने कुंआरे पुरुष को-वर्करों को कम से कम 5 बार अपनी छाती का दूध पिलाने का फतवा जारी किया। तर्क यह दिया गया कि इससे उनमें मां-बेटों की रिलेशनशिप बनेगी और अकेलेपन के दौरान वे किसी भी इस्लामिक मान्यता को तोड़ने से बचेंगे।

गले लगाना बना फतवे का कारण
इस्लामाबाद (भाषा) : इस्लामाबाद की लाल मस्जिद के धर्मगुरुओं ने पर्यटन मंत्री नीलोफर बख्तियार के खिलाफ तालिबानी शैली में एक फतवा जारी किया है और उन्हें तुरंत हटाने की मांग की है।
बख्तियार पर आरोप है कि उन्होंने फ्रांस में पैराग्लाइडिंग के दौरान अपने इंस्ट्रक्टर को गले लगाया। इसकी वजह से इस्लाम बदनाम हुआ है।

फतवा: ससुर को पति पति को बेटा
एक फतवा की शिकार मुजफरनगर की ईमराना भी हुई। जो अपने ससुर के हवश का शिकार होने के बाद उसे आपने ससुर को पति ओर पति को बेटा मानने को कहा ओर ऐसा ना करने पे उसे भी फतवा जारी करने की धमकी मिली।

हाँ बाबूजी, मै वेश्‍या हूँ

उस भीड़ भरी राहों मे भी एक सून सान सी जगह है,
हर रोज देखता हूँ, उन्हे वहाँ पर,
संध्या की बेला के साथ, सजधज वो वहॉं आ जाती है,
खड़ी तो खामोश ही रहती है,
पर आँखें उनकी ना जाने किसको बुलाती हैं,
अगर कोई आ जाये, तो मुस्कुराती है,
और फिर चुपचाप उनके साथ चली जाती है,
बचपन से ये देखता आ रहा हूँ,
और खुद से ये पूछता रहा हूँ,
कौन हैं ये, जो हर शाम ना जाने कहाँ से चली आती हैं?
और किसी अन्जान के साथ, कहीं चली जाती हैं.

व्याकुलता इतनी थी की,
पिताजी से भी वही सवाल दोहराया,
पर शायद जवाब वहाँ भी मौजुद ना थे,
पिताजी भी तीखी जुबान से बस इतना कह पाये,
कोई नहीं है वो, आज से उधर नही जाओंगे,
और " मासूम" दिल मे वो सवाल कहीं खो सा गया,

पर शायद कुछ सवालो के जवाब वक्त दे जाता है,
आज मै भी उन्हें पहचाने लगा हूँ,
समाज के द्वारा दिये गये नामों से,
मै भी उन्हे जानने लगा हूँ,
अच्छा तो ये वेश्‍या, निशागामिनी,
या सभ्य भाषा में कालगर्ल कहलाती है,
जो समाज के सम्मानित व्यक्तियों के,
ना बुझने वाली भूख को हर रोज,
अपनी शरीर से बुझाती हैं.
पर क्या, कभी उनके दिल मे ये ख्याल नही आता है,
वो भी कभी किसी की बेटी, मां या किसी की बहन बने,
चंद रुपयों के खातिर क्यों, अपनी जिन्दगी से समझौता करे???

सवाल जो कभी सिर्फ एक हुआ करता था,
आज कई लडियों मे गुथ चुका था,
सवालों के जवाब को ढुंढते-ढुढते,
हम भी एक दिन उन्हीं राहों से गुजर गये,
और जो जवाब ये मन ढूढ़ रहा था,
उन जवाबों मे फिर से कहीं उलझ गये.

हां बाबू जी, मै वेश्‍या हूँ,
जो हर रात दुल्हन बनती है,
और सुबह की पहली किरण के साथ बेवा हो जाती है.
हां बाबू जी, मै भी बेटी हुआ करती थी,
कभी मुझे भी कोई दीदी बुलाया करता था,
पर एक दिन जब उनका साया मुझ पर से उठ गया,
आपके सभ्य समाज के संभ्रान्तों ने ही, १५ साल की बच्ची को,
उसके यौवन का एहसास करवाया था,
मेरी मजबूरी को, मेरी ताकत बताया था,

हां बाबू जी, मै भी मातृत्व को जीना चाहती हूँ,
पर मेरी तो हर रात सुहागरात मनायी जाती है,
मेरे जिस्म को कुत्तो की तरह कुचला मसला जाता है,
फिर चंद रुपयों को मेरे उपर फेक,
रात मे एक जिस्म एक जान करने वाला,
मुझ को वेश्‍या कह कर चला जाता है.

हां बाबुजी मै वेश्‍या हूँ,
जो अपनी मजबूरी में, अपनी जिस्म को नीलाम करती हूँ,
पर पूछो, अपने समाज के सभ्य लोगो से,
उनकी क्या मजबूरी है?
जो अपनी भूख मिटाने के खातिर,
इस गंदी दलदल मे चले आते हैं,
पूछो, दिन की उजालों मे बडी़ बडी़ बात करने वालों से,
क्यों शाम होते ही, बेटी की उम्र की लडकी उन्हे वेश्‍या दिखने लग जाती है??
जानती हूँ बाबूजी, आपके पास भी इन सवालों के जवाब नही होगें,
क्योंकि‍ आप भी इसी समाज के सभ्य इन्सान हैं.

और बाबूजी आज के बाद किसी वेश्‍या को स्त्री मत कहना,
क्योंकि‍, हम तो बस खिलौने हैं, जिनसे बस खेला जाता है,
हमारे दर्द और पीड़ा को कभी जानने की कोशिश मत करना,
नहीं तो शायद, इस सभ्य समाज से आपका भरोशा उठ जाये,
क्योंकि, अगर समाज के भूखे भेडियों की भूख हम नहीं मिटायेगें,
तो शायद ये दरिंदें, कल आपके बहू-बेटियों को नोचते नज़र आयेगें.

वो सवाल जो बचपन से चला आ रहा था,
आज फिर से कई सवालों मे खुद को घिरता हुआ पा रहा था,
आखिर वेश्‍या कौन???
वो जो हर शाम, सजधज कर चौराहे पर चली आती है, या,
वो सम्‍भ्रान्त, जो हर शाम सौदागर बन जाते है.

18 November 2007

हार का जश्न

जिन रास्तों की कोई मंजिल ना हो,
उस रास्ते पर चलने का मजा कुछ और होता है।
ख्व़ाब तो अन्तहीन होते हैं,
फिर भी उनका रोज टूटना और रोज बुना जाना होता है।।

अपनी जीत कि खुशी मनाने वाले,
कभी मेरी हार के जश्न पर आ कर तो देख
हम आज भी बादशाह है अपने मुल्क के,
जी से गमों को छुपाकर हर पल मुस्कुराना होता है.

मंजिल की जुस्तुजु तो थी ही नही कभी हमें,
क्योंकि दुनिया की शर्तो पर चलना हमें आता नहीं।
हसरतों की राहों मे अब तो हर रोज खेलते हैं,
क्योकि मंजिल दर मंजिल भटकने का मजा कुछ और होता है।

ऐसा नहीं की मेरे दामन पर गुनाहों का दाग़ नही,
पर मेरी गुनाहों पर वफ़ा का नाम होता है।
है कोई जो कह सके, की वो गुनहगार नहीं,
बिना रावण के क्या कोई कभी राम का नाम लेता है।

16 November 2007

अमेरीका से कुछ सीख ले भारत

भारत हमेसा से आतकवाद के विरुद्द लड़ने मे अमेरीका का मुह देखता है और कहता है कि अमेरीका भारत का सर्मथन नही करता है क्या भारत सरकार इस लायक है कि उसका कोई सर्मथन करे क्या इसमे इतना ताकत है कि ये आतकवाद को समाप्त कर सके शायद नही ।
भारत और अमेरीका मे आतकवाद के विरुद्द लड़ने का कितना दम है मद्दा है इसके लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है। अनीति के पृथकतावादी नेता सैय्यद अलीशाह गिलानी जब तक स्वस्थ था भारतीय तन्त्र के विरुध और जम्मू कश्मीर मे सशस्त्र आतकवाद को बढावा देने मे कभी भी पीछे नही हटे और जब मुम्बई मे उसका इलाज चल रहा था तो उसको यही चिन्ता सता रही थी कि क्या कश्मीर मे उसका विक्लप मैजुद है? उसकी राष्ट्र विरोधी गतिविधियो के बावजूद भारत सरकार ने अमरीका मे उपचार हेतु भारत सरकार ने उसे पासपोर्ट जारी किया, प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिह ने हर सभव चिकित्सकीय सहयता देने का आश्वासन दिया, दूसरी और यह अमरीका ही है जिसने गिलानी को वीजा देने से मना कर दिया। उसी गिलानी की भारत विरोधी गतिविधियो को नजरअन्दाज करने का ही दुष्परिणाम है कि पाव पर खड़ होते ही श्रीनगर मे भारत विरोधी रैली का आयोजन किया जिसमे कई आतन्कवादी गुट के बैनर तथा नकाबपोश आतन्कवादी शामिल हुए बाद मे उसी गिलानी ने कश्मीर मे गैर कश्मीर मजदूरो को घाटी से बाहर जाने का फ़तवा जारी किया।
यह हम सब के लिया चिन्ता क विषय है कि एक ओर आतन्कवादी के प्रति नरम रवैया है, कातिल से हाथ मिलाने का दस्तूर है, अलगावादियो एव आतन्कवादी के बिना पासपोर्ट के भी पाकिस्तान की सीमा लाघने पर कुछ नही कहा जाता, सन्सद के हमलावर को मौत की सजा तक रोक दी जाती है, भारतीय सम्प्रभुता की रक्षा के लिए प्राण - न्योछावर करने वालो ससद के रणबाकुरो के परिजनो द्वारा शहादत के सम्मान मे दिये गये शोर्य पदक लौटाए जाने पर भी राष्ट्र आतन्कवाद के प्रति मौन है। दूसरी ओर अमरीका अन्तराष्टीय आतन्कवादी गुट अलकायदा से लोहा लेने के लिये हजारो मील का सफर तय कर अफगानिस्तान पर चठाई कर देता है। वह ओसामाविन लादेन के गढ मे जाकर आतन्कवादीयो को मारता है, ईराक मे सद्दाम हुसौन की तानाशाही मे सेध लगा देता है और आतन्कवाद से लड़ने मे तुष्टीकरण की राजनीति का शिकार हुये भारत के लिए भी यह आदर्श प्रस्तुत करता है कि मानवता के दुश्मनो को कैसे सबक सिखाया जाता है और भारत की नपुसक सरकार है जो आतन्कवाद को खात्मे के लिए ठोस कदम नही उठा रही है।

15 November 2007

औषधिस गुण मुलेठी के

पहिचान

मुलेठी का वैज्ञानिक नाम ग्‍लीसीर्रहीजा ग्लाब्र (Glycyrrhiza glabra ) कहते है। संस्‍कृत में मधुयष्‍टी:, बंगला में जष्टिमधु, मलयालम में इरत्तिमधुरम, तथा तमिल में अतिमधुरम कहते है। एक झाड़ीनुमा पौधा होता है। इसमें गुलाबी और जामुनी रंग के फूल होते है। इसके फल लम्‍बे चपटे तथा कांटे होते है। इसकी पत्तियॉं सयुक्‍त होती है। मूल जड़ों से छोटी-छोटी जडे निकलती है। इसकी खेती पूरे भारतवर्ष में होती है।


औषधीय गुण

मुलेठी खासी, गले की खराश, उदरशूल क्षयरोग, श्‍वासनली की सूजन तथा मिरगी आदि के इलाज में उपयोगी है। इसमें एंटीबायोटिक एवं बैक्टिरिय से लड़ने की क्षमता पाई जाती है। यह शरीर के अन्‍दरूनी चोटो में भी लाभदायक होता है। भारत में इसे पान आदि में डालकर प्रयोग किया जाता है

14 November 2007

श्री गंगाजी की महिमा

धातु: कमण्‍डलुजलं तदरूक्रमस्‍य,

                          पादावनेजनपवित्रतया नरेन्‍द्र ।

स्‍वर्धन्‍यभून्‍नभसि सा पतती निमार्ष्टि,

                          लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्ति: ।।

                                                    ( श्रीमद्भा0 8।4।21)

(श्रीशुकदेवजी ने परीक्षित् से कहा) राजन् ! वह ब्रह्माजी के कमण्‍डलुका जल, त्रिविक्रम (वामन) भगवान् के चरणों को धोने से पवित्रतम होकर गंगा रूप में परिणत हो गया। वे ही (भगवती) गंगा भगवान् की धवल कीर्ति के समान आकाश से (भगीरथी द्वारा) पृथ्‍वी पर आकर अब तक तीनों लोकों को पवित्र कर रही है।

13 November 2007

नंदीग्राम के हिटलर

आज नंदीग्राम में सत्तारूढ़ माकपा कार्यकर्ता के द्वारा जो कुछ हो रहा है 23 साल पूर्व कांग्रेस पार्टी द्वारा प्रायोजित देशव्यापी सिख नरसंहार जिसमे में तीन हजार से अधिक सिख मारे गए थे घटना कि याद तजा हो गई। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सत्तारूढ़ सीपीएम के नंदीग्राम पर हमले को सही ठहराया है। पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ माकपा पर नंदीग्राम में अपनी नीतियों के जरिये भारतीय राज्य पर युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया। मनमोहन-सोनिया पर इस मामले में 'धृतराष्ट्र' की तरह आंखें बंद करने का आरोप लगाया। माकपा ने इलाके को प्रवेश निषेध क्षेत्र बना रखा है और 'रेड रिपब्लिक' की स्थापना कर दी है जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। माकपा नंदीग्राम में निजी सेना की मदद ले रही है जिसमें कुख्यात बदमाश शामिल हैं। अमानुल्ला (पत्रकार) ने कहा, "बुद्धदेब भट्टाचार्य मुख्यमंत्री की तरह नहीं बोल रहे थे उनके भीतर सियासी अहम पैदा हो गया है और उनकी भाषा इसी को दर्शाती है इसमें तानाशाही की भी झलक मिलती है पुलिस बाले भी सीपीएम में शामिल हो गए हैं और सत्ता एवम माकपा कार्यकर्ता से साथ मिलकर कार्य कर रहे हैं नंदीग्राम के किसानों के लिए ये अस्तित्व कि लड़ाई है। उसके लिए पिछले कुछ महीनों में उन्होने न जाने कितनी जाने गवाईं हैं। जाने अब भी जा रही है। कोर्ट तक को कहना पड़ा कि पानी सर के ऊपर जा रहा है। बंगाल में उन्ही वामदलों कि सरकार है, जिन्होनें गुजरात दंगों के खिलाफ जमकर बवाल काटा था। मोदी को हिटलर और ना जाने क्या-क्या कहा था। आज वामपंथी धरे के वो सारे बुध्धि भी चुप हैं जो गुजरात दंगों पर खुद आगे आकार बवाल कट रहे थे। कोर्ट और ना जाने कहाँ-कहाँ तक गए थे। आज उनको कोई मौत विचलित नहीं करती। क्युकी नंदीग्राम में बह रहे खून से उनकी राजनीति नहीं चमकती। यहाँ लड़ाई का न तो कोई जातिया आधार है, और ना ही सांप्रदायिक। यहाँ कि लड़ाई किसानों कि है। जो अपने अस्तित्व कि लडाई लड़ रहे हैं।'जैसा किया वैसा ही पाया' नंदीग्राम में हो रही हिंसा पर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेब साहब का यही ताजा बयान है। याद करिये गुजरात दंगे का वक्त जब मोदी ने यही कहा था, सारे देश के तथाकथित विद्वानों ने मोदी को हिटलर कहा । कहाँ है आज वो सारे दिग्गज, आज बुद्धदेब को हिटलर के खिताब से क्यों नहीं नवाजते।नंदीग्राम में सरकार की प्रायोजित हिंसा और बंद के बाद पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार की जो छवि दुनिया के सामने आई है उसने पूरे कम्युनिस्ट सिध्दांतों को सत्तालोलुपता के हाथों गिरवी रख दिया है। गरीबों, मजदूरों और किसानों के हक के लिए सत्ता को दरकिनार करके न्याय की लड़ाई लड़ने की छवि वाले क्या यही कम्युनिस्ट हैं? आज समूचा देश नंदीग्राम की घटना से चिंतित है। पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में हालात दिनोंदिन और बिगड़ते जा रहे हैं। सोमवार को माकपा समर्थकों द्वारा गोलाबारी और आगजनी की घटना के बाद इलाके में तनाव फैल गया है। माकपा समर्थकों द्वारा फायरिंग और घरों को आग लगाने का आरोप लगाया है। इलाके से करीब 200 लोग गायब हैं, जिनका बीती रात से कुछ पता नहीं चल सका है। मामले की गंभीरता को देखते हुए यहां सीआरपीएफ की पांच कंपनियां तैनात की गई हैं।गर्चाक्रोबेरिया, सोनाचुरा और गोकुलनगर आदि इलाकों को कब्‍जे में लेकर माकपा समर्थकों ने गोलीबारी की। उन्होंने घरों को आग लगा दी। नंदीग्राम और आसपास से मिल रही जानकारी के मुताबिक सशस्त्र मार्क्सवादी समर्थकों ने नंदीग्राम की ओर जाने वाले लगभग सभी रास्तों पर नाकेबंदी कर रखी है. यहाँ तक कि मीडियाकर्मियों को भी वहाँ नहीं जाने दिया जा रहा है इस बीच, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मुद्दे पर पश्चिम बंगाल सरकार को नोटिस जारी कर वहां जांच टीम भेजने के लिए कहा है। यहां प्रश्न यह उठना काफी लाजमी लगता है कि क्या इसतरह के वामपंथ पार्टी वाली सरकार की जरूरत आज है या नहीं। ये वामपंथ सत्ता लेने के समय आमजन के हितों व जानमाल की रक्षा की बात तो करती है, मगर सरकार में रहकर वह पूंजीपतियों के हित के लिए आम जन पर प्रहार कर रही है और जब राज्यपाल इस पर चिंता व्यक्त करते है तो वामपंथियों को यह बात खटकने लगती है। ऐसे में वामपंथियों को दोहरा चरित्र तो बदलना ही होगा।

12 November 2007

गलत समय की चुप्पी गलत समय का शोर

हिन्‍दू समाज में अनेक बुराईयॉं है इन बुराईयों का जिम्‍मेदार आज इसी समाज को ठहराया जाता है। कुछ ऐसे जो अचानक प्रशिद्ध होते है। वो कुछ अधिक बड़चड़ कर ऐसा कहते है। उनके पीछे प्रशिद्धि की चाह रखने वाले, कुछ लोग य‍ही कहने लगते है। इस प्रकार एक बड़ा समूह ऐसा हो गया है जो हिन्‍दु समाज को बुरा कहने को कटिबद्ध है ये लोग बिना कुछ सोचे समझे इस समाज की कमियॉं ढ़डने में लगे रहते है। जब कुछ नही मिलता तो ये बुराईयॉं गढ़ते है। उसे हिन्दू समाज पर चढ़ाते है। और समाज के समाने परोस देते है।

दुर्भाग्‍य यह कि इनका नाम राम-श्‍याम-विजय और विनय होता है। इस कृत्‍य को करने में इनका दोष नही है, भला कौन नही चाहेगा कि वह बिना कुछ किए बड़ा हो जाये, प्रसिद्ध हो जाए, दुनिया की कुछ सुख सुविधा उन्‍हे मिले। यह सब पाने के लिये यदि इन्‍हे थोड़ा काम करना पड़ता है तो बुरा क्‍या है। चाहे वह काम वह अपने पिता को गाली देना का क्‍यो न हो? ये कटिबद्ध हो कर यह काम करते है। अपने को श्रेष्‍ट, महान और उदार घोषित करते है किन्‍तु लगे रहते है अपनी, अपने परम्‍पराओं की, अपने पूर्वजों की बुराई करने में, यह बुराई कितनी सच है कितनी झूठ इससे इनका कोई लेना देना नही होता।

मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नही है कि इन लोगो को इतिहास का रत्‍ती मात्र भी ज्ञान नही है। बुद्धि के घोड़े दौड़ने वाले इन लोगों को समाजिकता का भी कोई ज्ञान नही है। यह पढ़े लिखे अनपढ़ है। इन्‍हे अपने होने का भी गर्व कभी भी महसूस नही होता, ये हर चीज के लिये अपने आप तथा अपने समाज को दोष देते है। सच्‍चाई यह इनकी वजह से ही आज भारत पर गिद्ध दृष्टि लगाये बैठे देश मजे लेते है। यहॉं पर फैल रहे आतंकवाद के असली दोषी यही है। नक्‍सलवाद के जन्‍मदाता यही है। इन्‍ही कृपा से जाति वाद का दानव विकराल हो रहा है।

परिवारिक मार्यादा पर यही नारी स्‍वतंत्रता की गुहार लगाते है, पर एक महिला (शाहवानो) के भरण पोषण के अधिकार से संसद द्वारा वंचित किये जाने पर चुप रह जाते है। इनकी गलत समय की चुप्‍पी और और गलत समय का शोर ही इनके गलत इरादो को प्रकट करती है। मुझे समय में नही आता इन्‍हे क्‍यो अलीगढ़ के चाट वाले की हत्‍या कष्‍ट नही देती ? क्‍यो इनके विचार का विषय गोरखपुर में पुलिस जीप से उतार कर एक निर्दोष की हत्‍या नही होती? क्‍यो इनके कानों में मऊ में मारे गये यादवों का दर्द सुनाई न‍ही देता ?

इसका कुछ न कुछ कारण है।

क्‍या कारण है ?

आप स्‍वयं विचार करें।

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लेख यह भी है-

दृश्‍य और अदृश्‍य युद्ध

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11 November 2007

श्री लक्ष्‍मी स्‍तुति:

नमस्‍तेSस्‍तु महामाये, श्री पीठे सुरपूजिते।

शंख-चक्र-गदा-हस्‍ते, महालक्ष्‍मी नमोSस्‍तुते।

अर्थ- श्री महालक्ष्‍मी तुम्‍हें मेरा प्रणाम! महामाये श्री पीठ पर स्थित देवताओं से पूजित, शंख, चक्र, गदा हाथ में करने वाली को प्रणाम।

09 November 2007

दीपोत्‍सव की हार्दिक शुभकामनायें

महाशक्ति समूह के सभी सदस्‍यों की ओर से सभी सम्‍माननीय पाठको एवं चिट्ठाकारों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें। मॉं लक्ष्‍मी की अनुकम्‍पा समस्‍त भक्‍तों पर रहें ऐसी कामना है, देश और देशवासी उन्‍नति के मार्ग पर चलते रहे।

08 November 2007

कौन हूँ मै ???

आखि़र कौन हुँ मै ????
इस छल कपट और फरेबी दुनिया मे,
जहाँ हर वक्त, बेबसी मौत से हारती है,
कौन है अपना कौन पराया?
जिन्दगी हर वक्त इस सवाल का हल ढूढ़ती नजर आती है.
रिश्ते जो अपनी आखिरी साँसों में कहीं उलझा,
कहानियों में अपने होने का एहसास करती है,
कौन हिन्दु?
कौन मुस्लिम?
कौन सिख?
कौन ईसाई?
मानवता खुद का यूँ अब अपना परिचय करवाती है,
जिन्दगी भर जिस बेटे कि खातिर अपनी खुशियो से समझौता किया,
आज उस बेटे के पास, चिता मे आग देने के लिये, वक्त कि कमी पड़ जाती है.
हीर राझा, सोनी महिवाल, सी मोहब्बत,
चंद रुपयो मे, एक रात में सज जाती है.
हाँ कौन हूँ मै ?
जो इस दुनिया मे, मै रिश्तो की बात करता हूँ,
कोई मेरा भी है इस दुनिया मे,उसको ढुढने का असंभव प्रयास करता हूँ,
मोहब्बत की दुनिया सजेगी कभी इस जहाँ मे,ऐसे सपने आँखो मे लिये चलता हूँ,
एक ऐसा दोस्त जो सिर्फ मेरा है,ऐसे दोस्त की बात करता हूँ मै,
हाँ कौन हु मै?
जो मौहब्ब्त को ईमान और चाहत को धर्म मानता है,
वो उसूल जो, आज किस्से और कहानियों के हिस्से है,
उन उसूलों को आज भी आत्मसात करता हूँ.

हा, शायद मेरी कोई हस्ती नही है इस दुनिया मे,
क्यो कि मै सच को सच बोलता हूँ,
और शायद इसी लिये,समाज के बनाये, नियमो के कठघरे कि पीछे खडे़,
खुद से ये सवाल करता हूँ,
आखिर कौन हूँ मै, आखिर कौन हूँ मै.. ????

07 November 2007

सौ बरस के बूढे के रूप में याद किये जाने के विरुद्ध!!

मैं फिर कहता हूँ,
फांसी के तख्ते पर चढाये जाने के पचहत्तर बरस बाद भी,
'क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है',

वह बम,
जो मैंने असेम्बली में फेंका था,
उसका धमाका सुनने वालों में अब शायद ही कोई बचा हो,
लेकिन वह सिर्फ एक बम नहीं, एक विचार था,
और, विचार सिर्फ सुने जाने के लिए नहीं होते

माना की यह मेरे जनम का सौवां बरस है,
लेकिन मेरे प्यारों,
मुझे सिर्फ सौ बरस के बूढों मे मत ढूंढो

वे तेईस बरस कुछ महीने,
जो मैंने एक विचार बनने की प्रक्रिया मे जिए,
वे इन सौ बरसों मे कहीं खो गए
खोज सको तो खोजो


वे तेईस बरस
आज भी मिल जाएँ कहीं, किसी हालत में ,
किन्हीं नौ जवानों में ,


तो उन्हें मेरा सलाम कहना,
और उनका साथ देना...
और अपनी उम्र पर गर्व करने वाले बूढों से कहना,
अपने बुढापे का "गौरव" उन पर न्योछावर कर दें



देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है की सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और और मनुष्य के द्वारा मनुष्य तथा राष्ट्र द्वारा दुसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिल पाना असंभव है और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।

05 November 2007

i m coming

hi guuys i m manoj pandey . im coming to u with my blogging messagaes . so plz wait only some days







zalim is coming.............................





manoj zalim....................

04 November 2007

भगत सिंह मत बनना

भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की।
देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फांसी की।।
यदि जनता की बात करोगे तुम गद्दार कहलाओगे।
बम्ब-संब की छोडो, भाषण दिया की पकडे जाओगे।।
निकला है कानून नया, चुटकी बजते ही बंध जाओगे।
न्‍याय-अदालत की मत पूछो सीधे "मुक्ति" पाओगे।।
मत समझो की पूजो जाओगे, क्यूंकि लड़े थे दुश्मन से।
सत ऐसी आँख लड़ी है अब दिल्ली की लंदन से।।
कॉमनवेल्थ कुटुंब देश को खींच रहा है मंतर से।
प्रेम विभोर हुए नेतागण रस बरसा है अम्बर से।।



शहीद भगत सिंह (सितम्बर २८, १९०७-मार्च २३, १९३१)अब जबकि संघ लोक सेवा आयोग ने भी अपने सामान्य अध्ययन मुख्य परीक्षा मे भगत सिंह पर १५ अंकों का सवाल पुछा है तो प्रतियोगी परीक्षार्थी होने के नाते मेरा भी कुछ विचार करने का दायित्व बनता ही है. अतः मैं इस माह भगत सिंह पर ही प्रकाश डालूँगा की महज २३ साल कुछ महीने में उस आजादी के परमवीर योद्धा ने इस भारतवर्ष को क्या कुछ दिया है.जिसने कहा की क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है. ऐसे विचारवान, चिंतन, मनन करने वाले भगत सिंह को शत शत नमन।
किन्‍तु आज का वातावरण है कि देश की सरकार स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानियों को घोषित कर रही है, तो कौन मॉं चाहेगी कि उसका लाल भगत सिंह बनें? कौन पिता चाहेगा कि उनका पुत्र देश की रक्षा में शहीद हो, तब उसे आंतकवादी ही कहा जायेगा।

क्रांति की अग्निशिखायें कभी नहीं बुझती,वे आज भी जिंदा हैं। हम जीते थे, और हम फिर जीतेंगे।।

02 November 2007

क्‍या मॉं की प्‍यास पुत्र के रूधिर से बुझेगी?

श्री जगदगुरू आदि शंकराचार्य जी हिमालय के तीर्थो की यात्रा कर रहे थे। देवप्रयाग, विष्‍णु प्रयाग, आदि के दर्शन के बाद वह श्रीनगर पहुँचे। महिषमर्दिनी चामुंडा के दर्शन के दौरान उन्‍हे पंडि़तों ने बताया कि कुछ पाखंड़ी तांत्रिकों ने मनमाने ढ़ंग से नरबलि तथा पशु बलि की प्रथा के समर्थन में तर्क देकर भ्रम पैला रखा है। जब आदि शंकराचार्य जी ने यह सुना तो, उन्‍हे बहुत दुख हुआ। उन्‍हें लगा कि बलि प्रथा के खिलाफ कुछ करना चाहिए। उन्‍होंने बलि समर्थक तांत्रिकों को शस्‍त्रार्थ की चुनौती दी। कुछ पर्वतीय तांत्रिक उनके समक्ष शास्‍त्रार्थ के लिये उपस्थित हुए। आदि शंकराचार्य ने उनहें भागवत पुराण तथा अन्‍य धर्मशास्‍त्रों के कई उदाहरण दिए। तांत्रिकों को समझाया और यह सवाल उठाया, “देवी तो सकल सृष्टि व प्राणियों की जननी है। वह अपनी ही संतान का रूधिर पान कर संतुष्‍ट कैसे हो सकती है?” आदि शंकराचार्य के तर्को के समक्ष तांत्रिक निरूत्‍तर हो गए। जिस शिलाखंड पर बलि दी जाती थी, उसे तत्‍काल उखाड़कर नदी फेक दिया गया।

तनिक आप भी विचार करें क्‍या किसी माँ की प्‍यास अपने पुत्र के रूधिर से बुझेगी? इस प्रकार के कुकर्म से बचने का कष्‍ट करें।

01 November 2007

अर्थशास्‍त्र का इतिहास

अर्थशास्‍त्र की उत्‍पत्ति भारत में चाणक्‍य के समय से मानी जाती है, वह पूर्ण रूप से अर्थशास्‍त्र ने हो कर राज्‍य व्‍यवस्‍था के सम्‍बन्धित था। इसलिये चाणक्‍य के काफी समय पहले से अर्थशास्‍त्र में सक्रिय होने के बाद भी उन्‍हे अर्थशास्‍त्र का जनक नही कहा गया। वास्‍तव में अर्थशास्‍त्र का वास्तविक स्‍वारूप, कौटिल्‍य के काफी बाद एडम स्मिथ के समय में हुआ इसलिये एडम स्मिथ को अर्थशास्‍त्र का जनक (Father of Economics) भी कहा जाता है। आधुनिक अर्थशास्‍त्र में अब तक की जितनी भी परिभाषा उपलब्‍ध है उसके आधार पर अर्थशास्‍त्र को चार भागों में बॉंटा जा सकता है-

प्रथम:- क्‍लासिकल अर्थशास्‍त्रियों एडम स्मिथ, जे.बी. से, सीनियर, जे.एस.मिल आदि द्वारा दी गई धन सम्‍बन्धित परिभाषाऐ।

द्वितीय:- नियो-क्‍लासिकल अर्थशास्‍त्री जैसे मार्शल पीगू, कैनेन द्वारा दी गई भौतिक कल्‍याण से सम्‍बन्धित परिभाषाऐं।

तृतीय:- आधुनिक अर्थशास्‍त्रिओं राबिन्‍स, फिलिप, वान, मिसेज, डा. स्ट्रिगल व प्रो. सेम्‍युलसन आदि द्वारा दी गयी सीमितता या दुर्लभता सम्‍बन्धित परिभाषाऐं।

चौथी और अन्तिम:- जे.के.मेहता द्वारा प्रतिपादित आवाश्‍यकता विहीनता सम्‍ब‍न्‍धी परिभाषा।