हरिवंश राय बच्चन की प्रथम पत्नी तेजी बच्चन नही थी, उनकी पहली पत्नी का नाम श्यामा था। इलाहाबाद के बाई के बाग में रहने वाले श्री राम किशोर की बड़ी बेटी के साथ बच्चन जी का विवाह 1926 में हुआ था। उस समय उनकी अवस्था 19 वर्ष की थी और श्यामा की उम्र 14 साल के आस-पास थी। श्यामा के बारे में बच्चन जी कहते है – श्यामा मेरे सामने बिल्कुल बच्ची थी भोली, नन्ही, नादान, हँसमुख, किसी ऐसे मधुवन की टटकी गुलाब की कली, जिसमें न कभी पतझर आया हो, और न जिसने कभी काँटों की निकटता जानी हो।
1927 में डाक्टर बच्चन इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र बन चुके थे, और उन्होने एच्छिक विषय में हिन्दी और दर्शन शास्त्र लिया, जबकि उन दिनों अग्रेंजी अनिवार्य हुआ करती थी। विश्वविद्यालय उनके घर से करीब चार मील दूर हुआ करती थी। जो वे पैदल तय करते थे, इसमें बहुत सा समय बर्बाद हुआ करता था। तो उन्होने चलते हुऐ पढ़ने की आदत डाल लिया। सुबह और शाम का समय ट्यूशन होता था। वे रात्रि 12 बजे तक पढ़ते थे और सुबह 4 बजे उठ जाते थे। उनके लिये 4 घन्टे की नींद पर्याप्त होती थी, किन्तु कभी कभी उन्हे दो घन्टे 12 से 2 के बीच ही काम चलाना पढ़ता था। जब इनके ससुर श्री रामकिशोर को पता चला कि वे पैदल विश्वविद्यालय जाते है तो उन्हो ने द्रवित होकर एक साइकिल भेज दी। साइ्रकिल से इनका समय और श्रम दोनो बचा। 1929 में ये विश्वविद्यालय के प्रथम 3 छात्रों में उत्तीर्ण होने वालों में से थे।
एक दिन इन्हे श्याम के बुखार के बारे में पता चलता है,जो करीब 4 माह तक नही उतरा। यह बुखार वह तपेदिक बुखार था जो श्यामा अपने माता जी की सेवा के दौरान अपने साथ ले आई थी। और यह श्यामा के साथ तब तक थी जब तक कि उसका अंत नही हो गया। डाक्टर बच्चन श्यामा के प्रति असीम प्रेम के बारे में कहते है- वह मेरी शरीर की संगिनी नही बन सकती थी, मेरे मन की संगिनी तो बन ही सकती थी और मेरे मन का कुछ भी ऐसा न था जो उसके मन में न उतार दिया हो। उसने मेरा नाम Suffering रख दिया था, जब हम अकेले होते थे तो वह मुणे इसी नाम से सम्बोधित करती थीऔर मै उसे Joy कहता।
घर की आर्थिक स्थिति ठीक नही थी, और एम.ए. प्रीवियस की परीक्षा किसी प्रकार पास हो गया किन्तु अगले साल इनकी पढ़ाई जारी न रह सकी और इनकी पढ़ाई छूट गई। 1930 में आयोजित एक प्रतियोगिता में इनकी एक कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला। 1931 में ये विश्वविद्यालय के छात्र ने थे किन्तु अपनी कहानी ‘हृदय की आखें’ इतनी अच्छी थी कि प्रेमचन्द्र ने उसे हंस में भी छापा।
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