श्री जगदगुरू आदि शंकराचार्य जी हिमालय के तीर्थो की यात्रा कर रहे थे। देवप्रयाग, विष्णु प्रयाग, आदि के दर्शन के बाद वह श्रीनगर पहुँचे। महिषमर्दिनी चामुंडा के दर्शन के दौरान उन्हे पंडि़तों ने बताया कि कुछ पाखंड़ी तांत्रिकों ने मनमाने ढ़ंग से नरबलि तथा पशु बलि की प्रथा के समर्थन में तर्क देकर भ्रम पैला रखा है। जब आदि शंकराचार्य जी ने यह सुना तो, उन्हे बहुत दुख हुआ। उन्हें लगा कि बलि प्रथा के खिलाफ कुछ करना चाहिए। उन्होंने बलि समर्थक तांत्रिकों को शस्त्रार्थ की चुनौती दी। कुछ पर्वतीय तांत्रिक उनके समक्ष शास्त्रार्थ के लिये उपस्थित हुए। आदि शंकराचार्य ने उनहें भागवत पुराण तथा अन्य धर्मशास्त्रों के कई उदाहरण दिए। तांत्रिकों को समझाया और यह सवाल उठाया, “देवी तो सकल सृष्टि व प्राणियों की जननी है। वह अपनी ही संतान का रूधिर पान कर संतुष्ट कैसे हो सकती है?” आदि शंकराचार्य के तर्को के समक्ष तांत्रिक निरूत्तर हो गए। जिस शिलाखंड पर बलि दी जाती थी, उसे तत्काल उखाड़कर नदी फेक दिया गया।
तनिक आप भी विचार करें क्या किसी माँ की प्यास अपने पुत्र के रूधिर से बुझेगी? इस प्रकार के कुकर्म से बचने का कष्ट करें।
10 comments:
विचारोत्तेजक लेख लिख है आपने. आज के युग में भी बलिप्रथा जघन्य अपराध है.जो माफ़ नही किया जा सकता.
शंकराचार्य ने क्या पते की बात कही.सचमुच कौन माँ अपने पुत्र का भक्षण करना चाहेगी?....बहुत ही बढिया और सीख देने वाली प्रस्तुति.
इसे प्रस्तुत करने के लिए आप साधुवाद के हकदार हैं...कबूल कीजिये.
आप दोनों को सादर धन्यवाद,
हम प्रयास करेगें कि पाठकों के मानको पर खरा उतरें। आप से अनुरोध है कि आप भी इसी प्रकार स्नेह प्रदान करते रहे।
बहुत सही बात कही है शंकराचार्य जी ने।बढिया प्रस्तुति है।बधाई।
बलि प्रथा का तो हर हाल में विरोध होना चाहिये. आपकी बोधकथा बहुत पसंद आई.
बहुत सही!! शुक्रिया यह बोधकथा पढ़वाने के लिए बंधु!!
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