उस भीड़ भरी राहों मे भी एक सून सान सी जगह है,
हर रोज देखता हूँ, उन्हे वहाँ पर,
संध्या की बेला के साथ, सजधज वो वहॉं आ जाती है,
खड़ी तो खामोश ही रहती है,
पर आँखें उनकी ना जाने किसको बुलाती हैं,
अगर कोई आ जाये, तो मुस्कुराती है,
और फिर चुपचाप उनके साथ चली जाती है,
बचपन से ये देखता आ रहा हूँ,
और खुद से ये पूछता रहा हूँ,
कौन हैं ये, जो हर शाम ना जाने कहाँ से चली आती हैं?
और किसी अन्जान के साथ, कहीं चली जाती हैं.
व्याकुलता इतनी थी की,
पिताजी से भी वही सवाल दोहराया,
पर शायद जवाब वहाँ भी मौजुद ना थे,
पिताजी भी तीखी जुबान से बस इतना कह पाये,
कोई नहीं है वो, आज से उधर नही जाओंगे,
और " मासूम" दिल मे वो सवाल कहीं खो सा गया,
पर शायद कुछ सवालो के जवाब वक्त दे जाता है,
आज मै भी उन्हें पहचाने लगा हूँ,
समाज के द्वारा दिये गये नामों से,
मै भी उन्हे जानने लगा हूँ,
अच्छा तो ये वेश्या, निशागामिनी,
या सभ्य भाषा में कालगर्ल कहलाती है,
जो समाज के सम्मानित व्यक्तियों के,
ना बुझने वाली भूख को हर रोज,
अपनी शरीर से बुझाती हैं.
पर क्या, कभी उनके दिल मे ये ख्याल नही आता है,
वो भी कभी किसी की बेटी, मां या किसी की बहन बने,
चंद रुपयों के खातिर क्यों, अपनी जिन्दगी से समझौता करे???
सवाल जो कभी सिर्फ एक हुआ करता था,
आज कई लडियों मे गुथ चुका था,
सवालों के जवाब को ढुंढते-ढुढते,
हम भी एक दिन उन्हीं राहों से गुजर गये,
और जो जवाब ये मन ढूढ़ रहा था,
उन जवाबों मे फिर से कहीं उलझ गये.
हां बाबू जी, मै वेश्या हूँ,
जो हर रात दुल्हन बनती है,
और सुबह की पहली किरण के साथ बेवा हो जाती है.
हां बाबू जी, मै भी बेटी हुआ करती थी,
कभी मुझे भी कोई दीदी बुलाया करता था,
पर एक दिन जब उनका साया मुझ पर से उठ गया,
आपके सभ्य समाज के संभ्रान्तों ने ही, १५ साल की बच्ची को,
उसके यौवन का एहसास करवाया था,
मेरी मजबूरी को, मेरी ताकत बताया था,
हां बाबू जी, मै भी मातृत्व को जीना चाहती हूँ,
पर मेरी तो हर रात सुहागरात मनायी जाती है,
मेरे जिस्म को कुत्तो की तरह कुचला मसला जाता है,
फिर चंद रुपयों को मेरे उपर फेक,
रात मे एक जिस्म एक जान करने वाला,
मुझ को वेश्या कह कर चला जाता है.
हां बाबुजी मै वेश्या हूँ,
जो अपनी मजबूरी में, अपनी जिस्म को नीलाम करती हूँ,
पर पूछो, अपने समाज के सभ्य लोगो से,
उनकी क्या मजबूरी है?
जो अपनी भूख मिटाने के खातिर,
इस गंदी दलदल मे चले आते हैं,
पूछो, दिन की उजालों मे बडी़ बडी़ बात करने वालों से,
क्यों शाम होते ही, बेटी की उम्र की लडकी उन्हे वेश्या दिखने लग जाती है??
जानती हूँ बाबूजी, आपके पास भी इन सवालों के जवाब नही होगें,
क्योंकि आप भी इसी समाज के सभ्य इन्सान हैं.
और बाबूजी आज के बाद किसी वेश्या को स्त्री मत कहना,
क्योंकि, हम तो बस खिलौने हैं, जिनसे बस खेला जाता है,
हमारे दर्द और पीड़ा को कभी जानने की कोशिश मत करना,
नहीं तो शायद, इस सभ्य समाज से आपका भरोशा उठ जाये,
क्योंकि, अगर समाज के भूखे भेडियों की भूख हम नहीं मिटायेगें,
तो शायद ये दरिंदें, कल आपके बहू-बेटियों को नोचते नज़र आयेगें.
वो सवाल जो बचपन से चला आ रहा था,
आज फिर से कई सवालों मे खुद को घिरता हुआ पा रहा था,
आखिर वेश्या कौन???
वो जो हर शाम, सजधज कर चौराहे पर चली आती है, या,
वो सम्भ्रान्त, जो हर शाम सौदागर बन जाते है.
6 comments:
मार्मिक , भावपूर्ण , दिल को छू गई... बस....इतनी ही प्रतिक्रिया देनी चाहिए लेकिन मुझे अनुभव हो रहा है जैसे रचना स्वयं निशागामिनी बन सवाल करती सी खड़ी हो गई हो...और हम जड़ हो गए..!
आशुतोष मासूम जी,
आपकी यह कविता, काफी कुछ समाज की दशा को बता रही है। कहने को तो यह सिर्फ एक कविता है किन्तु इसकी मार तलवार की धार से ज्यादा है। आपकी कविता की कुछ पंक्तियॉं काफी कुछ सोचने पर मजबूर करती है।
bhut hi payaari kavita hai. Muje waise jayda pta nhi hai kavita ke baare mai magar es kavita mai kuch khass hai.
Jo mere dil ko choo gyi.
aap ki kalam ko mera sat-sat pranaam.
From--Sandeep Singh[s@@n singh]
आशुतोष जी
बहुत अच्छे से समाज की इस सबसे गंभीर बीमारी पर आपने चोट की है। बात एकदम सही है कि इस बीमारी के बारे में ज्यादा चिल्लाने वाले ही अक्सर इस बीमारी की सबसे बड़ी वजह होते हैं। अच्छ है प्रमेंद्र ने इसके बारे में बताया-- पूरे भाव उभरकर दर्द के साथ सामने आ रहे हैं।
अद्भुत रचना, वाकई कई प्रश्नों पर प्रथम बार सोचने को विवश करती हुयी. काफी कुछ मेरे पहले ही लिखा जा चूका है..
यह कविता हर आम इंसान और हर नगरवधू के बीच की है.
Ashutosh ji aapne ek katu satya ko bade hi marmik dhang se prastut kiya hai. or ye satya hai ke vasna ke is andhkaar ko yadi ye nagar badhu na smete to ye nesandeh apne gharo ke taraf he badhega.. kripya apna lekhan jari rakhe..
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