27 November 2007

उँर्दू का तो था ही और हिन्दी का भी आ गया(बच्चन की जन्मशती पर विशेष)

हरिवंश राय बच्‍चन के जीवन की कुछ महत्‍वपूर्ण घटनाओं में से एक घटी। उनके पास अग्रेजी विभाग के अध्‍यक्ष पंडित अमर नाथ झा का एक पत्र की आया, जिनसे वे अपेक्षा रखते थे कि वे उन्‍हे यूनिवर्सिटी में अध्‍यापन का अवसर देगें। झा साहब ने पत्र में लिखा था कि विभाग में एक अध्यापक के अवकाश ग्रहण करने से एक अस्‍थाई स्‍थान रिक्‍त है। क्‍या आप उसमें 125 रूपये प्रति माह वेतन पर काम करना चाहेगें? यदि आप इच्छुक हो तो शीघ्र विभागाध्‍यक्ष से मिलें। यह पत्र उन्‍हे देख कर सहसा उन्‍हे विश्‍वास नही हुआ।
वह झा साहब से मिलने गये, तो उन्‍होने सलाह दिया कि मै अग्रवाल कालेज का स्‍थाई अध्‍यापन छोड़कर, इलाहाबाद विवि की अस्‍थाई अध्‍यापन स्‍वीकार करूँ। बच्‍चन जी कहते है कि मुझे अपनी क्षमता का इतना विश्‍वास न था जितनी कि झा साहब कि निर्णायक बुद्धि का। उन्‍होने मुझे एक चेतावनी भी दी कि क्‍लास में कभी मै अपनी कविताएं न सुनाऊँ और विश्‍वविद्यालय में पढ़ाई के समय अपने को हिन्‍दी का कवि नही अंग्रेजी का लेक्चरर समझूं।
उनके मन में हमेशा एक बात कौधती रहती थी कि शायद मै अध्‍यापक न होता तो एक अच्‍छा कवि होता किन्‍तु कभी कहते थे कि मै एक कवि न होता तो एक अच्‍छा अध्‍यापक होता। वे अपने बारे में कहते है कि मेरी कविता को प्रेमियों का दल कभी एक बुरा कवि नही कहेगा। और मेरे विद्यार्थियों की जमात एक बुरा अध्‍यापक। उन्‍होने अपने अध्‍यापक को कभी भी कवि पर हावी नही होने दिया।
अग्रेजी विभाग में अपने स्‍वागत के विषय में कहते है कि शायद ही कुछ हुआ हो किन्‍तु एक जिक्र अवश्‍य करते है। उन दिनों अग्रेंजी विभाग में रघुपति सहाय ‘फिराक’ हुआ करते थे, जो उँर्दू के साहित्‍यकार थे। और उन दिनों काफी चर्चा हुआ करती थी कि अंग्रेजी विभाग में उँर्दू के शायर तो थे ही अब हिन्‍दी के कवि भी आ गये।

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