फांसी के तख्ते पर चढाये जाने के पचहत्तर बरस बाद भी,
'क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है',
वह बम,
जो मैंने असेम्बली में फेंका था,
उसका धमाका सुनने वालों में अब शायद ही कोई बचा हो,
लेकिन वह सिर्फ एक बम नहीं, एक विचार था,
और, विचार सिर्फ सुने जाने के लिए नहीं होते
माना की यह मेरे जनम का सौवां बरस है,
लेकिन मेरे प्यारों,
मुझे सिर्फ सौ बरस के बूढों मे मत ढूंढो
वे तेईस बरस कुछ महीने,
जो मैंने एक विचार बनने की प्रक्रिया मे जिए,
वे इन सौ बरसों मे कहीं खो गए
खोज सको तो खोजो
वे तेईस बरस
आज भी मिल जाएँ कहीं, किसी हालत में ,
किन्हीं नौ जवानों में ,
तो उन्हें मेरा सलाम कहना,
और उनका साथ देना...
और अपनी उम्र पर गर्व करने वाले बूढों से कहना,
अपने बुढापे का "गौरव" उन पर न्योछावर कर दें
देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्तव्य है की सिद्धांतों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और और मनुष्य के द्वारा मनुष्य तथा राष्ट्र द्वारा दुसरे राष्ट्र का शोषण, जो साम्राज्यशाही के नाम से विख्यात हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिल पाना असंभव है और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं।
3 comments:
आज आपकी लेखनी ने फिर साबित कर दिया है कि आपने लेखन की अद्भुत क्षमता है और किसी भी विषय को आप काव्य में मोड़ सकते है।
आपने बहुत ही सार्थक विषय चुना था, निश्चित रूप से आपकी कविता भगत सिंह के दर्द को बताती है, आज भगत सिंह नही है किन्तु उनके विचार दम तोड़ते दिख रहे है आज उन्ही विचारों की अलख जलाने की जरूरत है।
बधाई
waah!! ati sundar pratikriya hai..
dhanyavaad pramendra ji..
आज के युग को फिर से एक भगत सिंह की जरुरत है, पर मेरे घर मे नहीं पडोस के घर मे....आपकी रचना ऐसा कहने वालों के मुंह पर एक करारा तमाचा है.... फिर से एक नयी क्रांति के शुरुआत के लिये बधाई....
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