जिन रास्तों की कोई मंजिल ना हो,
उस रास्ते पर चलने का मजा कुछ और होता है।
ख्व़ाब तो अन्तहीन होते हैं,
फिर भी उनका रोज टूटना और रोज बुना जाना होता है।।
अपनी जीत कि खुशी मनाने वाले,
कभी मेरी हार के जश्न पर आ कर तो देख
हम आज भी बादशाह है अपने मुल्क के,
जी से गमों को छुपाकर हर पल मुस्कुराना होता है.
मंजिल की जुस्तुजु तो थी ही नही कभी हमें,
क्योंकि दुनिया की शर्तो पर चलना हमें आता नहीं।
हसरतों की राहों मे अब तो हर रोज खेलते हैं,
क्योकि मंजिल दर मंजिल भटकने का मजा कुछ और होता है।
ऐसा नहीं की मेरे दामन पर गुनाहों का दाग़ नही,
पर मेरी गुनाहों पर वफ़ा का नाम होता है।
है कोई जो कह सके, की वो गुनहगार नहीं,
बिना रावण के क्या कोई कभी राम का नाम लेता है।
4 comments:
म़ासूम जी, आपकी यह पक्तिंयॉं न सिर्फ जीवन की सच्चाई का वर्णन करती है, वरन एक सीख भी देती है।
मैने आपकी पिछली कविता को पढ़ा था, सभी कविताऐं कुछ न कुछ कह रही है।
निश्चित रूप से मैं आपका प्रशंसक हो गया हूँ..आपकी कवितायेँ बोध भी कराती हैं और साथ में काफ़ी हल्का फुल्का महसूस कराती हैं...
बधाई..
आप की रचना में विचारनें को बहुत कुछ है..जो एक अच्छी रचना का गुण होता है।बधाई।
मित्र बहुत अच्छी कविता है। बधाई, अगली कविता की प्रतीक्षा है।
आपकी ये पक्तिं बहुत अच्छी लगी-
अपनी जीत कि खुशी मनाने वाले,
कभी मेरी हार के जश्न पर आ कर तो देख
हम आज भी बादशाह है अपने मुल्क के,
जी से गमों को छुपाकर हर पल मुस्कुराना होता है.
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