प्रेमगीत भी लिख लिया मैनें,
समाज के दर्द को भी समेट लिया है मैनें,
आज दिल मे ख्याल आता है,
क्यों ना आज कुछ हास्य लिखूँ,
तेरे चिपके हुये होठों को खोल,
एक मुस्कान लिखूँ.
पर हास्य के नाम पर ही कलम क्यों रुक जाती है?
दर्द और खुशी की खाई और बढ़ती हुई नज़र आती है,
हॉ मैने कल देखा था अपने लल्लनन काका को हँसते हुये,
बेतहाशा हँसे जा रहे थे, पेट मे दर्द था फिर भी ठहाके लगा रहे थे,
कवि मन बेचैन हो गया, चलो हास्य का विषय मिल गया,
मैने पुछा, काका क्या बात है, इतना मुस्कुरा रहे हो??
मुन्निया के हाथ पीले कर दिया या,
अपना बड़का आइएस के परीक्षा मे अपना नाम कर दिया है?
सुन चाचा के मुस्कान मे कुछ बैचेनी नजर आई,
और बोले, नही रहे पगले,
वो अपना मल्लू है ना, वही अपना पड़ोसी,
कल उसकी बिटिया, एक क्षुद्र के साथ भाग गई है.
चन्दू ,जो हर शाम मंडी मे अपनी दुकान लगाता है,
उसकी बीबी कई महीनों से एक ही चरपाई पर है.
और वो हरीराम, जो खुद को साहूकार बोलता था,
उसका बेटा,कल जुये मे,अपना आखिरी खेत भी हार आया है.
सुन हँसी की ये नयी परिभाषा, मेरा दिल रोने को हो आया,
हास्य का विषय तो नही मिला,
पर समाज का एक और रंग आज मैं देख आया.
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3 comments:
अच्छी लगी आपकी कविता ....बधाई
हास्य में छिपा दर्द लिए आपकी कविता अच्छी लगी...लिखते रहें
आपने जिस प्रकार शब्दों को कविता का रूप दिया है वह सराहनीय प्रयास है। निश्चित रूप से आपको किसी भी विषय की आवाश्यकता नही है। आपको विषय अपने आप मिल जाते है।
आपकी इस कविता में देशी भाषा की छाप मिलती है इस कारण कहीं कहीं उचित शब्द चयन के आभाव में कविता कमजोर हो जाती है तो कहीं शब्दों के अच्छे चयन से कविता अपनी बात को मजबूती से रखती है।
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