कहीं जल गई हैं लाशें,
कहीं राख उड़ती रही है।
कहीं फैलाकर तबाही का आलम,
ये गंगा किनारे में सिकुड़ती रही है।।
जोड़कर शहर से शहर,
हर दिल जुड़ती रही है।
तोड़कर पहाड़ी चट्टाने,
बेपरवाह मुड़ती रही है।।
चमकाकर मेरा देश हीरे की तरह,
हरियाली का पन्ना जड़ती रही है।
देकर हर दिल को खुशियों के पंख,
ये गंगा मन से मन तक उड़ती रही है।।
कहीं राख उड़ती रही है।
कहीं फैलाकर तबाही का आलम,
ये गंगा किनारे में सिकुड़ती रही है।।
जोड़कर शहर से शहर,
हर दिल जुड़ती रही है।
तोड़कर पहाड़ी चट्टाने,
बेपरवाह मुड़ती रही है।।
चमकाकर मेरा देश हीरे की तरह,
हरियाली का पन्ना जड़ती रही है।
देकर हर दिल को खुशियों के पंख,
ये गंगा मन से मन तक उड़ती रही है।।
- 30 नवम्बर 2004
कूछ दिनों पूर्व प्रमेन्द्र जी की गंगा मैने पढ़ी थी वह भी आपके साथ शेयर कर रहा हूँ। अगर अलग समय में लिखी दोनो कविताओं में मुझे भाव में काफी कुछ समानता दिखी है।
कल-कल करती छल-छल करती,
वह गंगा की जल धारा है।
लिये हृदय मे विश्वास सदा,
वह पवित्र जल धारा है।।
टकराती पाषण खण्डो से,
वह कभी न विचलित होती।
लिये विश्वास आत्मशक्ति का,
गंगा सदा प्रशन्नचित रहती।।
लिये सकल पाप-पापी मनुष्य का,
गंगा कभी न पापी बनती।
लिये आदर्श मनुष्य के आगे,
एक श्रेष्ठ उदाहरण देती।।
निर्मल जल की गंगा धारा,
जो साहस मार्ग सदा बताती।
खाकर ठोकर छिन्न भिन्न होकर,
फिर वह एक जल धारा बन जाती।।
- जनवरी 2001
2 comments:
achhi kavita hai. lekin maili ho rahi ganga per kuchh naya likhiye.
गगा हिन्दुओ की आस्था का केन्द्र अब मैली हो रही है। कुछ दिन पुर्व मोरीसस के राष्ट्रपति गगा की गन्दगी को देख कर नहाये बिना ही वापस हो गये
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