अपने बदन के चारों ओर,
मैने हवा को नाचते देखा है।
अपने आँगन के झरोखों से,
बादल को झाकते देखा है।
ग़र महसूस करों तुम,
भगवान भी नज़र आयेगें।
ऑंखें बन्द कर ख्व़ाब देखों,
तो शैतान भी नज़र आयेगें।
तुम भी हवा को छू लो,
जो तुम्हे छूकर उड़ी चली जाती है।
चलते चलो दोस्तो,
ये गली थोड़ा आगे भी जाती है।
ग़र शक्ल देखनी है आपनी,
तो मेरी ऑंखों में आखें डाल कर देखों
इन हुस्ऩ वालों को देखों,
मगर दिल सभांल कर देखों।
3 comments:
"प्रलयनाथ" bahut achchhi kavita hai.aage bhi likhate rahana.
आपकी यह कविता, गुन गुनाने को मन कर रही है। बधाई।
इन हुस्ऩ वालों को देखों,
मगर दिल सभांल कर देखों।
wah dost, maza aa gaya!
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