श्यामा को फेफडे का क्षय नही था, बल्कि उसे अंत्र-छय था। जिसे डाक्टर लोग छ: वर्ष नही पहचान सके थे, और जब उनहोने उसे पहचाना तो वह लाइलाज हो चुका था। अपरेशन थिएटर में जाते वक्त वह जिस प्रकार मुस्काराई थी, उसने मुझे उसकी सुहागरात की मुस्कान याद दिला दी थी। वह बच्चों की सी मुस्कान कर चेहरा मेरे हृदय पर अंकित कर विदा हुई थी। मृत्यु शय्या पर वह हँसती रही कहीं मै यह न समझू कि उसे मने में कष्ट हो रहा है।
मृत्यु के एक दिन पूर्व उसने मेरी आँखों में आँखे डाल कर पूछा, “मै मर जाऊँगी तो तुम बहुत दुखी होगे ?” मै चुप रहा। उसने कहा, “मेरे मरने के बाद बहुत दुखी होना तो शादी कर लेना”। और ठीक मृत्यु के दिन उसेने मुझसे कहा था, “ मुझ पर कोई ऐसी रचना करना जिससे, जिससे दुनिया के अंदर मेरी याद रहे।“ कहा था इसलिये कि वह न रहे तो मुझे अपने सूनेपन, अपने खालीपन को भुलाने के लिये कुछ रहे। सृजन से अधिक डुबाने वाला कुछ नही।
संकीर्ण, कट्टरपंथी और प्राय: ईष्या द्वेष प्रेरित आलोचकों के आरोप मुझे पत्युत्र में गीत अथवा कविता लिखने को उकसा जाते थे। ‘कवि की वासना’, ‘कवि की निराशा’, ‘कवि का उपहास’ और ‘पथभ्रष्ट’ श्यामा की रोग शैय्या के निकट लिखे गये थे। कवि का गीत, लहरों का निमंत्रण और मांझ़ी आदि भी उसी समय की है। श्यामा की देहावसान के बाद इन सब कविताओं का संग्रह “मधुकलश” नाम से प्रकाशित हुआ जिसे मैने श्यामा की स्मृति मे विश्व वृक्षकी डाल से बांध दिया, जैसे मृतकों के लिये घंट बांधा जाता है। 27 नवम्बर को जिस दिन श्यामा का दसवां था उसी दिन मेरी 29वीं वर्षगाठ थी, तार से कई बधाई संदेश मिले ‘यह शुभ दिन बार-बार आये’। समय के इस व्यंग पर मुस्काराने के अतिरिक्त और क्या किया जा सकता था।?
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