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17 October 2009

_______________शापित यक्ष ______________




       दीवाली के पहले गरीबी से परेशान  हमारे गांव में लंगड़,दीनू,मुन्ना,कल्लू,बिसराम और नौखे ने विचार किया इस बार लक्ष्मी माता को किसी न किसी तरह राजी कर लेंगें . सो बस सारे के सारे लोग माँ को मनाने हठ जोगियों की तरह  रामपुर की भटरिया पे हो लिए जहां अक्सर वे जुआ-पत्ती खेलते रहते थे पास के कस्बे की चौकी पुलिस वाले आकर उनको पकड़ के दिवाली का नेग करते ये अलग बात है की इनके अलावा भी कई लोग संगठित रूप से जुआ-पत्ती की फड लगाते हैं..... अब आगे इस बात को जारी रखने से कोई लाभ नहीं आपको तो गांव में लंगड़,दीनू,मुन्ना,कल्लू,बिसराम और नौखे की  कहानी सुनाना ज़्यादा ज़रूरी है.
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                      तो गांव में लंगड़,दीनू,मुन्ना,कल्लू,बिसराम - नौखे की बात की वज़नदारी को मान कर  "रामपुर की भटरिया" के  बीचौं बीच जहां प्रकृति ने ऐसी कटोरी नुमा आकृति बनाई है बाहरी अनजान  समझ नहीं पाता कि "वहां छुपा जा सकता है. जी हां उसी स्थान पर ये लोग पूजा-पाठ की गरज से अपेक्षित एकांतवासे में चले गए ..हवन सामग्री उठाई तो लंगड़ के हाथौं  से गलती से घी ज़मींन में गिर गया . बमुश्किल जुटाए संसाधन का बेकार गिरना सभी के क्रोध का कारण बन गयाकल्लू ने तो लंगड़ को एक हाथ रसीद भी कर दिया ज़मीं के नीचे घी रिसता हुआ उस जगह पहुंचा जहां एक शापित-यक्ष बंधा हुआ था .उसे शाप मिला था की  सबसे गरीब व्यक्ति के हाथ  से गिरे  घी की बूंदें तुम पर गिरेंगीं तब तुम मुक्त होगे सो मित्रों यक्ष मुक्त हुआ मुक्ति दाता लंगड़ का आभार मानने उन तक पहुंचा . यक्ष को देखते ही सारे घबरा गए कल्लू की तो घिग्घी बंध गई. किन्तु जब यक्ष की दिव्य वाणी गूंजी "मित्रो,डरो मत, तो सब की जान में जान आई.
यक्ष:तुम सभी मुझे शाप मुक्त किया बोलो क्या चाहते हो...?
मुन्ना: हमें लक्ष्मी की कृपा चाहिए उसी की साधना में थे हम .
यक्ष: ठीक है तुम सभी चलो मेरे साथ 
  सभी मित्र यक्ष के अनुगामी हुए पीछे पीछे चल दिए पीपल के नीचे बैठ कर यक्ष ने कहा :-"मित्रो,मैं पृथ्वी भ्रमण पर निकला था तब मैनें अपनी शक्ति से तुम्हारे गांव के ज़मींदार सेठ गरीबदास की माता से गंधर्व विवाह किया था उसी से मेरा पुत्र जन्मा है जो आगे चल के सेठ गरीबदास के नाम से जाना जाता है."
                    यक्ष की कथा को बडे ही ध्यान से सुन रहे चारों मित्रों के मुंह से निकला :-"तो आप ही हमारे बडे ज़मींदार हैं ?"
 "हां, मैं ही हूं, घर-गिरस्ति में फ़ंस कर मुझे वापस जाने का होश ही न रहा सो मुझे मेरे स्वामी ने पन्द्र्ह अगस्त उन्नीस सौ सैतालीस  रात जब भारत आज़ाद हुआ था शाप देकर "रामपुर की भटरिया में कैद कर दिया था और कहा था जब गांव का सबसे गरीब आदमी घी तेल बहाएगा और उसके छींटै तुम पर गिरेंगे तब तुम को मुक्ति-मिलेगी
 आज़ तुम सबने मुझे मुक्त किया चलो.... बताओ क्या चाहते हो ?
 सभी मित्रों ने काना-फ़ूसी कर "रोटी-कपडा-मकान" मांग लिए मुक्ति दाताओं के लिये यह करना यक्ष के लिए सहज था. सो  उसने माया का प्रयोग कर  गाँव के ज़मींदार के घर की लाकर  तिजोरी बुला   कर ही उन गरीबों में बाँट दी  . जाओ सुनार को ये बेच कर रूपए बना लो बराबरी से हिस्सा बांटा कर लेना और हां तुम चारों के लिए मैं हर एक के जीवन में एक बार मदद के लिए आ सकता हूं.
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                        उधर गांव में कुहराम मचा था. सेठ गरीब दास गरीब हो गया. पुलिस वाले एक एक से पूछताछ कर रहे थे. इनकी बारी आये सभी मित्र बोले "हम तो मजूरी से लौटे हैं." किन्तु कोई नहीं माने झुल्ला-तपासी में मिले धन को  देख कर सबको जेल भेजने की तैयारी की जाने . कि लंगड़ ने झट यक्ष को याद कर लिया . यक्ष एक कार में गुबार उडाता पहुंचा और पुलिस से रौबीली आवाज़ में बोला "इनको ये रूपए मैंने इनाम के बतौर दिए हैं."ये चोर नहीं हैं.
रहा सवाल सेठ गरीब दास का सो ये तो वास्तव में गरीब हैं
हवालदार ने कहा :-सिद्ध करोगे
यक्ष: अभी लो  गाँव के सचिव से  गरीबी रेखा की सूची मंगाई गई जिसमें सब से उपर सूची अनुसार सबसे ऊपर सेठ गरीब दास का नाम था
  सूची में जो नाम नहीं थे वो लंगड़,दीनू,मुन्ना,कल्लू,बिसराम और नौखे के...?

                                                    गिरीश बिल्लोरे"मुकुल"
                                                   जबलपुर मध्य-प्रदेश
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27 October 2008

दीपावली की शुभकामनाएं :एक चिंतन


दीपावली की धूमधाम भरी तैयारीयों में इस बार श्रीमती गुप्ता ने डेरों पकवान बनाए सोचा मोहल्ले में गज़ब इम्प्रेशन डाल देंगी अबके बरस बात ही बात में गुप्ता जी को ऐसा पटाया की यंत्र वत श्री गुप्ता ने हर वो सुविधा मुहैय्या कराई जो एक वैभव शाली दंपत्ति को को आत्म प्रदर्शन के लिए ज़रूरी था । इस "माडल" जैसी दिखने के लिए श्रीमती गुप्ता ने साड़ी ख़रीदी गुप्ता जी को कोई तकलीफ न हुई । घर को सजाया सवारा गया , बच्चों के लिए नए कपडे यानी दीपावली की रात पूरी सोसायटी में गुप्ता परिवार की रात होनी तय थी । चमकेंगी तो गुप्ता मैडम,घर सजेगा तो हमारी गुप्ता जी का सलोने लगेंगे तो गुप्ता जी के बच्चे , यानी ये दीवाली केवल गुप्ता जी की होगी ये तय था । समय घड़ी के काँटों पे सवार दिवाली की रात तक पहुंचा , सभी ने तय शुदा मुहूर्त पे पूजा पाठ की । उधर सारे घरों में गुप्ता जी के बच्चे प्रसाद [ आत्मप्रदर्शन] पैकेट बांटने निकल पड़े । जहाँ भी वे गए सब जगह वाह वाह के सुर सुन कर बच्चे अभिभूत थे किंतु भोले बच्चे इन परिवारों के अंतर्मन में धधकती ज्वाला को न देख सके ।
ईर्ष्या वश सुनीति ने सोचा बहुत उड़ रही है प्रोतिमा गुप्ता ....... क्यों न मैं उसके भेजे प्रसाद-बॉक्स दूसरे बॉक्स में पैक कर उसे वापस भेज दूँ .......... यही सोचा बाकी महिलाओं ने और नई पैकिंग में पकवान वापस रवाना कर दिए श्रीमती गुप्ता के घर ये कोई संगठित कोशिश यानी किसी व्हिप के तहत न होकर एक आंतरिक प्रतिक्रया थी । जो सार्व-भौमिक सी होती है। आज़कल आम है ............. कोई माने या न माने सच यही है जितनी नैगेटीविटी /कुंठा इस युग में है उतनी किसी युग में न तो थी और न ही होगी । इस युग का यही सत्य है।
{इस युग में क्रान्ति के नाम पर प्रतिक्रया वाद को क्रान्ति माना जा रहा है जो हर और हिंसा को जन्म दे रहा है }
दूसरे दिन श्रीमती गुप्ता ने जब डब्बे खोले तो उनके आँसू निकल पड़े जी में आया कि सभी से जाकर झगड़ आऐं किंतु पति से कहने लगीं :-"अजी सुनो चलो ग्वारीघाट गरीबों के साथ दिवाली मना आऐं

01 April 2008

बच्चे

संगमरमर की चट्टानों, को शिल्पी मूर्ती में बदल देता , सोचता शायद यही बदलाव उसकी जिन्दगी में बदलाव लाएगा. किन्तु रात दारू की दूकान उसे गोया खींच लेती बिना किसी भुमिका के क़दम बढ जाते उसी दूकान पे जिसे आम तौर पे कलारी कहा जाता है. कुछ हो न हो सुरूर राजा सा एहसास दिला ही देता है. ये वो जगह है जहाँ उन दिनो स्कूल काम ही जाते थे यहाँ के बच्चे . अभी जाते हैं तो केवल मिड-डे-मील पाकर आपस आ जाते हैं . मास्टर जो पहले गुरु पद धारी होते थे जैसे आपके बी०के0 बाजपेई, मेरे निर्मल चंद जैन, मन्नू सिंह चौहान, आदि-आदि, अब शिक्षा कमी हो गए है . मुझे फतेचंद मास्साब , सुमन बहन जी सब ने खूब दुलारा , फटकारा और मारा भी , अब जब में किसी स्कूल में जाता हूँ जीप देखकर वे बेचारे बेवज़ह अपनी गलती छिपाने की कवायद मी जुट जाते. जी हाँ वे ही अब रोटी दाल का हिसाब बनाने और सरपंच सचिव की गुलामी करते सहज ही नज़र आएँगे आपको ,गाँव की सियासत यानी "मदारी" उनको बन्दर जैसा ही तो नचाती है. जी हाँ इन्ही कर्मियों के स्कूलों में दोपहर का भोजन खाकर पास धुआंधार में कूदा करतें हैं ये बच्चे, आज से २०-२५ बरस पहले इनकी आवाज़ होती थी :-"सा'ब चौअन्नी मैको" {साहब, चार आने फैंकिए} और सैलानी वैसा ही करते थे , बच्चे धुआंधार में छलाँग लगाते और १० मिनट से भे काम समय में वो सिक्का निकाल के ले आते थे , अब उनकी संतति यही कर रही है....!!एक बच्चे ने मुझे बताया-"पापा"[अब बाबू या पिता जी नही पापा कहते हैं] दारू पियत हैं,अम्मा मजूरी करत हैं,तुम क्या स्कूल नहीं जाते ....?जाते हैं सा'ब नदी में कूद के ५/- सिक्का कमाते हैं....? शाम को अम्मा को देत हैंकित्ता कमाते हो...?२५-५० रुपैया और का...? तभी पास खडा शिल्पी का दूसरा बेटा बोल पडा-"झूठ बोल रओ है दिप्पू जे पइसे कमा के तलब[गुठका] खात है..

17 December 2007

एक छोटी से प्रेम कहानी

आज सात साल बाद अचानक रुबिया को देख मनोहर के पॉव जैस थम से गये थे, और वह उसके सामने जा, इस हक से खडा हो गया जैसे आखिर उसकी तपस्या रंग ले आयी हो, और अब उसको रुबिया को अपना बनाने से दुनिया की कोई मजहबी दीवार नही रोक सकती.
उसे सात साल पहले के वो मंजर याद आ गये जब उसने पहली बार रुबिया को अपने कॉलेज मे देखा था, ठीक इसी तरह उस दिन भी तो वो अचानक खडा हो गया था और बस रुबिया को देखता जा रहा था, और रुबिया उसके बगल से स्टुपिड बोल हॅसती हुई चली गई थी. प्रेम धर्म और मजहब की दीवार को नही मानता, यही सोच मनोहर ने रुबिया के दिल मे प्यार जगाने के लिये क्या क्या जतन नही किये थे. रुबिया के छोटे पंसद से ले बडे पंसद के अनुसार खुद को बदल डाला था और एक दिन रुबिया के दिल मे प्यार के दिये को जला ही दिया था, और फिर रुबिया ने भी तो खुद को पुरी तरह से मनोहर के अनुसार ढाल लिया था .
पर प्रेम धर्म और मजहब की दीवार को नही मानता जैसी बातें सिर्फ मोटी मोटी किताबें और धर्मग्रंर्थ मे ही शोभा देती है. मनोहर और रुबिया के प्यार मे भी आखिर धर्म के ठेकेदारों ने अपनी ठेकेदारी के झंडे गाड ही दिये. मनोहर के पिता ने साफ साफ शब्दों मे कह दिया था की, उसे या तो अपने परिवार को चुनना होगा या रुबिया को. वहीं किस्सा रुबिया के घर पर भी था, रुबिया की मॉ ने तो ऐलान कर दिया था की, अगर रुबिया मनोहर से निकाह करती है तो,उनके घर से एक साथ दो लोग निकलेगें, एक तो रुबिया अपनी डोली मे, तो दुसरी उसकी मॉ की अपनी जनाजे मे.
कहा जाता है, जहॉ चाह वहॉ राह. अगर प्यार में सच्चाई हो तो, प्यार की ही जीत हमेशा होती है. और वही हुआ. बहुत मान मन्नौवल के बाद मनोहर के पिता और रुबिया की अम्मी, दोनो ने इनके प्यार पर अपनी मोहर लगाने की इज्जाजत दे दी थी, पर शर्त सिर्फ एक थी - मनोहर के पिता के अनुसार अगर रुबिया हिन्दु धर्म अपनाने को तैयार हो जाती है तो उन्हें कोई ऐतराज नही है, ठीक उसी तरह रुबिया की अम्मी की शर्त थी की, मनोहर को मुस्लिम धर्म अपनाना होगा.
शादी के नये फ्रॉमुले को सुन मनोहर और रुबिया एक दुसरे को देख पहले तो बहुत देर तक हॅसते रहे, फिर उतनी ही देर वो एक दुसरे को पकड रोते भी रहे. और फिर उन दोनो ने भी वही फैसला लिया जो हमेशा से होता आया है. अपनी घर वालों के खातिर उन दोनों का अलग होना ही अच्छा है.
आज सात साल बाद अचानक रुबिया को देख मनोहर के खुशी का कोई ठिकाना नही था और रुबिया तो युं चहक रही थी की जैसे आज सारा आसमॉ उसका हो. दोनो ने एक साथ एक दुसरे से पुछा - कैसे हो मनोहर, कैसी हो रुबिया??? थोडी देर की खामोशी के बाद... रुबिया ने कंपकंपाती आवाज मे कहा - मनोहर अब मै रुबिया नही हुं, मैने अपना धर्म बदल लिया है, और अब मै हिन्दु हुं, और मेरा नाम रुपा है, बोल वो बहुत तेज तेज हॅसने लगी जैसे की वो धर्म के ठेकेदारों के मुहॅ पर तमाचा मार रही हो, और कह रही हो, देखो मैने अपने प्यार को आखिर पा ही लिया. पर मनोहर के ऑसु तो थमने के नाम ही नहीं ले रहे थे, वो तो बस अपनी ड्बडबायी ऑखों से अपनी रुबिया नही रुपा को देखता जा रहा था, और अचानक पीछे मुड जाने लगा. रुबिया नही रुपा पीछे से उसे अवाज देती रही पर मनोहर अपने कदमों की रफ्तार को और तेज करता हुआ, सोचता जा रहा था, की वो किस मुहॅ से अपनी रुबिया नही रुपा को बताये की, मजहब तो उसने भी अपना बदल लिया है और अब वो मुस्लमान है और उसका नाम मौहम्म्द मुस्स्तफा है. और मजहब की दीवार आज भी जस कि तस बरकरार है, बस दिशायें बदल गई हैं.