12 January 2008

औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की विसंगतियां

 

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लेखक श्री भूपेन्द्र नाथ सिंह, इलाहाबाद उच्‍च न्‍यालय के वरिष्‍ठ अधिवक्‍ता एवं सेवा व श्रम मामलों के विशेषज्ञ हैं।

औद्योगिक विवादों के शान्तिपूर्ण, सौहार्दपूर्ण निराकरण, श्रमशान्ति, बनाये रखने के लिए, श्रमिक समस्याओं का त्वरित समाधान आवश्यक है। औद्योगिक उत्पादन प्रभावित न हो और कारखानों को हडताल और तालाबन्दी से मुक्त रखने हेतु औद्योगिक विवादों तथा उनसे सम्बन्धित विषयों के समाधान के लिए भारत सरकार द्वारा औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 (अधिनियम सं0 14 सन् 1947) (केन्द्रीय अधि0) को विधि का रूप दिया गया। जिसमें औद्योगिक विवाद धारा 2 (K) में परिभाषित किया गया, जिसके अन्तर्गत औद्योगिक विवाद की परिभाषा व्यापक है।, सेवायोजक, एवं सेवायोजक कर्मकार एंव कर्मकार, सेवायोजक एवं कर्मकार के मध्य में उत्पन्न सभी विवाद अथवा मतभेद सम्मिलित है, जो नियोजन अथवा अनियोजन, नियोजन की शर्तों अथवा श्रमिक सेवा शर्तों से सम्बन्धित हों, औद्योगिक विवाद की परिधि में आता है। इसी क्रम में प्रदेश सरकार द्वारा, उ0 प्र0 औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 (उ0 प्र0 अधिनियम सं0 28 सन् 1947) ( प्रदेश अधि0 ) विधान मण्डल द्वारा पारित किया गया, जिसे राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त है और उ0 प्र0 में उक्त दोनों अधिनियम औद्योगिक विवादों के निराकरण के लिए प्रदेश में लागू हैं। यहां हम केन्द्रीय अधिनियम के प्राविधानों की चर्चा करगें। दोनों में लगभग समान प्राविधान है।

 

औद्योगिक विवादों के आपसी बातचीत द्वारा समाधान हेतु अधिनियम की धारा-4 के अन्तर्गत संराधन अधिकारी की नियुक्ति , उचित सरकार द्वारा शासकीय राजपत्र में प्रकाशन द्वारा करने की व्यवस्था है, जिन्हें औद्योगिक विवादों में मध्यस्थता करने, समाधान को प्रोत्साहित करने की जिम्मेंदारी दी गयी है। जो अपने क्षेत्र में आपसी बातचीत व सुलह द्वारा औद्योगिक विवादों के निराकरण करातें हैं। संराधन समझोता को एक विधिक व बाध्यकारी स्थित प्राप्त है। समझौता वार्ता असफल हो जाने पर श्रमशान्ति बनी रहे, संराधन अधिकारी की रिपोर्ट पर केन्द्रीय सरकार अथवा राज्य सरकार जो कि सम्बन्धित सेवायोजक के मामले में उचित सरकार हो, केन्द्रीय अधिनियम की धारा 10 के अन्तर्गत श्रमन्यायालयों, न्यायधिकरणों को विवाद के समाधान के लिए, सन्दर्भित करने का अधिकार दिया गया है उचित सरकार उत्पन्न समस्या को वाद विन्दु बनाकर अभिनिर्णय हेतु प्रेषित करती है। जिस पर श्रमन्यायालय अथवा न्यायाधिकरण को अपना एवार्ड देना अपेक्षित है। अधिनियम की धारा-7 में श्रमन्यायालय तथा धारा-7(A) में औद्योगिकन्यायाधिकरण के गठन का अधिकार उचित सरकार को (Appropriate Government) राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशित कर करेगी। अधिनियम की द्वितीय अनुसूची के अन्तर्गत उन विवादों का विवरण दिया गया है जो श्रमन्यायालय तथा तृतीय अनुसूची में औद्योगिकन्यायाधिकरण द्वारा विचारणीय विवादों का उल्लेख किया गया है, किन्तु ऐसा कोई औद्योगिक विवाद जिसमें प्रभावित कर्मचारियों की संख्या 100 से कम है उचित सरकार श्रमन्यायालय को भी अभिनिर्णय हेतु भेज सकती है। अधिनियम की धारा 10 में उचित सरकार औद्योगिक विवाद के उत्पन्न होने की सम्भावना (Apprehension) पर भी विवाद को अभिनिर्णय हेतु श्रम न्यायालय, अथवा न्यायालयों को सन्दर्भित कर सकती है। केन्द्रीय अधिनियम की धारा 17 के अन्तर्गत श्रम न्यायालय/न्यायाधिकरण अपना एवार्ड उचित सरकार को प्रेषित करेगें तथा उचित सरकार एवार्ड के प्राप्ति के 30 दिन के अन्दर एवार्ड को प्रकाशित करेगी तथा अधिनियम की धारा 17 B में यह व्यवस्था की गयी है कि न्यायाधिकरणों द्वारा सेवा समाप्ति के विरूध्द पारित एवार्ड के विरूध्द यदि संवायोजक कोई कार्यवाही उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत करते हैं तो कर्मचारी को सेवा समाप्ति के पूर्व अन्तिम आहरित वेतन प्राप्त होता रहेगा, यदि कर्मचारी ने अपने बेकार होने विषयक शपथ पत्र सम्बन्धित न्यायालय में दे दिया है।

कर्मचारियों को अधिनियम के अन्तर्गत व्यक्तिगत विवाद उठाने का अधिकार नही था। औद्योगिक विवाद या तो सम्बन्धित कर्मचारियों की टे्रड यूनियन, जहॉ यूनियन न हो, कर्मचारियों का समूह 5 निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से ही उठा सकता था। जिससे कर्मचारियों के सेवा समाप्ति के विवादों में अनेक कठिनाईयां सामने आयी। केन्द सरकार द्वारा अधिनियम में धारा-2 ए (अधिनियम सं0 356 सन् 1965) संशोधित कर जोडा गया जो 1.12.1965 में प्रभावी हुआ। जिसके द्वारा कर्मचारियों के व्यक्तिगत सेवा समाप्ति के विवादों को औद्योगिक विवाद माना गया। इसके उपरान्त ही सेवा समाप्ति के विवादों को कर्मचारी स्वयं उठाने में सक्षम हुआ और उसे किसी युनियन अथवा कर्मचारियों के प्रर्याप्त सख्या के सहयोग की आवश्यकता नही रह गयी।

अधिनियम की धारा 9 ए, में सेवाशर्तों के बदलाव (Change of condition of Service )करने पर, परिवर्तन की सूचना (Notice of change) दियें बिना सेवाशर्तों में किसी प्रकार का परिवर्तन न किये जाने का प्राविधान है। अधिनियम की अनुसूची 4 में उन सेवाशर्तों का विवरण दिया गया है, जिनमें बिना 21 दिन पूर्व सूचना परिवर्तन नही किया जो सकता है। किन्तु कोई ऐसा परिवर्तन यदि किसी समझोते अथवा एंवार्ड पर आधारित है, अथवा उन कर्मचारियो पर जिनकीे सेवाशर्तें Fandamental and Supplementary Rules, Civil Service (Classification Control and Appeal) Rules जैसे केन्द्रीय नियम लागू होते है तो परिवर्तन की नोटिस देना आवश्यक नही है।

अधिनियम की धारा-2 (ra) में अनुचित श्रम अभ्यास (Unfair Labour Practice) का उल्लेख है जिनका उल्लेख उक्त अधिनियम की अनुसूची- V में दी गयी है। अनुसूची V, के खण्ड-1 में सेवायोजक अथवा सेवायोजक संघ के द्वारा किये जाने वाले 16 कार्यो को तथा खण्ड II में कर्मचारी अथवा उनके टे्रड यूनियन्स् द्वारा किये जाने वाले-8 कार्यो को अनुचित श्रम अभ्यास को सूची में डाला गया है। अधिनियम की धारा 25 (T) द्वारा अनुचित श्रम अभ्यास का निषेध किया गया है तथा धारा 25 (U) में अनुचित श्रम अभ्यास की कार्यवाही को दण्डित करने का प्राविधान किया गया है। जिसके अन्तर्गत 6 मास की सजा तथा रूपये 1000/- तक जुर्माना अथवा दोनों दण्ड दिया जा सकता हैं।

अत: अनुचित श्रम अभ्यास की कार्यवाही को करने का पूर्ण निषेध किया गया है। अधिनियम की धारा 25 (A), 25(R), 25(T), 25(U), 26, 27, 28, 29, 30(A), 31, 32, द्वारा अधिनियम के विभिन्न प्राविधानों के उल्लघन पर, अभियोजन एवं दण्ड की व्यवस्था की गयी है तथा धारा 34 में यह व्यवस्था दी गयी है कि कोई न्यायालय इस अधिनियम के अन्तर्गत घटित किसी अपराध अथवा उसके उत्प्रेरण के लिए तभी कार्यवाही करेगा जब ऐसा परिवाद उस व्यक्ति के द्वारा अथवा उचित सरकार की अधिकरिता के अन्तर्गत अधिकृत व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है। अधिनियम के उपबन्धों के उल्लघन के लिए कर्मचारियों तथा यूनियन स्वयं परिवाद नही प्रस्तुत कर सकते हैं। केवल उचित सरकार द्वारा अथवा उसकी अनुमति से किसी व्यक्ति द्वारा परिवाद किया जा सकता है।

अधिनियम के उपबन्धों कों और अधिक प्रभावी बनाने, अनुचित बिलम्ब को रोकने के लिए, निम्न संशोधन आवश्यक है। जिससे सेवायोजकों द्वारा जानबूझकर उक्त अधिनियम के प्राविधानों का उल्लघन न हों और नियोजकों द्वारा मनमानी पूर्ण कार्यवाही कर कर्मचारियों का उत्पीडन न किया जा सकें।

1- सेवा समाप्ति के समस्त प्रकार के व्यक्तिगत विवादों को संराधन तंत्र में न प्रस्तुत कर, सीधे श्रम न्यायालय में दाखिल करने की व्यवस्था की जाय जिससे संदर्भादेश में होने वाले अत्यधिक विलम्ब को समाप्त किया जा सकें।

2- सेवाशर्तों में अधिनियम के प्रविधानों का उल्लघन करते हुए किसी भी अनुचित परिवर्तन के विरूध्द कर्मचारी को सीधे श्रमन्यायालय में परिवाद पत्र प्रस्तुत करने की व्यवस्था की गयी तथा श्रम न्यायालयों, न्यायाधिकरणों को कार्य की दशाओं/सेवाशर्तो में एक पक्षीय परिवर्तन के विरूध्द स्थगन आदेश देने हेतु सक्षम बनाया जाय।

3- श्रम न्यायालयों को अथवा औद्योगिक न्यायाधिकरण को स्वयं अपने एवार्डों को लागू करने का अधिकार दिया जाय तथा देय धन लाभ की वसूली हेतु प्रमाण पत्र जारी करने का अधिकार दिया जाय।

4- श्रम न्यायालय न्याधिकरणों को अपने आदेश/एवार्ड का प्रतिपालन कराने और उनका उल्लघन करने के लिए सम्बन्धित नियोजक/व्यक्ति को अवमानना अधिनियम के अन्तर्गत दण्डित करने का अधिकार दिया जाय, जिससे इनके आदेशों/अभिनिर्णयों को प्रतिपालन हो सके ओैर सेवायोजको अनावश्यक विलम्ब करने, एवार्ड/आदेशों को निष्फल करने की प्रवृत्ति को रोका जा सके।

5- अधिनियम में सशोधन कर पीडित कर्मचारी अथवा उसके श्रम संघटन को संक्षम न्यायालय में अधिनियम के विभिन्न प्राविधानों के उल्लघन के लिए परिवाद पत्र दाखिल करने का अधिकार दिया जाय जिससे अधिनियम के प्राविधानों का जबरन उल्लघन सेवायोजको द्वारा न किया जा सके और औद्योगिक सम्बन्ध मधुर रह सके तथा श्रमिको की आस्था इस तत्र में बनी रहे और उन्हें अराजता अथवा औद्योगिक अशान्ति के लिए बाध्य न होना पडें।

6- अनुचित श्रम अभ्यास के मामले मे, कर्मचारी अथवा उसके श्रम संघ व नियोजक अथवा उनके श्रम संघ को श्रम न्यायालय अथवा न्यायाधिकरण में जिसकी विषय वस्तु हों, परिवादपत्र प्रस्तुत करने तथा श्रम न्यायालयों/न्यायाधिकरणों को उन पर सज्ञान लेने, दण्ड अधिरोपित करने हेतु अधिकृत किया जाय। अनुचित श्रम अभ्यास निरन्तर घटित होने से रोकने हेतु श्रम न्यायालय/न्यायाधिकरण को सम्यक अधिकार प्रदान किया जाय और आवश्यकता अनुसार अधिनियम की धारा 7 एवं 7A में उचित संशोधन कर श्रम न्यायालयों/न्यायाधिकरणों को सक्षम बनाया जाय जिससे औद्योगिक विवादों को रोका जा सके तथा औद्योगिक उत्पादन, प्रभावित न हो।

7- वैसे केन्द्रीय व राज्य अधिनियम में जो अप्रभावी विधि के रूप में है, उनमें अन्य परिवर्तन करने की आवश्यकता है, जिन पर फिर कभी चर्चा करेगें।

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