03 July 2008

कश्मीर - नेहरू परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ… (भाग-1)

अक्टूबर 2002 में जिस वक्त पीडीपी-कांग्रेस की मिलीजुली सरकार कश्मीर में बनने वाली थी और “सौदेबाजी” जोरों पर थी, उस वक्त वहाँ के एक नेता ने कहा था कि “मुफ़्ती साहब को कांग्रेस के बाद सत्ता का आधा हिस्सा लेना चाहिये”, उसके पीछे उनका तर्क था कि “तब हम लोग (यानी पीडीपी) जब चाहे तब सरकार गिरा सकते हैं, अपने चाहे गये समय पर और अपने गढ़े हुए मुद्दों के हिसाब से”… आज वह आशंका सच साबित हो गई है, हालांकि पीडीपी ने पहले जमकर सत्ता का उपभोग कर लिया और अब अन्त में कोई बहाना बनाकर उन्हें सत्ता से हटना ही था क्योंकि चुनाव को सिर्फ़ दो माह बचे हैं। लेकिन क्या कभी इस बात पर विचार किया गया है कि इस प्रकार की राजनैतिक बाजीगरी से भारत का कितना नुकसान होता है? क्यों भारत इन देशद्रोहियों की इच्छापूर्ति के लिये करोड़ों रुपया खर्च करे? “कश्मीर”, हमारी-आपकी-सबकी छाती पर, नेहरू परिवार द्वारा डाला एक बोझ है जो हम सब पिछले साठ वर्षों से ढो रहे हैं।

कश्मीर में एक “शांतिपूर्ण”(?) चुनाव करवाने का मतलब होता है अरबों रुपये का खर्च और सैकड़ों भारतीय जवानों की मौत। लेकिन मुफ़्ती जैसे देशद्रोही नेता कितनी आसानी से मध्यावधि चुनाव की बातें करते हैं। चुनाव के ठीक बाद मुफ़्ती ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि “अब नौजवानों को बन्दूक का रास्ता छोड़ देना चाहिये, क्योंकि “उनके प्रतिनिधि” अब विधानसभा में पहुँच गये हैं, और चाहे हम सत्ता में रहें या बाहर से समर्थन दें, उनकी माँगों के समर्थन में काम करते रहेंगे”… क्या इसके बाद भी उनके देशद्रोही होने में कोई शक रह जाता है? लेकिन हमेशा से सत्ता की भूखी रही कांग्रेस और उनके जनाधारविहीन गुलाम नबी आजाद जैसे लोग तो तुरन्त से पहले कश्मीर की सत्ता चाहते थे और इन देशद्रोहियों से समझौता करने को लार टपका रहे थे। पीडीपी और कुछ नहीं हुर्रियत का ही बदला हुआ रूप है, और उनके ही मुद्दे आगे बढ़ाने में लगी हुई है, यह बात सभी जानते हैं, कांग्रेसियों के सिवाय।

आइये अब देखते हैं कि कैसे कश्मीरी लोग भारत को लूटने में लगे हुए हैं, भारत उनके लिये एक “सोने के अंडे देने वाली मुर्गी” साबित हो रहा है, और यह सब हो रहा है एक आम ईमानदार भारतीय के द्वारा दिये गये टैक्स के पैसों से…

सत्ता में आते ही सबसे पहले महबूबा मुफ़्ती ने SOG (स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप) को भंग कर दिया। जिस एसओजी ने बहुत ही कम समय में एक से एक खूंखार आतंकवादियों को मार गिराया था, उसे भंग करके महबूबा ने अपने “प्रिय” लोगों, यानी तालिबान, अल-कायदा और पाकिस्तानियों को एक “वेलकम” संदेश दिया था। महबूबा का संदेश साफ़ था “आप भारत में आइये, आपका स्वागत है, यहाँ आपका कुछ नहीं बिगड़ने दिया जायेगा, कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जायेगा…” इस प्रकार का खुला निमंत्रण दोबारा शायद न मिले। जाहिर है कि इससे हमें क्या मिलने वाला है, अपहरण, फ़िरौतियाँ, आतंकवाद समूचे देश में।

कश्मीर में अपहरण और राजनेताओं का गहरा सम्बन्ध है, और यह सम्बन्ध एक मजबूत शक की बुनियाद तैयार करते हैं। सबसे पहले 8 दिसम्बर 1989 को रूबिया सईद का अपहरण किया था, जो कि मुफ़्ती मुहम्मद की लड़की है। आतंकवादियों(?) की मुख्य माँग थी जेल में बन्द उनके कुछ खास साथियों को छोड़ना। जिस वक्त बातचीत चल ही रही थी और आतंकवादी सिर्फ़ धनराशि लेकर रुबिया को छोड़ने ही वाले थे, अचानक जेल में बन्द उनके साथियों को रिहा करने के आदेश दिल्ली से आ गये (सन्दर्भ मनोज जोशी – द लॉस्ट रिबेलियन: कश्मीर इन नाइन्टीज़)। उस वक्त केन्द्रीय गृहमंत्री थे मुफ़्ती मुहम्मद सईद और प्रधानमंत्री थे महान धर्मनिरपेक्ष वीपी सिंह। इस एक फ़ैसले ने एक परम्परा कायम कर दी और यह सिलसिला अपने वीभत्सतम रूप में कंधार प्रकरण के तौर पर सामने आया, जब हमारी “महान धर्मनिरपेक्ष” प्रेस, और न के बराबर देशप्रेम रखने वाले “धनिकों” के एक वर्ग के “छातीकूट अभियान” के दबाव के कारण भाजपा को भी मसूद अजहर और उमर शेख को छोड़ना पड़ा। रूस में एक थियेटर में चेचेन उग्रवादियों द्वारा बन्धक बनाये गये 700 बच्चों को छुड़ाने के लिये रूसी कमांडो ने जैसा धावा बोला, या फ़िर इसराइल के एक अपहृत विमान को दूसरे देश से उसके कमांडो छुड़ाकर लाये थे, ऐसी कार्रवाई आज तक किसी भी भारतीय सरकार ने नहीं की है। असल में केन्द्र में (इन्दिरा गाँधी के अवसान के बाद) हमेशा से एक पिलपिली, लुंजपुंज और “धर्मनिरपेक्ष” सरकार ही रही है। किसी भी केन्द्र सरकार में आतंकवादियों से सख्ती से पेश आने और उनके घुटने तोड़ने की इच्छाशक्ति ही नहीं रही (किसी हद तक हम इसे एक आम भारतीय फ़ितरत कह सकते हैं, दुश्मन को नेस्तनाबूद करके मिट्टी में मिला देना, भारतीयों के खून में, व्यवहार में ही नहीं है, अब यह हमारे “जीन्स” में ही है या फ़िर हमें “अहिंसा” और “माफ़ी” का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर ऐसा बना दिया गया है, यह एक शोध का विषय है)। अच्छा… उस वक्त केन्द्र में सरकार में “प्रगतिशील” और “धर्मनिरपेक्ष” लोगों की फ़ौज थी, खुद वीपी सिंह प्रधानमंत्री, और सलाहकार थे आरिफ़ मुहम्मद खान, इन्द्र कुमार गुजराल, अरुण नेहरू, और इन “बहादुरों” ने आतंकवादी बाँध के जो गेट खोले, तो अगले दस वर्षों में हमे क्या मिला? 30000 हजार लोगों की हत्या, हजारों भारतीय सैनिकों की मौत, घाटी से हिन्दुओं का पूर्ण सफ़ाया, धार्मिक कट्टरतावाद, हिन्दू तीर्थयात्रियों का कत्ले-आम, क्या खूब दूरदृष्टि पाई थी “धर्मनिरपेक्ष” सरकारों ने !!!!

अभी आगे तो पढ़िये साहब… 22 सितम्बर 1991 को गुलाम नबी आजाद के साले तशद्दुक का आतंकवादियों ने अपहरण किया। नतीजा? जेल में बन्द कुछ और आतंकवादी छोड़े गये। गुलाम नबी आजाद उस वक्त केन्द्र में संसदीय कार्य मंत्री थे, और अब कश्मीर के मुख्यमंत्री हैं। तात्पर्य यह कि गुलाम नबी आजाद और मुफ़्ती मुहम्मद में “अपहरण” और जेल में बन्द कैदियों को छोड़ना ये दो बातें समान हैं। एक और साहब हैं “सैफ़ुद्दीन सोज़”… कांग्रेस के सांसद, जो पहले नेशनल कॉन्फ़्रेंस में थे और जिनके प्रसिद्ध एक वोट के कारण ही एक बार अटल सरकार गिरी थी (लन्दन से फ़ोन पर उन्हें सलाह देने वाले थे शख्स थे वीपी सिंह)। सोज़ की बेटी नाहिदा सोज़ का अगस्त 1991 में अपहरण किया गया और एक बार फ़िर जेल में बन्द कुछ आतंकवादियों को रिहा किया गया।

क्या आपको यह सब रहस्यमयी नहीं लगता? हमेशा ही इन कथित बड़े नेताओं के रिश्तेदारों को ही अपहरण किया जाता है? आज तक किसी भी कश्मीरी नेता ने देशहित में कभी यह नहीं कहा कि आतंकवादियों के आगे झुकने की आवश्यकता नहीं है। तथ्य साफ़ इशारा करते हैं कि इन नेताओं और आतंकवादियों के बीच निश्चित ही सांठगांठ है। यही नेता “रास्ते से भटके नौजवानों” की आवाज विधानसभा में उठाने का दावा करते हैं और बन्दूक छोड़ने की “घड़ियाली आँसू वाली” अपीलें करते नजर आते हैं।

(भाग-2 में हम देखेंगे कि कैसे कश्मीर हम भारतीयों पर बोझ बना हुआ है…) (भाग-2 में जारी रहेगा…)

सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com

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3 comments:

Anonymous said...

darasal iske piiche khud hindoo jimmedar hain, jo ab sirf vyapari ban kar rah gaye hain, jinhe har cheej me apna nafaa-nuksaan dikhayi deta hai, yadi yahi haal raha to bahut jaldi hinduon ka sarvnaash ho jaayega, jo 200 saal ke mughalon ke shasan me nahi ho saka wo kaam 60 saal ke dharmnirpeksh loktantra me ho jaayega

दीपान्शु गोयल said...

बिल्किल सही लिखा है आपने। कश्मीर में आज के हालात के बीज तो नेहरु के समय ही बो दिये गये थे जब वे इस मसले को यूनाइडटेड नेशन्स मे ले गये थे। शायद वे अपने लिए नोबल शांति पुरुस्कार चाहते थे। वो तो मिला नहीं लेकिन एक नासूर कश्मीर के रुप में भारते को दे गये। कश्मीर की स्थिति खराब करने में वहां के नेताओ का बडा हाथ रहा है क्योकि बिगडे हालात ही उनके वोट बैक को बनाये रख सकते थे। मैं अभी कश्मीर से वापस आया हूँ। वहां के लोग बडी अच्छी तरह आप से बात करते हैं। लेकिन उन के मन ये बात है कि भारत ने आज तक उनके लिए कुछ नहीं किया और इस सोच को पैदा करने के पीछे नेताओ का बडा हाथ रहा है।

MEDIA GURU said...

JI HAN AAJ KE DARD K LIYE SARE JAKHMO KA SREY NAHRU KO HI JATA HAI.