19 March 2009

क्षणिका

कुंठा जो जला देती है
मेरे मन में हरियाई
चिंतन की फसलें ...
तब कहीं दूर से आभासी
चित्र सी तुम उभरतीं हो
तुम जो मेरी आत्मा की आकांक्षा हो
मुझसे इतने दूर मत जाया करो कि मैं
"अपनी ही अंतस की आग में झुलस जाऊं "
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4 comments:

Akhilesh Shukla said...

प्रिय मित्र
सादर अभिवादन
आपके ब्लाग पर बहुत ही सुंदर सामग्री है। इसे प्रकाशनाथ्ज्र्ञ अवश्य ही भेंजे जिससे अन्य पाठकों को यह पढ़ने के लिए उपलब्ध हो सके।
अखिलेश शुक्ल
संपादक कथा चक्र
please visit us--
http://katha-chakra.blogspot.com

Pramendra Pratap Singh said...

उम्‍दा कविता, जो स्‍वयं की ओर देखने को कह रही है।

Anonymous said...

bahut pasand aayi.

Girish Kumar Billore said...

Thanks