सीता जी ने कहा, 'तीनों लोकों में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो हनुमान जी को उनके उपकारों के बदले में दी जा सके।'
श्रीराम ने पुन: जैसे ही कहा, 'हनुमान, तुम स्वयं बताओ कि मैं तुम्हारे अनंत उपकारों के बदले क्या दूं, जिससे मैं ॠण मुक्त हो सकूं।'
श्री हनुमान जी ने हर्षित होकर, प्रेम में व्याकुल होकर कहा, 'भगवन, मेरी रक्षा कीजिए- मेरी रक्षा कीजिए, अभिमान रूपी शत्रु कहीं मेरे तमाम सत्कर्मों को नष्ट नहीं कर डाले। प्रशंसा ऐसा दुर्गुण है, जो अभिमान पैदा कर तमाम संचित पुण्यों को नष्ट कर डालता है।' कहते-कहते वह श्रीराम जी के चरणों में लोट गए। हनुमान जी की विनयशीलता देखकर सभी हतप्रभ हो उठे।
यह शिक्षाप्रद प्रेरक प्रंसग अमर उजाला दैनिक में पढ था जो मुझे अच्छा लगा, आपके साथ बॉट रहा हूँ।और हनुमान जी के दर्शन sulekha.com के सौजन्य से हो रहा है।
4 comments:
प्रेरक..आभार आपका!
विनयशीलता हनुमान जी से ही सीखनी चाहिये, बहुत बढ़िया। जय हनुमान ।
sach vinamrata hi asli gehna hai.
बहुत सुंदर लिखा हमे सेवा भाव हनुमान से सिखना चाहिये.
धन्यवाद
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