04 February 2010

दलित बनाम सवर्ण……क्या हर विवाद का दलिति करण आवश्यक है…..

वर्धा से बनारस तक बेबस दलित छात्र

वो आज भी क्लास की पिछली सीट पर बैठते हैं। आज भी उन्हें अपने जैसे ही अन्य छात्रों के साथ बैठ कर खाना खाने से डर लगता है। आज भी उन्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि किसी भी वक्‍त किसी भी बात को लेकर उनकी सारी काबिलियत को धत्ता बताए हुए, उनके सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया जाएगा। हम बात कर रहे हैं दलित छात्रों के हाल की, जो वर्धा से बनारस तक एक जैसा है।

यहां देखें  लेखक ने पुरजोर शब्दों ये साबित करने की चेष्टा की है जैसे आरक्षित वर्ग से आने वाले छात्रों के साथ बुरी तरह से अत्याचार किया जा रहा है…पढते पढते आंसु आने लगें …पर  आये नहीं क्यों कि मेरे विचार मैं हकीकत कुछ कुछ अलग है(मै दलित नहीं लिखूंगा….क्यों कि यह लिखना इस पूरे वर्ग का अपमान करना और झूठ भी है….क्यों कि अधिसंख्य छात्र दलित की परिभाषा मैं नहीं आते….किसी धन्ना सेठ के बच्चे….किसी बङे सरकारी अफसर के बच्चे….या किसी पैट्रोल पंप मालिक के परिवार वालों को दलित कहना तो ठीक नहीं है).

लेखक ने अनेकानेक उदाहरण देकर ये सिद्ध करने की कोशिश की है कि आरक्षित वर्ग के छात्रों को जानबूझकर फैल किया जाता है…उत्तर प्रदेश के मैडीकल कालेजों मैं सरवाधिक सप्लीमैंट्री आने वाले छात्र भी इसी वर्ग के होते हैं…इनके सेशनल एक्जाम्स मैं भी कम नंबर जानबूझकर दिये जाते है .     उनकी जबरदस्ती टांग खिंचाई होती है और तो और उनके किये गये रिसर्च वर्क को भी नाकारा कहा जाता है..

गाजियाबाद स्थित एक प्रबंध संस्थान ने तो सारी हदें पार करते हुए एक दलित छात्र प्रेम नारायण को न सिर्फ प्रवेश देने से इनकार कर दिया बल्कि उसे अन्य छात्रों के सामने संस्थान के प्रिंसिपल द्वारा भद्दी-भद्दी गालियां भी दी गयीं। कसूर सिर्फ ये था कि उसके पास डोनेशन के लिए दिये जाने वाले 45 हजार रुपए मौजूद नहीं थे। हालांकि बाद में इस मामले में प्राथमिकी दर्ज कर ली गयी।

प्रबंध संस्थान जैसे इंस्टीट्यूट जो कि सरकारी भी नहीं है वो अपनी निर्धारित फीस के बिना कैसे किसी को प्रवेस देगा और ये भी मान लिया के वो डोनेशन मांग रहे थे तो भी क्या वहा कोई ब्राह्मण विध्यारधी होता तो क्या वे उसे प्रवेश देते…..नहीं न …..पर यहां तो प्राथमिकी दर्ज हो गई और आप जैसा मूर्धण्य पत्रकार इसके बारे मैं लिख रहा है….पर उस गरीब ब्राह्मण या सवर्ण के लिये भी क्या आपने टसुए बहाये होते…..

बीकानेर के सरदार पटेल मेडीकल कालेज मैं की पढाई करते समय आरक्षित वर्ग के छात्रों के साथ हम भी पढे थे…पर कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि किसी भी प्रकार का वर्ण भेद देखने को मिला….इसके अनेका नेक उदाहरण मैंने अपने महाविध्यालय कालीन जीवन मैं देखे….ये सच है कि फैल होने वाले छात्रों मैं इनका प्रतिशत ज्यादा होता था पर ऐसे भी उदाहरण अनेक थे कि अनारक्षित छात्रों  से भी अधिक नं लाते थे….मेरे साथ पढने वाला ओमप्रकाश मीणा हमेशा मेरे से ज्यादा नं लाया करता था…मेरे से चार साल सीनियर भंवरलाल मीणा जो कि हमारे कालेज से 2002 मैं पास हुआ था अपने बैच का सैकंड टापर था …उसके बाद उसने एम्स पीजीआई की प्रवेश परीक्षाओं मैं अच्छी रैंक प्राप्त की उसके बाद राजस्थान प्री पीजी की परीक्षा मैं सातवीं रैक पर पास हुआ उसके बाद एम की और आज की तारीख मैं वो राजस्थान मैं आई पी एस लगा हुआ है…..मनोज रैहङूं राजस्थान प्रीपीजी की परीक्षा का 2007 का पूरी आरक्षइत श्रेणी का टापर और एकमात्र चयनित उम्मीदवा( क्यों कि बाकियों के पासिंग मार्क्स भी नहीं आये) मेरा क्लास ,मैट हमेशा मेरे से अच्छे नं लाता था कभी फैल नहीं हुआ.

एम डी जोधपुर से करते समय मेरा साथी देवैंद्र यादव जो कि अनुसूचित जाति से था उसकी वजह से हमेशा मुझे डांट खानी पङती थी क्यों कि वो विषय की पूरी तैयारी करके ही डिपार्टमैंट मैं आता था…और अपने राम तो मस्त मौला थे जो मर्जी हुई तो पढे नहीं तो यूं ही उठकर चले आते थे…..हमारे विभागाध्यक्ष डां कल्ला हमेशा अटका हुआ कैस सुलझाने के लिए डा राजकुमार कोठीवाला को बुलाते थे जो कि मीणा था….यहां तक की हमारी छुट्टियां पास करवाने के लिए भी राजकुमार ही सर  के पास जाते थे क्यों कि हमारे साहब की नजर मैं हम सब नालायक थे और वो एक काबिल था जिसके भरोसे हम सब रैजिडैंट काम करते थे…..और बहुत सी बातें जो यहां लिखना संभव नहीं….. 

ये एक घोषित तथ्य है कि आरक्षण के कारण से मर पच के कम प्रतिशत मैं ऐसे छात्रों का प्रवेश तो हो जाता है प्रोफेशनल कोर्सेज मैं पर जिनके प्रवेश मैं ही कम अंक प्राप्त हुए हैं उन छात्रों की क्षमता एक दिन मैं तो बढने वाली तो है नहीं तो फिर इससे परिणाम भी प्रभावित होता है….और जो छात्र अच्छा पढते हैंल मेहनत करते हैं  वे आरक्षित श्रेणी मैं होने के बाद भी अच्छे अंक प्राप्त करते हैं…और सफल होते हैं….जब तक छात्र इस दलित वाली मानसिकता से बाहर आकर मेहनत करके अपने आपको साबित नहीं करेंगे तब तक उनका परिणाम कहां से सुधरेगा….

बंधु हम सब हिंदु समाज के अंग है चाहे सवर्ण हों या दलित  आप सब को हिंदु ही क्यों नहीं रहने देते….क्यों  दलित को हमेशा दलित बने रहने को अभिशप्त कर रहें हैं…..

5 comments:

Unknown said...

दलितों को समझना चाहिए कि हिन्दूविरोधी-देशविरोधी शक्तियां नहीं चाहती कि सब हिन्दूएकजुट होकर आगे बढ़ें इसिए तरह-तरह के भेद उत्पन कर हिन्दुओं को तोड़ने की कोशिश करते रहते हैं ।हमें याद रखना चाहिए कि
उल्झे-सुलझे सब प्रस्नों का उत्तर शिर्फ एक-हिन्दू हम सब एक।

Pramendra Pratap Singh said...

दिल कहता है कि सम्‍पूर्ण भारत के लोग एक सूत्र मे बंधे जैसा कि संघ के पूज्‍य सरसंघचालक श्रीगुरू जी ने हिंदव: सहोदरा: सर्वे! न हिन्दू: पतितो भवेत् की कल्‍पना प्रस्‍तुत की इससे अच्‍छा विकल्‍प हो ही नही सकता है।

मै इस बात से कताई सहमत नही हूँ कि किसी को जाति समुदाय के कारण फेल किया जाता है, यह हमारी शिक्षा प्रणाली की व्‍यवस्‍था है कि किसी जाति विशेष के लोग फेल होते है।

अगर हम बात करे तो पायेगे कि हमारे इलाहाबाद विश्वविद्यालय मे समान्‍य वर्ग के बच्‍चो को प्रवेश परीक्षा मे 300 मे से 120 अंक पाना अनिवार्य होता है तभी प्रवेश सम्‍भव है जबकि ओबीसी के लिये 105 तथा एससी/एसटी के लिये 000 अंक पर प्रवेश सम्‍भव है। जब शून्‍य अंक पाने वाले शिक्षा ग्रहण करेगे तो निश्चित रूप से परिणाम उचित न होगा, जबकि समान्‍यवर्ग का 120 अंक वाला लड़का बड़ी मुश्किल वार्षिक परीक्षा मे 50 से 60 प्रतिशत अंक पाता है और फेल भी हो जाता है तो हम शून्‍य अंक पर प्रवेश पाने वाले लड़के से वार्षिक परीक्षा मे कौन से परिणाम की अपेक्षा कर सकते है ?

मिहिर जी आज आपके लेख से बहुत अच्‍छी बात निकली, आपको साधुवाद स्‍वीकार कीजिए।

जय हिन्‍द

याज्ञवल्‍क्‍य वशिष्‍ठ said...

बहुत सही बात,

RAJ SINH said...

मिहिर जी ,
पढता तो आपको अक्सर रहता हूँ पर टिप्पणी पहली है. क्योंकि आपके ब्लॉग पर मेरे विचार की टिप्पणी होती है.
आज एक जाना हुआ उदहारण देना चाहता हूँ. कम से कम शब्दों में.

मेरे एक सहपाठी और आज भी मित्र ,जिन्हें न मैंने कभी समझा ना माना दलित ,आप चाहें तो सन्दर्भ रूप में ले सकते हैं.जो की एक राज्य की पुलिस की उत्तमतर पद से रिटायर हो चुके हैं के साथ का वाकया. तब कार्यरत थे. उनका अर्दली एक ब्राम्हण था.खुद के बच्चे सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में पढ़ रहे थे और प्रसासनिक सेवा में जाना चाहते थे .मैंने जिग्यंसा वश पूछ लिया की क्या वह आराक्चित श्रेणी चाहेंगे . जबाब था हाँ ! मैंने कहा की क्या इस ब्राम्हण अर्दली के बच्चे वंचित नहीं हैं तुम्हारे बच्चों से ?.
उन्होंने एक हस्की मारी और हंस कर कहा भाई जब तक मिले सभी आएअक्चन लेंगे . हम संत नहीं हैं.और उस ब्राम्हण ने तो हजारों साल आरक्छन लिया हुआ है .
मैंने कुछ कहा नहीं .हमारी नैतिकता बरक़रार रहे इसके लिए होना जरूरी है चेक्स एंड बैलेंसेस.पर हो कैसे ?

PD said...

खुद मेरे धो बेहद खास मित्र जो इसी कैटेगरी से आते हैं, उन्होंने कभी भी आरक्षण लेना स्वीकार नहीं किया.. अपने बूते आगे बढे और आज समाज में बेहद खास उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं..