16 March 2008

"परगति के वीर....!!",

दधि मथ माखन काढ़ते,जे परगति के वीर,
बाक-बिलासी सब भए,लड़ें बिना शमशीर .
बांयें दाएं हाथ का , जुद्ध परस्पर होड़
पूंजी सन्मुख जे दिखें ,खड़े जुगल कर जोड़
अब तो गांधी आपको, आते हैं क्यों याद
क्या विचार की चुक गई परगति वीरो खाद.
धर्म पंथ मध्यम बरग,विषय परगति को भाय
उसी थाल को छेदते जिसमें भोजन खाय.

3 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

अच्‍छी कविता है, देशज भाषा का अच्‍छा प्रयोग है।

Girish Billore Mukul said...

"जे परगति"शब्द पर टिप्पणी
की प्रतीक्षा थी ,पसंद करने के लिए आभार

रीतेश रंजन said...

बहुत ही प्यारी और यथार्थपरक कविता है दोस्त!