01 November 2008

स्वर्गीय केशव पाठक

सहज स्वर-संगम,ह्रदय के बोल मानो घुल रहे हैं
शब्द, जिनके अर्थ पहली बार जैसे खुल रहे हैं .
दूर रहकर पास का यह जोड़ता है कौन नाता
कौन गाता ? कौन गाता ?
दूर,हाँ,उस पार तम के गा रहा है गीत कोई ,
चेतना,सोई जगाना चाहता है मीत कोई ,
उतर कर अवरोह में विद्रोह सा उर में मचाता !
कौन गाता ? कौन गाता ?
है वही चिर सत्य जिसकी छांह सपनों में समाए
गीत की परिणिति वही,आरोह पर अवरोह आए
राम स्वयं घट घट इसी से ,मैं तुझे युग-युग चलाता ,
कौन गाता ? कौन गाता ?
जानता हूँ तू बढा था ,ज्वार का उदगार छूने
रह गया जीवन कहीं रीता,निमिष कुछ रहे सूने.
भर न क्यों पद-चाप की पद्ध्वनि उन्हें मुखरित बनाता
कौन गाता ? कौन गाता ?
हे चिरंतन,ठहर कुछ क्षण,शिथिल कर ये मर्म-बंधन ,
देख लूँ भर-भर नयन,जन,वन,सुमन,उडु मन किरन,घन,
जानता अभिसार का चिर मिलन-पथ,मुझको बुलाता .
कौन गाता ? कौन गाता ?

6 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया..श्रृद्धांजलि!!!

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

narayan narayan

Girish Kumar Billore said...

SHUKRIYA
JI

sandhyagupta said...

Mantramugdh karne wali rachna.

guptasandhya.blogspot.com

Pramendra Pratap Singh said...

आपकी रचना मुझे बहुत अच्छी लगी, कहीं कहीं टाईपिंग मिस्टेक रही जो कविता की रोचकता और और पठनीयता को कम कर रही थी।

Girish Kumar Billore said...

SABHI KA SHUKRIYA