19 March 2008

ब्लॉग जगत को अलविदा कहने का वक्त आ गया लगता है…

भाईयों और बहनों, यह मेरी 200 वीं पोस्ट है। “श्मशान वैराग्य” किसे कहते हैं यह कई लोगों को मालूम होगा। जिन्हें नहीं मालूम, उन्हें बता दूँ कि जब हम किसी को श्मशान में छोड़ने जाते हैं और वहाँ उस मुर्दे की मिट्टी को जलते देखते हैं तो मन में एक विशेष भाव पैदा होता है। “यह जगत तो मिथ्या है…”, “यहाँ सब बेकार है…”, "ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं…" टाइप की भावनायें पैदा होती हैं। यही भाव आज मेरे मन में भी पैदा हो रहा है।

26 जनवरी 2007 को जब मैंने पहली-पहली पोस्ट लिखी थी, तब मैं सोचता था कि ब्लॉग के जरिये क्रांति बस आने ही वाली है। विगत चौदह माह में 200 पोस्टें लिखने, 50 सब्स्क्राइबर बना लेने, लगभग 18000 बार पढ़े जाने के अलावा मैंने किया क्या है? नेताओं, अफ़सरों, भ्रष्टाचार, अनैतिकता के खिलाफ़ जमकर लिखा, कुछ लोगों ने पसन्द भी किया। एक-एक ब्लॉग को 100-150 लोगों ने पढ़ा भी, लेकिन उससे हुआ क्या? क्या मैंने कुछ हासिल किया? कुछ नहीं…। मुझे आत्मसंतुष्टि के अलावा क्या मिला? कुछ नहीं…। क्या मैं कुछ लोगों के विचारों को प्रभावित कर पाया? या क्या मैंने कुछ लोगों के विचार बदलने में सफ़लता हासिल की? पता नहीं…। मेरे अच्छे-अच्छे लेखों की दो-चार लोगों ने तारीफ़ कर दी तो उससे क्या? इसकी बजाय तो गालीगलौज करने वाले, हिन्दू-मुस्लिम दंगों पर रोटी सेंकने वाले, दलित-दलित, महिला-महिला भजने वाले कई ब्लॉग हैं जो आये दिन छाये रहते हैं, विवाद करते हैं, विवाद पैदा करते हैं, विवादों में ही अपनी दुनिया रमाते हैं, कुछ नकली नामों से लिखते हैं, कुछ नकली नामों से अपने ही ब्लॉग पर टिप्पणी कर देते हैं, यानी कि चालबाजियाँ, साँठगाँठ, उठापटक करने वाले ब्लॉग ज्यादा पढ़े जा रहे हैं। आज तक किसी ब्लॉग एग्रीगेटर के काउंटर पर मैंने टॉप नहीं किया (और मूर्खों की तरह मैं समझता था कि अच्छा लिखना ही काफ़ी है)।

फ़िर क्यों मैं ब्लॉग लिख रहा हूँ, अपना समय नष्ट कर रहा हूँ, अपना पैसा खराब कर रहा हूँ… क्या ब्लॉग लिखने से मुझे कमाई हो रही है? बिलकुल नहीं…। उलटा मेरा कीमती समय, बेशकीमती ऊर्जा, इंटरनेट के खर्चे आदि इसमें लग रहा है। क्या भविष्य में इस प्रकार के लेखन से मुझे कोई कमाई की सम्भावना है? अभी तक तो नहीं लगता…। क्या बड़ी मेहनत से रिसर्च करके तैयार किये गये मेरे लेखों को कोई अखबार छापेगा? यदि छापेगा तो पैसे देगा? यदि बगैर पैसों के छाप भी देगा तो उससे क्या होने वाला है? हजारों लोग यूँ ही रोज लाखों पन्ने काले कर देते हैं, कहीं कुछ होता है क्या? क्या ऐसे लेख लिखने भर से नेता, अफ़सर, उद्योगपति, भ्रष्ट बाबू आदि सुधर जायेंगे? नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला, फ़िर मैं ब्लॉग क्यों लिख रहा हूँ? सिर्फ़ अपने मन के लिये, अपने मन को सहलाने के लिये? यदि हाँ तो इसकी कीमत बहुत ज्यादा है, जो मेरे जैसे निम्न-मध्मवर्गीय व्यक्ति के लिये मायने रखती है। तरक्की हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं है। पहले 20 सब्स्क्राइबर थे, जो बढ़कर 50 हो गये हैं, पहले प्रति पोस्ट पाठकों का औसत 20-30 ही था जो अब बढ़कर 70-80 हो गया है, एडसेंस खाते में जीरे के समान 5 डॉलर भी जमा हो गये हैं, लेकिन फ़िर वही सवाल कि इस सबका फ़ायदा क्या?

बुजुर्गों ने कहा है कि “शौक ऐसा पालो कि जो तुम्हारी औकात का हो…” क्या ब्लॉग लेखन का शौक मेरे बूते का है? मुझे नहीं लगता। यह शौक अब धीरे-धीरे नशा बनता जा रहा है। जिस तरह से सिगरेट, शराब का नशा होता है, उसी तरह से ब्लॉग लेखन भी एक लत होती है। जब तक आप ब्लॉग नहीं लिख लेते तब तक आप बेचैन रहते हैं, एक प्रकार की “प्रसव-पीड़ा” होती रहती है। किसी समस्या पर नहीं लिख पाते तो मन बेचैन रहता है, यह साफ़-साफ़ “लत” के लक्षण हैं। इस नशे का अगला चरण होता है, “कितने लोगों ने पढ़ा…” उसका अगला चरण होता है, “कितने लोगों ने टिप्पणी की…”, फ़िर विचार मंथन, नहीं पढ़ा तो क्यों नहीं पढ़ा? पढ़ लिया तो टिप्पणी क्यों नहीं की? टिप्पणी की तो विरोधी स्वर क्यों निकाले? यानी अन्तहीन साँप-बिच्छू। (सौभाग्य से अभी मैं नशे के पहले चरण में ही हूँ, यानी कि सिर्फ़ जो मन में आये लिखता हूँ, कोई पढ़े या न पढ़े, टिप्पणी करे न करे, अच्छा बोले या बुरा कोई फ़र्क नहीं पड़ता), लेकिन आखिर यह सब कब तक?

हाल ही में किसी विद्वान ने कहा है कि “अधिक ब्लॉगिंग करने से मानव कर्महीन, निरर्थक और मानसिक खोखला होता जाता है…”। एक मनोचिकित्सक कहते हैं कि Paralysis by Analysis, यानी अच्छा ब्लॉग लिखने के लिये Research and Analysis करना पड़ता है जिससे मानसिक पैरेलिसिस भी हो सकता है, ऊपर से “बुद्धिजीवी” कहलाये जाने का खतरा हमेशा सिर पर मँडराता रहता है। समझ में नहीं आता क्या किया जाये? ब्लॉगिंग पहले-पहल एक शौक होता है, फ़िर वह आत्मसंतुष्टि का साधन बनता है, फ़िर पागलपन और अन्त में एक खतरनाक नशा। ऐसा घातक नशा, जिसका प्रभाव सामने वाले को दिखता तक नहीं… मैं फ़िलहाल दूसरी स्टेज में पहुँचा हुआ हूँ, यानी आत्मसंतुष्टि वाली स्टेज, लेकिन इस पर मैं कब तक रह सकूँगा कह नहीं सकता। बढ़ते खर्चों (और लिखने से कोई कमाई नहीं) तथा ब्लॉग लिखने के लिये होने वाली ऊर्जा विनाश को देखते हुए मेरे पास ज्यादा समय नहीं बचा है…शायद ब्लॉग जगत को अलविदा कहने का वक्त आ गया है।

डिस्क्लेमर : उज्जैन की भांग बहुत प्रसिद्ध है, होली का माहौल है। भंग की तरंग में ऊपर लिखित नायाब, अफ़लातून (और शायद फ़ायदेमंद) विचार सामने आये हैं, जिससे अब मैं वाकई गंभीरता से सोचने लगा हूँ कि भांग का नशा ज्यादा बेहतर है या ब्लॉग लिखने का? दो रुपये की भांग में पूरा दिन दिमाग चकाचक और तबियत झकाझक, जबकि ब्लॉग लिखने से मिलता क्या है… धेला-पत्थर, कुछ तारीफ़ें-कुछ गालियाँ, अब बताइये कौन सा सौदा बेहतर है?

सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com

11 comments:

Arun Arora said...

सही है जी भंग की तरग और देल कार नेगी की किताब का असर है , उतरने से पहले अगला लेख लिख डालो वैसे तरीका सही है दूसरी सैकडा मारने का..

समयचक्र said...

लगता है ब्लॉग जगत को छोड़ने का समय आ गया है तो मिन्टास लीजिए फ़िर आप कही मत जाइए

Kaput bhatkav said...

भइया साफ बताओ ना आप क्‍या चाहते हो गोल गोल क्‍यों ?

Sanjay Tiwari said...

फ़िर क्यों मैं ब्लॉग लिख रहा हूँ, अपना समय नष्ट कर रहा हूँ, अपना पैसा खराब कर रहा हूँ… क्या ब्लॉग लिखने से मुझे कमाई हो रही है? बिलकुल नहीं…। उलटा मेरा कीमती समय, बेशकीमती ऊर्जा, इंटरनेट के खर्चे आदि इसमें लग रहा है। क्या भविष्य में इस प्रकार के लेखन से मुझे कोई कमाई की सम्भावना है?

मजाक ही सही लेकिन हिन्दी ब्लागिंग की सच्चाई यही है. अच्छा निर्णय.

रवीन्द्र प्रभात said...

अरे भाई , इतनी जल्दी भी क्या है ?

MEDIA GURU said...

holi per doosra pack mar diya aapne

राज भाटिय़ा said...

अरे सुरेश जी ऎसा कभी भी ना सोचना,हम एक सच्चा आदमी नही खोना चाहते

रीतेश रंजन said...

अगर आपके ब्लोग के कारण एक आदमी का सोचने का तरीका बदल जाता है, तो मेरे अनुसार ये आपकी जीत है, सो आपको दुखी होने की जरुरत नहीं, आप इस ब्लोग का इस्तेमाल उन पक्षों को सामने लाने में भी कर सकते हैं, देश के वो पक्ष जो लगता है कहीं विलुप्त हो गए हैं.... जो कि मैं आपने ब्लोग से कर रहा हूँ.. ओर मुझे पता है कि मन सफल होने वाला हूँ.. क्यूंकि मेरा लक्ष्य पैसा कमाना नहीं है.शायद आपका लक्ष्य यही हो शुरुआत में, तो अब उससे विग्रह क्यूँ?

Pramendra Pratap Singh said...

ब्‍लाग पर लिखना अभी हमारी रूचि हो सकती है, इससे ज्‍यादा कुछ और नही है। और अधिकतर लोग अपने रूचि और पंसद को वरीयता देते है।

होली की मस्‍ती की शुभकामनाऍं।

Udan Tashtari said...

ये क्या बात हुई-मीठे मीठे सपने दिखाते हो कि जा रहा हूँ..जा रहा हूँ और आखिर में आकर डिस्क्लेमर..हम नहीं मानते जी आपका डिस्क्लेमर. :) होली मुबारक...नशा टूटे तो आ जाना....

बाल भवन जबलपुर said...

डिस्क्लेमर : उज्जैन की भांग बहुत प्रसिद्ध है, होली का माहौल है। भंग की तरंग में ऊपर लिखित नायाब, अफ़लातून (और शायद फ़ायदेमंद) विचार सामने आये हैं, जिससे अब मैं वाकई गंभीरता से सोचने लगा हूँ कि भांग का नशा ज्यादा बेहतर है या ब्लॉग लिखने का? दो रुपये की भांग में पूरा दिन दिमाग चकाचक और तबियत झकाझक, जबकि ब्लॉग लिखने से मिलता क्या है… धेला-पत्थर, कुछ तारीफ़ें-कुछ गालियाँ, अब बताइये कौन सा सौदा बेहतर है?
sahee hai...=>विजया को ऐसो नशा,हो गए लबरा मौन,
पत्नी से पूछें पति :-"हम आपके कौन ?"