14 September 2008

पार्थ विकल है युद्ध अटल है छोड़ रूप अब श्रृंगारी

अमिय पात्र सब भरे भरे से ,नागों को पहरेदारी
गली गली को छान रहें हैं ,देखो विष के व्यापारी,
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मुखर-वक्तता,प्रखर ओज ले भरमाने कल आएँगे
मेरे तेरे सबके मन में , झूठी आस जगाएंगे
फ़िर सत्ता के मद में ये ही,बन जाएंगे अभिसारी
..................................देखो विष के व्यापारी,
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कैसे कह दूँ प्रिया मैं ,कब-तक लौटूंगा अब शाम ढले
बम से अटी हुई हैं सड़कें,फैला है विष गले-गले.
बस गहरा चिंतन प्रिय करना,खबरें हुईं हैं अंगारी
..................................देखो विष के व्यापारी,
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लिप्सा मानस में सबके देखो अपने हिस्से पाने की
देखो उसने जिद्द पकड़ ली अपनी ही धुन गाने की,
पार्थ विकल है युद्ध अटल है छोड़ रूप अब श्रृंगारी
..................................देखो विष के व्यापारी,

5 comments:

विवेक सिंह said...

वीर रस की ओजस्वी कविता .

Pramendra Pratap Singh said...

विवेक भाई से सहमत हूँ, बहुत ही अच्‍छी कविता, इसे पढ़ने में वो मजा मिला जो प्रसाद जी को पढ़ने में मिलता है।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन सभी.

Udan Tashtari said...

पहली टिप्पणी पूरी होने के पहले ही उड़ चली...

बेहतरीन सभी छंद पसंद आये.. बधाई.

Girish Kumar Billore said...

thabnks to all